सम्राट और बोध भिक्षुक की कहानी | The Story of the Emperor and the Bodh Bhikkhu























 


पुराने समय की बात है एक बार एक सम्राट था। वह बहुत ही बहादुर और शक्तिशाली था। वह बहुत ही दयालु हृदय भी था। वह अपनी प्रजा को बहुत ही खुश रखता था । वह अपने शासनकाल का अब तक का सबसे प्रिय और सफल शासक था। उसका एक पुत्र भी था । वह भी अपने पिता की तरह एक सफल शासक और सबका प्रिय बनना चाहता था। परंतु वह सबकी नजरों में अच्छा बनने के लिए जो कर्म करता उसमें कुछ ना कुछ कमी रह जाती। जिससे कि वह बहुत ही अशांत हो जाता और दिन भर अपने उस कमी के बारे में सोच सोच कर परेशान हो जाता था। वह सोचता था कि ऐसा क्या करें जिससे कि वह अपने पिता की तरह बन सके। उन्हीं दिनों उनके नगर में एक बौद्ध भिक्षुक अपने शिष्यों के साथ आए हुए थे । बौद्ध भिक्षुक बहुत ही ज्ञानी थे । राजकुमार अपनी समस्या के समाधान के लिए उन बौद्ध भिक्षुक के पास गया ।बौद्ध भिक्षुक के पास जाकर राजकुमार ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया । बौद्ध भिक्षुक ने राजकुमार से उसके आने का कारण पूछा । तब राजकुमार ने अपनी सारी समस्या उन्हें बता दी । बौद्ध भिक्षुक ने कहा मैं तुम्हारी समस्या का समाधान कर सकता हूं । पर तुम्हें इसके लिए कुछ कीमत चुकानी होगी । राजकुमार ने बड़े अभिमान से कहा कि मैं राजा का पुत्र हूं मैं कुछ भी कीमत चुका सकता हूं । बौद्ध भिक्षुक ने कहा कि यहां कीमत का अर्थ किसी सोना चांदी से  नहीं है बल्कि तुम्हें मुझसे कोई प्रश्न पूछे बिना एक कार्य करना है । राजकुमार ने कुछ सोचकर हां कह दी। बौद्ध भिक्षुक ने कहा कि तुम्हें बाजार में एक बड़े कबाड़ी वाले के पास जाना है । और उससे कुछ खराब लोहा लेकर आना है। राजकुमार ने कहा कि क्या वह अपने नौकरों से पुराने लोहे को मंगवा सकता है । बौद्ध भिक्षुक ने मना कर दिया और कहा कि सिर्फ तुम्हें ही पैदल चलकर वहां पर जाना है और पुराना लोहा लेकर आना है । राजकुमार पैदल चल दिया । राजकुमार को बहुत दुख हो रहा था क्योंकि वह कभी भी महल के बाहर पैदल नहीं निकला था । जब भी वह महल से बाहर जाता हमेशा रथ और घोड़े की सवारी से ही जाता । लेकिन आज वह कड़ी धूप में पैदल चल रहा था । चलते चलते उसने सोचा कि मुझे सब देख रहे हैं ये मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे कि राजा का पुत्र और पैदल चल रहा है । कहीं राजा ने इसे महल से तो नहीं निकाल दिया । रास्ते में उसे सब लोगों को देखकर बार-बार मन में यही ख्याल आ रहा था कि ये सब मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे । अंत में वह एक कबाड़ी की दुकान पर पहुंचा । कबाड़ी की दुकान पर जाकर उसने उससे खराब लोहा मांगा । वहां पर भी वह यही सोच रहा था कि कबाड़ीवाला मेरे बारे में क्या सोचता होगा । कबाड़ी वाले ने उसे खराब लोहा दिया और उसे लेकर राजकुमार बौद्ध भिक्षुक के पास आ गया । अब बौद्ध भिक्षुक ने उसे एक लोहार की दुकान पर जाने को कहा । और कहा कि वह इससे एक तलवार बनाकर लेकर आए । राजकुमार लोहार की दुकान पर चला गया ।वहां जाकर राजकुमार ने लोहे को पिघलाकर तलवार को बनाना शुरू कर दिया ।जब उसने एक तलवार बनाई तो उसे उस तलवार को देख कर बहुत खुशी हुई और उसने महसूस किया कि जब वह तलवार बना रहा था । तो उसके मन में किसी भी तरह का कोई विचार नहीं आया । वह तलवार को देखकर बहुत खुश हो रहा था कि उसने अपने हाथों से यह तलवार बनाई है । उस तलवार को लेकर वह बौद्ध भिक्षुक के पास चला आया । बौद्ध भिक्षुक  ने कहा कि अब तुम्हें एक काम और करना है तुम्हें वापस कबाड़ी वाले के पास जाना है और रास्ते में जो भी दुकानदार या लोग तुमने जिन्हे देखा था । उनसे अपने बारे में यह पूछना है कि क्या उन्होंने थोडे समय पहले तुम्हें यहां देखा था । राजकुमार वापिस कबाड़ी वाली दुकान पर चला जाता है । वह वहां जाकर कबाड़ी वाले से पूछता है कि जब वह लोहे का सामान ले रहा था तो वो उसके बारे में क्या सोच रहा था । तो कबाड़ी वाले ने कहा कि उसके महंगे वस्त्रों को देखकर उसने सोचा कि वह किसी अमीर घराने से है बस इसके बाद मैं अपने काम में लग गया । इसके बाद उसने कुछ नहीं सोचा । उसके बाद राजकुमार एक दुकानदार के पास गया और दुकानदार से पूछा कि क्या आपने थोड़े समय पहले उसे यहां देखा था ।  