एक बार श्री कृष्ण और बलराम द्वारिका की सभा में बैठे हुए थे । उस समय सारी पटरानियां महल में मौजूद थी और वे सब आपस में बातें कर रही थी कि कृष्ण भगवान बृज की गोपियों की बहुत ही प्रशंसा करते हैं । आखिर ब्रज की गोपियों के प्रेम में ऐसा क्या है जो भगवान उनकी इतनी प्रशंसा करते हैं । तभी वहां पर देवकी माता आ जाती है । वे सब देवकी माता से बृज के बारे में जानना चाहती थी । तब देवकी माता बोली कि –मैं अभी तुम्हें ब्रज के बारे में नहीं बता सकती । क्योंकि कृष्ण और बलराम इस समय द्वारिका की सभा में बैठे हुए हैं । यदि उनके कानों में बृज का नाम भी पड़ा , तो वे द्वारिका की सभा को छोड़कर यहां महल में आ जाएंगे । लेकिन सभी पटरानिया जिद करने लगी । तब देवकी माता ने सुभद्रा जी से कहा – कि तुम महल के द्वार पर खड़ी होकर कृष्ण और बलराम को देखती रहो । यदि वे अंदर आए , तो उन्हें अंदर मत आने देना । देवकी माता कृष्ण भगवान की बाल लीलाओं और ब्रज के बारे में बातें करने लगी । जैसे ही देवकी माता ने ब्रज की गोपियों और राधा जी का नाम लिया । तभी कृष्ण भगवान के कानों में यह नाम सुनाई दिया और कृष्ण और बलराम द्वारिका की सभा को छोड़कर महल की ओर आने लगे । जैसे जैसे देवकी माता ब्रज के बारे में बताती जा रही थी । कृष्ण भगवान उतनी ही तेजी से महल में आ रहे थे । जब वे दोनों भाई महल के द्वार पर आए तो उन्होंने वहां सुभद्रा जी को देखा । सुभद्रा जी ने कृष्ण और बलराम को अंदर जाने से रोक दिया । तब कृष्ण और बलराम द्वार पर खड़े होकर ही ब्रज के बारे में सुनने लगे । जब देवकी माता ने ब्रज की गोपियों और उनके प्रेम के बारे में चर्चा करती जा रही थी । वैसे ही वैसे कृष्ण और बलराम के आंखों से आंसू बहने लगे । कहते हैं कि वे इतने भाव विभोर हो गए कि अपने तन की सुध – बुध खो बैठे । और उनके हाथ और पैर अश्रुओं की धारा से गलने लगे । और उनकी आंखें बड़ी हो गई थी । तभी नारद जी वहां पर आए । नारद जी ने कृष्ण भगवान के इस स्वरूप को देखा और उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया । और कहा कि प्रभु आपके इस स्वरूप के दर्शन संसार वालों को भी होने चाहिए। तब कृष्ण भगवान ने कहा कि – नारद ऐसा ही होगा । मेरे इस स्वरूप की जिसमें मैं , सुभद्रा और बलराम होंगे , पुरी में मेरे इस स्वरूप विग्रह की पूजा - अर्चना होगी । द्वापर युग के अंत में जब श्री कृष्ण भगवान की मृत्यु हुई , तो अर्जुन के द्वारा उनका अंतिम संस्कार किया गया । परंतु कई दिन बीत जाने के बाद भी श्री कृष्ण भगवान का हृदय जलता रहा । तब श्री कृष्ण भगवान ने स्वपन में अर्जुन को आदेश दिया । उनके आदेशानुसार अर्जुन ने लकड़ी समेत उनका हृदय समुद्र में बहा दिया और वह समुद्र से बहता हुआ पुरी आ पहुंचा । तब श्री कृष्ण भगवान ने मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में आदेश दिया कि वह उस लकड़ी के गट्ठे से उनके श्री विग्रह स्वरूप को बनवा कर एक विशाल मंदिर स्थापित करने को कहा । लेकिन कोई भी शिल्पकार उस लकड़ी के गट्ठे से श्री विग्रह को नहीं बना पाया । तब स्वर्ग के शिल्पकार विश्वकर्मा जी एक बूढ़े आदमी का रूप बनाकर आए और कहा कि मैं इससे भगवान की मूर्ति बना सकता हूं । उन्हें इस कार्य के लिए 21 दिन का समय चाहिए । परंतु उन्होंने शर्त रखी कि इस दौरान कोई भी मंदिर में प्रवेश नहीं करेगा और वे अकेले ही मूर्ति निर्माण का कार्य करेंगे । राजा ने उनकी शर्त मान ली । कुछ दिनों तक तो कमरे के अंदर से हथोड़ा चलने की और मूर्ति निर्माण की आवाजे आती रही । एक दिन राजा की पत्नी ने मन्दिर के बाहर कान लगाकर सुना , तो अंदर से कोई भी आवाज नहीं आ रही थी । रानी को डर हो गया था कि कहीं वह बूढ़ा आदमी अंदर अकेले मर ना गया हो । उसने यह बात राजा को बताई । राजा ने जैसे ही मंदिर का दरवाजा खोलकर देखा तो वह बूढ़ा आदमी वहां से गायब हो गया । मूर्तियां आधी अधूरी बनी हुई थी । तीनों मूर्तियों के पैर नहीं बने थे और कृष्ण और बलराम के तो आधे हाथ ही बने थे । सुभद्रा जी के तो हाथ भी नहीं बने थे । तब राजा को बहुत ही दुख हुआ कि उन्होंने उस बूढ़े आदमी की शर्त क्यों नहीं मानी । परंतु श्री कृष्ण ने राजा इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में कहा कि राजा ऐसा ही होना निश्चित था । इसलिए तुम इन आधी अधूरी मूर्तियों को मंदिर में स्थापित करो और इनकी पूजा-अर्चना करो ।
tags
Why doesn't Lord Jagannath have hands? भगवान जग्गनाथ के हाथ क्यों नहीं है ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें