क्यों पीती है काली माता रक्त ?

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हिन्दू धर्म में देवताओं के साथ-साथ देवियों की भी पूजा की जाती है ! जैसे देवों में त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा ,विष्णु और महेश को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है उसी तरह देवियों में सरस्वती ,लक्ष्मी और माँ काली को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ! ऐसा माना जाता है देवी पार्वती ने ही दुष्टों का संघार करने के लिए माँ काली का रूप धारण किया था ! माँ काली का रूप देखने में बड़ा ही भयावह लगता है ! उनके हाथों में कपाल , रक्त से भरी हुई कटोरी , लटकता नरमुंड और गले में मुंडों की माला उनके रूप को और भी भयावह बना देती है ! लेकिन दर्शको आज हम आपको बताएंगे कि आखिर किस कारण माता को यह रूप धारण करना पड़ा और वह युद्ध भूमि में दैत्यों का खून क्यों पीने लगीस्कंध पुराण और दुर्गा सप्तसती में एक कथा के अनुसार पौराणिक काल में शंखुशिरा नामक एक अत्यंत बलशाली दैत्य का पुत्र अस्थिचूर्ण हुआ करता था जो मनुष्यों की अस्थियां चबाया करता थावह मनुष्य के साथ-साथ देवताओं पर भी अत्याचार किया करता था ! उसके अत्याचारों से तंग आकर एक दिन देवताओं ने क्रोध में आकर उसका वध कर डाला ! उसी काल में रक्तबीज नामक एक और दैत्य भी हुआ करता था  जब यह बात उसे पता चली तो वह देवताओं को पराजित करने के उद्देश्य से ब्रह्म क्षेत्र में ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठिन तप करने लगा ! करीब 5 लाख वर्ष बाद रक्तबीज के घोर तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर प्रकट हुए  और उसको वरदान मांगने को कहा !