दुकानदार ने कहा कि नहीं ,मैंने आपको नहीं देखा था । मेरे दुकान पर इतने ग्राहक आए हुए थे।  मैं उन में व्यस्त था । तब राजकुमार ने रास्ते में कुछ लोगो से पूछा कि क्या थोड़े समय पहले उन्होने उसे यहां देखा था ।तो उन लोगों ने कहा कि नहीं, हमने आपको यहां नहीं देखा । हम सब अपने काम में व्यस्त थे । तब राजकुमार बौद्ध भिक्षुक के पास आ गया और सारी बात बताई । तब बौद्ध भिक्षुक ने कहा कि राजकुमार यही आपकी समस्या का समाधान है । राजकुमार ने कहा कि परंतु मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आया । तब उसने कहा कि जब हम किसी कार्य को करें तो हमारा ध्यान उसी कार्य में होना चाहिए । हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अन्य लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे और हां ,अगर हमारे काम में कुछ कमी रह गई है तो उस कमी को बार-बार सोचने की बजाय हमें उस कमी को ठीक करने के बारे में सोचना चाहिए । कि अगर हम दोबारा यह काम करें तो हम से यह गलती ना हो ।बल्कि यह नहीं कि पूरा दिन उस कमी के बारे में सोच सोच कर अपना सारा दिन खराब करें या अपना मन परेशान रखें । जिन्हें कुछ काम नहीं होगा । वही दूसरे लोगों के बारे में बुरा सोचते हैं इसलिए हमें अपने काम पर ध्यान देना चाहिए । राजकुमार को बौद्ध भिक्षु की बात समझ में आ गई बौद्ध भिक्षु ने कहा कि जब तुम तलवार बना रहे थे क्या तुम्हारे मन में कोई विचार उठे तब राजकुमार ने कहा– नहीं ,उस समय मेरा ध्यान तलवार बनाने में था । तो बौद्ध भिक्षुक ने कहा कि जब भी तुम्हारे मन में कोई बुरे विचार या किसी तरह के  विचारों का समुद्र उमड़ पड़े तब तुम्हें किसी कलात्मक कार्य में लग जाना चाहिए। कोई मन पसंदीदा कार्य जिसे करने में तुम्हारी इच्छा हो । यही तुम्हारी समस्या का समाधान है। राजकुमार को बौद्ध भिक्षुक की बात समझ आ गई। अब वह महल में आकर प्रजा को खुश करने के लिए कार्य करता। धीरे-धीरे उसका मन शांत होने लगा था और वह खुश भी रहने लगा था ।

Once upon a time there was an emperor. He was very brave and powerful. He also had a very kind heart. He used to keep his subjects very happy. He was by far the most beloved and successful ruler of his reign. He also had a son. Like his father, he also wanted to be a successful ruler and loved by all. But the work that he would do to become good in the eyes of everyone, there would have been some deficiency in it. So that he became very restless and used to get upset thinking about his lack throughout the day. He wondered what to do so that he could become like his father. In those days a Buddhist monk was coming to his town with his disciples. Buddhist monks were very knowledgeable. The prince went to the Buddhist monk to solve his problem. Going to the Buddhist monk, the prince bowed to him with folded hands. The Buddhist monk asked the prince the reason for his coming. Then the prince told all his problems to him. The Buddhist monk said I can solve your problem. But you have to pay some price for it. The prince said with great pride that I am the son of the king, I can pay any price. The Buddhist monk said that here the price does not mean any gold or silver, but you have to do one thing without asking me any question. After thinking something, the prince said yes. The Buddhist monk said that you have to go to a big junk shop in the market. And he has to bring some bad iron from him. The prince asked if he could get the old iron from his servants. The Buddhist monk refused and said that only you have to go there on foot and bring the old iron. The prince went on foot. The prince was feeling very sad because he had never walked outside the palace. Whenever he went out of the palace, he always went by chariot and horse ride. But today he was