बहुत पहले की बात है ऋषि मांडवय नाम के बहुत ही उच्च तपस्वी थे । उन्होंने अपनी तपस्या के बल पर बहुत से पुण्य अर्जित कर लिए थे । एक दिन की बात है ऋषि मांडवय अपनी कुटिया में बैठे तपस्या कर रहे थे । वे भगवान के ध्यान में लीन थे ।तभी तीन चोर जो कि व्यापारी की वेशभूषा में थे ,उनके पास दौड़ते हुए आते हैं और कहते हैं कि – हे ब्राह्मण देव ! हमें बचा लीजिए , हमारे पीछे कुछ डाकू पड़े हुए हैं जो हमारी तरह ही व्यापारी का वेश बनाए हुए हैं । वह हमसे हमारा धन लूटना चाहते हैं । उन तीनों चोरों के पास बहुत सारा धन था । तीनों चोर महर्षि से झूठ बोल रहे थे । उनके पीछे वास्तव में डाकू नहीं बल्कि राजा के सिपाही व्यापारी वेशभूषा में थे। जो उन्हें पकड़ने के लिए आ रहे थे ।महर्षि मांडवय ने उन तीनों चोरों की बात को सच समझ कर और उन्हें व्यापारी समझ कर अपनी कुटिया में छिपा लिया । तीनों चोर चोरी के धन को ऋषि मांडवय जी की कुटिया में रखकर भाग गए । जब व्यापारियों का वेश धारण किए हुए राजा के सिपाही महर्षि मांडवय की कुटिया के समीप पहुंचे तो उन्होंने उन चोरों को वहां से भागते हुए देख लिया । वे ऋषि मांडवय के पास आए और कहने लगे कि ब्राह्मण देव आपने उन चोरों को क्यों भगा दिया ? ऋषि मांडवय बोले कि वे चोर नहीं थे , वे तो अपने आप को बड़ा व्यापारी बता रहे थे और तुम लोगों को डाकू बताकर तुम से बचना चाहते थे । बचने के लिए मेरी कुटिया में शरण मांगने आए थे । राजा के सिपाही बोले कि नहीं ब्राह्मण देव वे डाकू थे ,जो राहगीरों का सामान लूटते थे ।राजा के आदेश अनुसार हमने व्यापारी का वेश बनाया और उन चोरों से सामना किया । हमने भी व्यापारियों का वेश बनाकर उन्हें पकड़ने की योजना बनाई और जब हम उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे भाग रहे थे तब वे आपकी कुटिया में आ गए । ऋषि मांडवय नहीं समझ पाए कि सच कौन बोल रहा है ।राजा के सिपाही ऋषि मांडवय को उन चोरों का साथी ही समझ बैठे और चोरी के धन को ऋषि मांडवय की कुटिया से प्राप्त कर लिया । ऋषि को सिपाही राजा के पास लेकर गए और कहा कि हे राजन ! यह ब्राह्मण देव उन चोरों के साथी हैं इन्होंने उन चोरों को वहां से भगा दिया । तब राजा ने कहा की हे ब्राह्मण देव ! तुम ब्राह्मणों का वेश धारण करके लोगों की आस्था के साथ खेल रहे हो । सब आपको ब्राह्मण समझकर आप की पूजा करते हैं ,आप का सम्मान करते हैं और आप उन्हें धोखा देते हो । ऋषि मांडवय ने राजा को बहुत समझाया कि वह झूठ नहीं बोल रहे । उन्होंने चोरों को सज्जन पुरुष समझा था और उन्हें बचाने के लिए अपनी कुटिया में शरण दी थी । परंतु राजा ने उनकी बात नहीं मानी और अपने सिपाहियों से कहकर ऋषि मांडवय को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया । राजा के सिपाही ऋषि मांडवय को सूली के पास लेकर गए और उन्हें सूली पर चढ़ा दिया ।परंतु ऋषि मांडवय ने अपनी योग शक्ति के द्वारा समाधि धारण कर ली ।ऋषि मांडवय के शरीर का सूली भेदन नहीं कर पाई । क्योंकि ऋषि मांडवय ने योग शक्ति के द्वारा अपने आप को बचा लिया था । वे सूली पर चढ़े हुए ही समाधि में लीन हो गए ।जब राजा के सिपाही ने देखा कि ऋषि मांडवय के आसपास एक बहुत बड़ा प्रकाश पुंज बन गया है और उनके शरीर का सूली भेदन नहीं कर पा रही , तो वे सब घबरा गए । यह सब चमत्कार देखकर आसपास सभी लोग इकट्ठा हो गए ।और ऋषि मांडवय की शक्ति को नमस्कार करने लगे । उन सभी लोगों की भीड़ में एक साधु भी था जिन्होंने उन ऋषि को पहचान लिया और कहा कि यह तो ऋषि मांडवय है । उस साधु के ऐसा कहते ही राजा के सिपाही दौड़कर राजा के पास गए । उन्होंने राजा को सारी बात बताई और कहा कि वे ऋषि मांडवय है । मांडवय ऋषि का नाम सुनकर राजा बहुत घबरा गया । और सोचने लगा कि उससे ऐसी बड़ी गलती कैसे हो सकती है ? कि उसने ऋषि मांडवय को ही नहीं पहचाना । राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ । वे दौड़कर ऋषि मांडवय के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी । और कहा कि हे ऋषि ! मुझे माफ कर दीजिए ,आप चाहे तो मुझे मेरे अपराध का दंड दे सकते है। इसे मैं अपना प्रायश्चित समझूंगा ।आप कृपा करके सूली से नीचे उतर आइए । परंतु ऋषि मांडवय ने सूली से नीचे उतरने के लिए मना कर दिया और कहा कि राजा मैं आपकी आज्ञा का पालन कर रहा था ।राजा प्रजा को जैसा आदेश देता है वह वैसा ही करती है । अब आप सूली से उतरने के लिए कह रहे हैं तो मैं सूली से नहीं उतरूंगा बल्कि सीधा पहले धर्मराज के पास जाऊंगा । क्योंकि उन्हीं के कारण मुझे यह दंड मिला है ।