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  ब्रह्मदेव को अपने सामने देखकर रक्तबीज ने सबसे पहले उन्हें प्रणाम किया और बोलाहे परमपिता अगर आप मुझे वरदान देना चाहते है तो मुझे ये वरदान दीजिये कि मेरा वध देवता , दानव , गंधर्व , यक्ष , पिसाच , पशु , पक्षी , मनुष्य आदि में से कोई भी ना कर सके और मेरे शरीर से जितनी भी रक्त की बूंदे जमीन पर गिरे उनसे मेरे ही समान बलशाली, पराक्रमी  और मेरे ही रूप में उतने ही दैत्य प्रकट हो जाये तब ब्रह्मा जी ने कहा हे रक्तबीज तुम्हारी मृत्यु किसी पुरुष द्वारा नहीं होगी लेकिन स्त्री  तुम्हारा वध अवश्य कर सकेगी ! इतना कहकर ब्रह्मा जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए ! उसके पश्चात रक्तबीज वरदान के अंहकार में मनुष्यों पर अत्याचार करने लगा और एक दिन उसने वरदान के अंहकार में स्वर्ग लोक पर भी आक्रमण कर दिया और देवराज इंद्र को युद्ध में हराकर स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया ! उसके पश्चात 10 हज़ार वर्षों तक देवतागण रक्तबीज के भय से मनुष्यों की भांति दुखी होकर पृथ्वी पर छिपकर  विचरण करने लगे ! उसके बाद इंद्र सहित सभी देवतागण पहले  ब्रह्मा जी के पास गए फिर सभी ने उनको अपनी व्यथा सुनाई तब ब्रह्मा जी ने कहा - मैं इस संकट से आप सभी को नहीं उबार सकता इसलिए हम सभी को विष्णु देव के पास चलना चाहिए ! फिर ब्रह्माजी सहित सभी देवतागण श्री विष्णु जी के पास गए परन्तु विष्णुजी ने भी यह कहते हुए मना कर दिया कि रक्तबीज को मारना मेरे भी बस में नहीं है ! फिर सभी देवता वैकुण्ठ धाम से कैलाश के लिए चल दिए ! लेकिन जब वो वहाँ पहुंचे तो उन्हें पता चला कि भगवान शिव उस समय कैलाश पर नहीं बल्कि केदारनाथ क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर विराजमान है !
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  ततपश्चात सभी देवतागण केदारनाथ धाम पहुंचे ! वहां पहुंचकर देवताओं ने भगवान शिव को सारी बात बताई ! तब ब्रह्माजी ने शिव से - कहा हे शिव मेरे ही वरदान के कारण रक्तबीज को देवता , दानव , पिसाच , पशु , पक्षी , मनुष्य आदि में से कोई भी वध नहीं कर सकता  ! परन्तु स्त्री उसका वध अवश्य कर सकती है तब भगवान शिव ने देवताओं से आदि शक्ति की स्तुति करने को कहा ! फिर सभी देवताओं ने रक्तबीज के वध की अभिलाषा से आदि शक्ति की स्तुति करना शुरू कर दिया ! कुछ समय पश्चात देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर हिमालय से एक देवी प्रकट हुई और देवताओं से कहा - हे देवतागण आप दैत्यराज रक्तबीज से बिलकुल निर्भय रहे मैं अवश्य उसका वध करूंगी ! उसके बाद देवी से वर पाकर सभी देवतागण अपने - अपने स्थान लौट गए ! फिर एक दिन देवताओं ने नारद जी से कहा कि वे रक्तबीज में ऐसी मति उत्तपन्न करे जिससे वह देवी के साथ किसी भी तरह का कोई अपराध करने को विवश हो जाये ! उसके बाद नारद जी ने रक्तबीज के पास जाकर उसको उकसाने के उद्देश्य से कहा - कि कैलाश पर्वत के ऊपर भगवान शिव का निवास स्थान है शिवजी को छोड़कर सभी देवता , दानव तुम्हारी आज्ञा का पालन करते है और तुमसे डरते है परन्तु शिव के साथ एक देवांगी नाम की अबला नारी रहती है जिससे शिव जी के कारण देव , दानव कोई भी उन्हें जीत नहीं सकता है ! तब रक्तबीज ने कहा - देवर्षि ऐसा क्या कारण है
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जो उस स्त्री को कोई नहीं जीत सकता ! फिर नारद जी ने रक्तबीज से कहा - कि तीनों देवों में से शिवजी सबसे अधिक जितेन्द्रय और धैर्यवान है इसलिए देव , दानव , नाग आदि कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता अगर तुम उन पर विजय प्राप्त करना चाहते हो तो किसी तरह सबसे पहले उनका धैर्य डिगाओ ! नारदजी के वचन सुनकर शिवजी को मोहित करने के उद्देश्य से रक्तबीज पार्वती के समान अत्यंत सुंदर स्त्री बनकर कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा ! शिव जी ने अपने ध्यान योग से उस पार्वती रूपी दैत्य रक्तबीज को पहचान लिया ! तब उन्होंने क्रोध में आकर उसे श्राप दिया और कहा - हे दुष्ट  तुम कपट से पार्वती का वेश बनाकर मुझे छलने आया है इसलिए महेश्वरी पार्वती ही तेरा वध करेगी ! भगवान शिव का अपमान करने के बाद रक्तबीज अपने दरबार गया फिर वह अपने राक्षशों के साथ शिवजी पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाने लगा ! उसने सबसे पहले अपने राक्षशों से कहा कि यदि पार्वती मुझसे प्रेम करने लगी तो शिव का धैर्य अपने आप ही नष्ट हो जायेगा फिर पत्नी वियोग के कारण शिव कमजोर हो जायेंगे और उसके बाद उन्हें हम आसानी से जीत पाएंगे ! फिर उसने अपने राक्षशों को बताया कि शिव ने उसे स्त्री के हाथों मरने का श्राप दिया है लेकिन शिव ये नहीं जानते कि जब मेरे सामने इंद्र सहित कोई भी देवता नहीं टिक सके तो भला एक स्त्री मेरा वध कैसे कर सकती है ! इतना कहकर रक्तबीज जोर-जोर से हंसने लगा और थोड़ी देर बाद उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि तत्काल तुम लोग कैलाश जाओं और पार्वती को मेरे पास लेकर आओ और यदि वह ना माने तो बलपूर्वक मेरे पास ले आना ! इसके बाद राक्षशी सेना कैलाश पर्वत पर जा पहुंची और देवी पार्वती को अपने साथ दैत्यराज के पास चलने को कहा ! दैत्यों की बात सुनकर देवी पार्वती क्रोधित हो गयी और अपने क्रोध से दैत्यों को जलाकर भस्म कर दिया ! उसी समय कुछ दैत्य वहां सेअपनी जान बचाकर रक्तबीज के पास पहुंचे और उसे माता पार्वती की शक्ति के बारे में बताने लगे ! यह सुनकर रक्तबीज क्रोधित हो उठा और उसने अपने राक्षशों को कायर कहा !
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  फिर रक्तबीज चण्ड-मुण्ड आदि असंख्य दैत्यों को साथ लेकर कैलाश पर्वत जा पहुंचा और देवी के साथ युद्ध करने लगा ! इस युद्ध में माता पार्वती सभी देवताओं की शक्तियों के साथ मिलकर लड़ने लगी और चण्ड - मुण्ड सहित सभी दैत्यों का वध कर दिया ! पतंतु रक्तबीज के शरीर से जितनी भी रक्त की बुँदे धरती पर गिरती उससे उसके समान ही एक और दैत्य उत्पन्न हो जाता इसलिए अभी तक उसका वध नहीं ही सका था ! फिर देवी पार्वती ने माँ काली का रूप धारण किया और अपना मुँह को फैलाकर रक्तबीज का खून पीने लगी ! इसी प्रकार अपनी जीभ फैलाई जिससे माँ काली उत्पन्न हुए दूसरे रक्तबीजों को निगलने लगी ! कुछ को रक्तविहीन करके मार दिया ! अंत में मुख्य रक्तबीज भी शूल आदि अस्त्रों के मारे जाने उसका खून चूसे जाने से रक्तविहीन होकर धरती पर गिर पड़ा ! इस प्रकार देवताओं सहित तीनों लोक रक्तबीज के नाश से प्रसन्न हो गए ! मित्रों ! इसी तरह माँ काली ने कई राक्षशों और दैत्यों का वध किया !