walking in the scorching sun. While walking, he thought that everyone is watching me, what would they be thinking about me that the son of the king is walking on foot. Somewhere the king did not remove it from the palace. Seeing all the people on the way, this thought was coming in my mind again and again that what all of them must be thinking of me. Finally he reached a junk shop. Going to the scrap shop, he asked for a bad iron from him. Even there, he was thinking the same thing about what the scrap dealer would have thought of me. The scrap dealer gave him a bad iron and the prince came to the Buddhist monk with him. Now the Buddhist monk asked him to go to a blacksmith shop. And said that he made a sword out of it and brought it. The prince went to the blacksmith's shop. Going there, the prince started making swords by melting iron. When he made a sword, he was very happy to see that sword and he felt that while he was making a sword. So no thought of any kind came in his mind. He was getting very happy seeing the sword that he had made this sword with his own hands. With that sword he went to the Buddhist monk. The Buddhist monk said that now you have to do one more thing, you have to go back to the scrap dealer and whatever shopkeepers or people you saw on the way. Ask him about himself whether he saw you here a while back. The prince goes back to the scrap shop. He goes there and asks the scrap dealer what he was thinking about when he was taking the iron goods. So the scrap dealer said that seeing his expensive clothes, he thought that he was from some rich family, just after that I got busy in my work. After that he didn't think anything. After that the prince went to a shopkeeper and asked the shopkeeper whether you had seen him here a while back. The shopkeeper said no, I did not see you. There were so many customers coming to my shop. I was busy with them. Then the prince asked some people on the way whether they had seen him here a while back. So those people said that no, we did not see you here. We were all busy with our work. Then the prince came to the Buddhist monk and told everything. Then the Buddhist monk said that this prince is the solution to your problem. The prince said that but I did not understand anything. Then he said that when we do any work, then our attention should be in that work. We should not think about what other people will think about us and yes, if there is something missing in our work, instead of thinking about that deficiency again and again, we should think about correcting that deficiency. That if we do this work again, then we should not make this mistake. Rather, it is not that the whole day, thinking about that deficiency, spoil your whole day or keep your mind disturbed. Which will not work. They think badly about other people, so we should focus on our work. The prince understood the point of the Buddhist monk, the Buddhist monk said that when you were making a sword, did any thought arise in your mind, then the prince said – No, at that time my focus was on making the sword. So the Buddhist monk said that whenever you have any bad thoughts or some kind of ocean of thoughts, then you should engage in some artistic work. Any favorite work that you wish to do. This is the solution to your problem. The prince understood the point of the Buddhist monk. Now he would come to the palace and work to please the subjects. Slowly his mind started to calm down and he was also happy.

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