इसमें आपका कोई दोष नहीं है ।जैसी आपको परिस्थिति नजर आई आपने वैसा ही दंड दिया । यह कहते ही ऋषि मांडवय धर्मराज के पास गए । धर्मराज के पास जाकर बोले कि मैंने ऐसा कौन सा बुरा कर्म किया था कि आपने मुझे जिसका इतना घोर दंड दिया । जहां तक मुझे याद है मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में कुछ भी बुरा कार्य नहीं किया । तब धर्मराज बोले कि हे ऋषि मांडवय जब आप बचपन में थे तब आपने एक तितली को पकड़ कर उसको तिल्ली से भेदन कर दिया था । उसी का दंड मैंने आपको दिया है । तब ऋषि मांडवय बोले कि – शास्त्र और धर्म अनुसार जन्म से लेकर 12 वर्ष तक के बच्चों के द्वारा किया गया कोई भी अपराध दंडनीय नहीं होता है । क्योंकि उन्हें 12 वर्ष तक अच्छे या बुरे कर्म का पता ही नहीं होता ,ना ही धर्म और अधर्म का पता होता है । तो आप उनके द्वारा किए गए कार्यों का दंड कैसे दे सकते हैं । जब मैंने किसी तितली को भेदन किया होगा उस वक्त मुझे ज्ञान नहीं था कि क्या सही है और क्या गलत । जब मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ उसके बाद से अब तक मैंने कोई भी अधर्म नहीं किया । आपने मेरे साथ यह गलत किया है । आप न्याय के सिंहासन पर बैठने वाले मेरे साथ अन्याय कर गए । तब ऋषि माडवय ने धर्मराज को श्राप दिया कि आप पृथ्वी लोक में एक शुद्र माता के गर्भ से जन्म लोगे और जो आपने मेरे साथ न्याय के सिंहासन पर बैठ कर अन्याय किया है उसी प्रकार आप पृथ्वी लोक पर न्याय और अन्याय की गुत्थी को आपस में सुलझा – सुलझा कर थक जाओगे । यही तुम्हारे अपराध का दंड है और तुम्हें यह पता नहीं चल पाएगा क्या सही है क्या गलत है ? यह कहकर ऋषि मांडवय दोबारा पृथ्वी पर लौट आए और अपनी कुटिया में आकर तपस्या करने लगे । तब धर्मराज जी ऋषि मांडवय के श्राप अनुसार द्वापर युग में पृथ्वी लोक पर एक दासी के गर्भ से जन्म लिया और विदुर जी कहलाए यह विदुर जी वही थे जो धृतराष्ट्र और पांडु के भाई थे
Long ago, there was a very high ascetic named Rishi Mandavaya. He had earned many virtues on the strength of his penance. It is a matter of one day that Rishi Mandavaya was doing penance sitting in his hut. They were engrossed in the meditation of the Lord. Then three thieves who were dressed as merchants came running to them and said – O Brahman God! Save us, some dacoits are lying behind us who are disguised as merchants just like us. They want to steal our money from us. Those three thieves had a lot of money. The three thieves were lying to the Maharishi. Behind them were not actually dacoits, but the king's soldiers in merchant attire. Those who were coming to catch them. Maharishi Mandvay hid the words of those three thieves as true and hid them in his hut as a businessman. The three thieves fled by keeping the stolen money in the hut of sage Mandavay ji. When the king's soldiers dressed as merchants reached near the hut of Maharishi Mandvay, they saw the thieves running away. They came to the sage Mandavay and started saying that Brahmin god, why did you drive away those thieves? Sage Mandavay said that he was not a thief, he was telling himself a big businessman and wanted to avoid you by calling you a robber. To escape, they had come to seek shelter in my hut. The king's soldiers said that no Brahmin gods were those dacoits, who used to rob the goods of the passers-by. According to the orders of the king, we disguised as merchants and faced those thieves. We also made a plan to capture the merchants disguised as them and when we were running after them to catch them, they came to your hut. Sage Mandavay could not understand who was telling the truth. The king's soldier mistook Rishi Mandavay as a companion of those thieves and got the stolen money from the hut of Rishi Mandavay. The soldiers took the sage to the king and said, O king! This Brahmin god is the companion of those thieves, he drove those thieves from there. Then the king said that O Brahmin god! You are playing with the faith of people by disguising themselves