क्या आप जानते है , वो कौन था जो महाभारत के ५० लाख सेनिको का भोजन हर रोज अकेले बनाता था ?

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Image result for mahabharat sena imageमहाभारत के युद्ध में कौरवो की ओर से 11 अक्षौहिणी  सेना और पांडवो की ओर 7 अक्षौहिणी सेना ने भाग लिया था !अक्षौहिणी यानी अत्यंत विशाल और चतुरंगिणी सेना जिसमे 109350 पैदल  , 65610  घोड़े , 21870  रथ , 21870  हाथी होते है अर्थात  वह सेना जिसमे अनेक हाथी , घोड़े , रथ और पैदल सिपाही हो !  यानि इस युद्ध में सभी महारथियों और सेनाओं को मिलाकर करीब 50 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया था ! लेकिन यहां अब सवाल यह उठता है कि इतनी विशालकाय सेना के लिए युद्ध के दौरान भोजन कौन बनाता था और कैसे ये सब प्रबंध करता था और सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब हर दिन हज़ारों लोग मारे जाते थे तो शाम को खाना किस हिसाब -किताब से बनता था ! दोस्तों - महाभारत को हम सही मायने में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध भी कह सकते है क्योंकि उस समय शायद ही ऐसा कोई राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग न लिया हो ! उस काल में आर्यवर्त के सभी राजा या तो कौरव या फिर पांडव के पक्ष में खड़े दिख रहे थे ! हम सभी जानते है कि श्री बलराम और रुक्मी ये दो ही व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था किन्तु एक और राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरक्त था और वो था दक्षिण के उड्डपी का राज्य ! महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार जब उड्डपी के राजा अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुंचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपने -अपने पक्ष में लेने का प्रयत्न करने लगे लेकिन उड्प्पी के राजा बहुत ही दूरदर्शी थे उन्होंने  श्री कृष्ण से पूछा कि हे माधव दोनों ओर से जिसे देखो युद्ध के लिए ललायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध कैसे होगा ! इस पर श्री कृष्ण ने कहा महाराज आपने बिलकुल सही सोचा है आपकी इस बात से मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है अगर ऐसा है तो कृपया बताएं ! उसके बाद उड्प्पी नरेश बोले - हे वासुदेव सत्य तो यह कि भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को में उचित नहीं मानता ! इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझें नहीं है !
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 किन्तु ये युद्ध अब टाला भी नहीं जा सकता इस कारण मेरी यह इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहां  उपस्थित सभी सेना के लिए भोजन का प्रबंध करूं ! इस पर श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले - महाराज आपका विचार अति उत्तम है इस युद्ध में करीब 50 लाख योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसा कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंध को देखेगा तो हम सभी उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगें ! वैसे भी मुझे पता है सागर जैसी इस विशाल सेना को भोजन का प्रबंध करना आप से और भीमसेन  के अतिरिक्त और किसी के लिए भी सम्भव नहीं है किन्तु भीम सेन इस युद्ध से विरक्त नहीं हो सकते ! इसलिए मेरी आप से प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेनाओं के भोजन का भार सम्भालिये ! इस प्रकार उड्प्पी के महाराजा ने सेना के भोजन का भार संभाला ! पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया ! उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना भी अन्न का बर्बाद नहीं होता था ! जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी ! दोनों ओर के योद्धा ये देखकर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उड्प्पी नरेश केवल उतने ही लोगों के लिए भोजन बनवाते थें जितने वास्तव में उपस्थित रहते थें ! किसी को समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर भोजन की व्यवस्थता करवा सके ! इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उस पर भी इस प्रकार कि एक अन्न का दाना भी बर्बाद ना हो ! ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था ! जब 18 दिन बाद युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई तो अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उड्प्पी नरेश से पूछ ही लिया कि हे महाराज समस्त देशो के राजा हमारी प्रशंशा कर रहे है कि कैसे हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व  पितामह भीष्म , गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे किन्तु  मुझे लगता है कि हम सबसे अधिक प्रशंशा के पात्र तो आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंध किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया ! मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ ! इस पर उड्प्पी नरेश ने मुस्कुराते हुए कहा - सम्राट आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगें !

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इस पर युधिष्ठिर ने कहा - श्री कृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसी को जा ही नहीं सकता अगर वे न होते तो कौरव सेना को परास्त करना असम्भव था ! तब उड्प्पी नरेश ने कहा  - हे महाराज आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे है वो भी श्री कृष्ण का ही प्रताप है ! ऐसा सुनकर वहा उपस्थित सभी लोग आश्च्रियचकित हो गए तब उड्प्पी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा हे महाराज श्री कृष्ण प्रतिदिन रात्रि को मूंगफली खाते थे !  मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिनकर मूंगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात् गिनकर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है वे जितनी मूंगफली खाते थे उसके ठीक हज़ार गुना सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे अर्थात अगर वे 50  मूंगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन 50 हज़ार योद्धा युद्ध में मारे जायेंगे उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था ! यही कारण था कि कभी भी कुछ व्यर्थ नहीं हुआ ! श्री कृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए ! ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है ! कर्नाटक के उड्प्पी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है ! ऐसा माना जाता है कि इस मठ की स्थापना उड्प्पी के सम्राट द्वारा ही करवाई  गयी थी जिसे बाद में श्री माधव आचार्य जी ने आगे बढ़ाया !



आखिर क्यों परमाणु बम से भी ज्यादा शक्तिशाली थे दानवीर महायोद्धा कर्ण के बाण ? आज के परमाणु बम से भी ज्यादा शक्तिशाली थे महाभारत के कर्ण के बाण .

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महारथी कर्ण महाभारत युद्ध के एक ऐसे महान योद्धा थे जिन्हे अपने जीवन में काल में बार-बार अपमानित होना पड़ा ! जन्म लेते ही उन्हें जन्म देने वाली माता ने त्याग दिया ! शिक्षा ग्रहण करने जब गुरु द्रोणाचार्य के पास गए तो उन्होंने कर्ण को सूत पुत्र होने के कारण शिक्षा देने से मना कर दिया ! तब उन्होंने एक ब्राह्मण का रूप धारण कर बभगवान विष्णु  के अंश अवतार परशुराम से शिक्षा ग्रहण की लेकिन वहां भी उन्हें अपमानित ही होना पड़ा क्योंकि शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब गुरु परशुराम को ये बात पता चली कि वो एक ब्राह्मण पुत्र नहीं बल्कि एक सूत पुत्र है तो उन्होंने कर्ण को एक श्रापित जीवन जीने को विवश कर दिया ! लेकिन कर्ण ने कभी हार नहीं मानी और अपने बाहुबल से उन्होंने भारतीय पौराणिक इतिहास में वो ख्याति हांसिल की जिसके वो हकदार थे !