as Brahmins. Everyone treats you as a Brahmin and worships you, respects you and you deceive them. Sage Mandavaya explained a lot to the king that he was not lying. He considered the thieves to be gentlemen and had given shelter in his hut to save them. But the king did not listen to them and after telling his soldiers ordered the sage Mandavaya to be crucified. The king's soldiers took sage Mandavaya to the cross and crucified him. But the sage Mandavaya attained samadhi through his yogic power. The sage could not pierce the body of the sage Mandavaya. Because sage Mandavaya had saved himself by the power of yoga. They were absorbed in the samadhi as soon as they were crucified. When the king's soldier saw that a huge beam of light had formed around the sage Mandvaya and the crucifix could not pierce his body, they were all terrified. Seeing all these miracles, all the people gathered around. And the sage started saluting the power of Mandavaya. There was also a sage in the crowd of all those people who recognized those sages and said that this is Rishi Mandavaya. As soon as that monk said so, the king's soldiers ran to the king. He told the whole thing to the king and said that he is the sage Mandavaya. Hearing the name of the sage Mandavaya, the king was very nervous. And wondered how could he make such a big mistake? That he did not recognize the sage Mandavaya. The king realized his mistake. He ran to the sage Mandavaya and with folded hands he apologized for his crime. And said, O sage! Forgive me, you can punish me for my crime if you want. I will consider it my atonement. Please come down from the cross. But sage Mandavay refused to come down from the cross and said that the king I was following your orders. He does as the king orders the subjects. Now you are asking to come down from the cross, then I will not come down from the cross, but will go straight to Dharmaraj first. Because because of them I have got this punishment. It is not your fault in this. You punished the same as you saw the situation. After saying this, sage Mandavaya went to Dharmaraja. Going to Dharmaraj, he said that what such bad deed I had done that you punished me so severely. As far as I remember I have not done anything bad in my life till now. Then Dharmaraja said that O sage Mandavay, when you were in your childhood, you caught a butterfly and pierced it with the spleen. I have punished you for that. Then Sage Mandavay said that - According to the scriptures and religion, any crime committed by children from birth to 12 years is not punishable. Because they do not know about good or bad karma for 12 years, nor do they know about dharma and adharma. So how can you punish them for what they have done. When I would have pierced a butterfly, at that time I did not know what was right and what was wrong. I have not committed any adharma since the time I attained enlightenment. You have done this wrong to me. You who sit on the throne of justice have done injustice to me. Then sage Madvaya cursed Dharmaraja that you will be born in the earth world from the womb of a Shudra mother and who you have done injustice to me by sitting on the throne of justice, in the same way you solve the mystery of justice and injustice on earth. - solve And you'll be tired. This is the punishment for your crime and you will not be able to know what is right or wrong? Saying this the sage Mandavaya again returned to the earth and came to his hut and started doing penance. Then Dharmaraj ji took birth from the womb of a maidservant on earth in Dwapar yuga according to the curse of sage Mandvay and called Vidur ji, this Vidur ji was the same who was the brother of Dhritarashtra and Pandu.
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