आज हम आपको कर्ण के पराक्रम से अवगत कराएंग और जानेंगे कि उनके पास वे कौन-कौन से अस्त्र -शस्त्र और दिव्यास्त्र थे जिन्होंने उन्हें महारथी बनाया ! कर्ण महाभारत के वे योद्धा थे 
जिन्होंने अधर्म यानि दुर्योधन की ओर से युद्ध लड़ा था पर उन्होंने कभी भी युद्ध नीति को भंग नहीं किया और नाहिं कौरव सेना के सेनापति रहते हुए कोई छल होने दिया ! महारथी कर्ण के पास जो सबसे शक्तिशाली अस्त्र था वह था गुरु परशुराम का दिया हुआ विजिया धनुष ! हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार पौराणिक काल में दिव्यास्त्रों के संधान के लिए एक दिव्य धनुष की आवश्यकता होती थी क्योंकि साधारण धनुष से दिव्यास्त्रों का संधान नहीं किया जा सकता था  ! कर्ण का ये धनुंष एक दिव्य धनुष था जिसे उन्हें उनके गुरु परशुराम ने दिया था ! दरअसल जब गुरु द्रोणाचार्य ने सूत पुत्र होने के कारण उन्हें शिक्षा देने से मना कर दिया तो वे अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा पाने के लिए एक ब्राह्मण पुत्र बनकर गुरु परशुराम के पास पहुंचे ! क्योंकि उन्हें डर था कहीं सूत पुत्र होने के कारण परशुराम भी उन्हें अपना शिष्य बनाने से मना न कर दे ! ब्राह्मण के वेश में ही कर्ण ने परशुराम से अस्त्रों-शस्त्रों का ज्ञान तो प्राप्त कर लिया लेकिन एक दिन जब कर्ण की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी तभी उनके गुरु को पता चला किकर्ण किसी ब्राह्मण का पुत्र नहीं बल्कि एक सूत पुत्र है तभी अपने क्रोध के लिए विख्यात परशुराम ने कर्ण को श्राप दे दिया कि तुमने मुझसे धोखे से शिक्षा प्राप्त की है इसलिए जब तुम्हे मेरी दी हुई शिक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत होगी तब तुम सब कुछ भूल जाओंगे ! परन्तु जब कर्ण ने वेश बदलने का कारण बताया तब गुरु परशुराम का क्रोध शांत हुआ ! तब उनका मन व्यथित हो उठा तब परशुराम ने कर्ण से कहा कि हे वत्स !

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 मैं अपना दिया हुआ श्राप तो वापिस नहीं ले सकता लेकिन मैं तुम्हे धनुष रूपी एक कवच देता हूँ जब तक ये धनुष तुम्हारे हाथों में रहेगा तब तक तीनों लोकों का कोई भी योद्धा तुमसे जीत नहीं पायेगा ! गुरु परशुराम का ये ही धनुष विजिया धनुष था ! कर्ण ने इस धनुष का इस्तेमाल या तो दिव्यास्त्र चलाने के लिए किया या फिर अर्जुन से युद्ध करते समय ! बांकी का सारा समय वे साधारण धनुष से ही कुरुक्षेत्र में युद्ध करते रहते ! महासर्प अश्वसेन नाग -  महाभारत युद्ध के 17 दिन अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध चल रहा था ! तभी कर्ण ने एक बाण अर्जुन पर चलाया जो साधारण बाणों से अलग था ! इस बाण को अर्जुन की ओर आता देख भगवान श्री कृष्ण समझ गए कि वो बाण नहीं बल्कि बाण रूपी अश्वसेन नाग हैं ! तब उन्होंने अर्जुन को बचाने के लिए अपने पैर से रथ को दबा दिया भगवान श्री कृष्ण के ऐसा करने से रथ के पहिये जमीन में धंस गए साथ ही रथ के घोड़े भी झुक गए तब वह बाण रूपी अश्वसेन अर्जुन की जगह अर्जुन के सिर के मुकुट पर जा लगा ! वार के खाली जाने के बाद अश्वसेन कर्ण के तरकश में दुबारा वापिस आ गया और अपने वास्तविक रूप में आकर कर्ण से बोला कि हे अंगराज ! अबकी बार ज्यादा सावधानी से बाण संधान करना इस बार अर्जुन का वध होना ही चाहिए ! मेरा विष उसे जीवित नहीं रहने देगा ! तब कर्ण ने उससे पूछा कि आप कौन हैं और अर्जुन को क्यों मारना चाहते हैं ! तब अश्वसेन ने कहा में नागराज ततक्षत का पुत्र अश्वसेन हूँ ! मैं और मेरे माता-पिता खांडव वन में रहा करते थे ! एक दिन अर्जुन ने उस वन में आग लगा दी उसके बाद में और मेरी माता आग में फँस गए ! जिस समय वन में आग लगी उस वक्त मेरे पिता नागराज वन में नहीं थे ! 

मुझे आग में फंसा हुआ देख मेरी माता मुझको निगल गयी और मुझको लेकर उड़ चली परन्तु अर्जुन ने मेरी माता को अपने बाण से मार गिराया लेकिन मैं किसी तरह से बच गया ! जब मुझे ये बात पता चली कि मेरी माता को अर्जुन ने मारा है तभी से मैं अर्जुन से बदला लेना चाहता हूँ और इसी कारण आज मैं बाण का वेश धारण कर आपके तरकश में आ घुसा ! इसके बाद कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतग्यता प्रकट करते हुए कहा कि हे अश्वसेन -  मुझे अपनी ही नीति से युद्ध लड़ने दीजिये आपकी अनीति युक्त सहायता लेने से अच्छा मुझे हारना स्वीकार है ! ये शब्द सुनने के बाद कालसर्प कर्ण की नीति निष्ठा को सराहता हुआ वहा से वापिस लौट गया !
इन्द्रास्त या वसावी शक्ति  -   ये तो सभी जानते है कि कर्ण जैसा योद्धा अपनी दान वीरता के कारण जाना जाता है ! इसी दानवीरता के फ़लस्वरुप इंद्र से उन्हें वसावी शक्ति प्राप्त हुई थी ! ये एक ऐसा अस्त्र था जिसे कोई भी अस्त्र काट नहीं सकता था ! दरअसल युद्ध के निश्चित हो जाने के बाद इंद्र देव को अर्जुन की चिंता सताने लगी कि कर्ण के कवच कुंडल रहते हुए मेरा पुत्र उसे परास्त कैसे कर पायेगा ! क्योंकि वे जानते थे कि सूर्य देव का दिया हुआ कवच कुंडल जब तक कर्ण के पास है तब तक उसे कोई नहीं हरा सकता ! इसीलिए इंद्र देव ने छल का सहारा लिया और एक दिन जब कर्ण सुबह के समय सूर्य देव को जल अर्पित कर रहे थे तो इंद्र देव ब्राह्मण का रूप बनाकर उसके पास पहुंचे और कर्ण से उसका दिव्य कवच कुंडल मांग लिया क्योंकि सूर्य को जल अर्पित करते समय कर्ण से कोई भी कुछ मांगता तो वे मना नहीं करते थे इसीलिए उन्होंने ब्राह्मण रूपी इंद्र को अपना कवच कुंडल दान में दे दिया और फिर ब्राह्मण से बोले हे, ब्राह्मण - अब आप अपने असली रूप में आ जाइये क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप देवराज इंद्र है और मैं ये भी जानता था कि आज आप मुझसे मेरा कवच कुंडल दान में मांगने वाले है ! कर्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर देवराज इंद्र उसी क्षण अपने असली रूप में आ गए और बोले हे कर्ण -  तुम्हे मेरे बारे में किसने बताया और जब तुम जानते थे तो आज सूर्य को जल अर्पित करने आये ही क्यों
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? तब कर्ण ने कहा हे देवराज इंद्र मुझे ये सारी बातें रात को मेरे पिता सूर्य देव ने बताई थी और मुझे जल अर्पित करने से मना भी किया ! परन्तु हे देवेंद्र - अब आप ही बताइये मैं अपने धर्म से विमुख कैसे हो सकता था ! तब इंद्र  देव ने कहा - कर्ण तुम महान हो ! इस दुनिया में आज तक तुमसे बड़ा दानी ना कभी हुआ है और ना ही पृथ्वी के अंतकाल तक होगा ! आज के बाद तुम महादानवीर कर्ण के नाम से जाने जाओगे ! इसके अलावा मैं तुम्हे अपनी वसावी शक्ति भी देता हूँ जिसका इस्तेमाल तुम सिर्फ एक बार कर सकोगे ! इस शक्ति का जिस किसी पर भी संधान करोगे उसे इस ब्रह्माण्ड की कोई भी शक्ति नहीं बचा सकेगी और इसके बाद देवराज वहा से अंतर्ध्यान हो गए ! जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ तो कर्ण ने अपनी ये शक्ति अर्जुन के लिए बचा कर रखी थी लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को युद्ध में शामिल कर कर्ण को इंद्र की दी हुई वसावी शक्ति को चलाने पर विवश कर दिया ! इन तीनो शक्तियों के अलावा कर्ण के पास आगयेणास्त्र , पाशुपतास्त्र , रुद्रास्त्र ,ब्रह्मास्त्र , ब्रह्मशिरास्त्र , ब्रह्माण्ड अस्त्र , भार्गव अस्त्र , गरुड: अस्त्र , नागास्त्र और नागपास अस्त्र जैसे और भी कई दिव्य अस्त्र थे जिन्हे मंत्रों से प्रकट कर संधान किया जा सकता था ! इन अस्त्रों को चलाने के लिए महारथी कर्ण अपने विजिया धनुष का इस्तेमाल किया करते थे ! महाभारत युद्ध में जिस समय अर्जुन ने कर्ण का वध किया उस समय कर्ण के हाथ में वह विजिया धनुष नहीं था अगर उस समय उनके हाथ में वह धनुष होता तो अर्जुन कभी भी उनका वध नहीं कर पाता ! तो दोस्तों - ये थे कर्ण के अस्त्र और शस्त्र जिन्होंने उन्हें ज्यादा  शक्तिशाली बनाया !   


  

क्या आप जानते है क्यों जरुरी है वर वधु का कुंडली मिलान ?


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विवाह बहुत पवित्र सम्बन्ध है ! यह एक ऐसा सूत्र है जहा ना केवल दो लोग अपितु दो परिवारों का सम्बन्ध होता है इसलिए ये दो विवाह करने वाले लोगों का उत्तरदायत्व बन जाता है की वो अपने जीवनसाथी के साथ उनके  परिवार को भी खुश रखें और अपने कर्तव्यों को अच्छी प्रकार से निभाएं ! इस बंधन में घनिष्ठता ,मित्रता ,गहनता और सामंजस्य होना बहुत आवश्यक है ! पूरा जीवन साथ में व्यतीत करने के विचार से वर-वधु एक दूसरे का साथ निभाने का वचन देते है ! इसलिए ही यह कहा जाता है कि यदि जीवनसाथी अच्छा मिल जाये तो व्यक्ति जीवन की बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को भी
सहन करके उसे पार कर जाता है

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परन्तु वही यदि इस सम्बन्ध में विश्वास , प्रेम और सामजस्य नहीं है तो दोनों का जीवन बहुत कठिन हो जाता है ! इसी कारण सनातन धर्म में कुंडली मिलाकर विवाह करने का प्रावधान है ! यह बात तो सत्य है कि व्यक्ति के ग्रह उसके जीवन के विषय में बहुत कुछ कहते है ! ग्रह  नक्षत्रों के आधार पर ही दो लोगों की कुंडलियों को मिलाकर यह देखा जाता है कि दोनों के ग्रह भविष्य में किस प्रकार की परिस्थिति को जन्म दे सकते है ! व्यक्ति की कुंडली उसके राशि के नाम, समय ,जन्मस्थान आदि के आधार पर बनाई जाती है ! यहा तक कि कुंडली मिलान से यह भी पता लगाया जा सकता है कि लड़का और लड़की विवाह के पश्चात एक दूसरे के साथ भाग्यशाली और सुखद जीवन व्यतीत करेंगें या नहीं या फिर एक के ग्रह दूसरे के जीवन पर कैसा प्रभाव डाल सकते है और उसके परिणाम क्या होंगें  ! तो आइये जानते है कि दोनों कि कुंडली में किन-किन बातों पर विशेष  ध्यान दिया जाता है ! विवाह के लिए दो लोगों के 36 में से कम से कम 18 गुणों का मिलना आवश्यक होता है ! विवाह से पहले जब दो लोगों कि कुंडली मिलाई जाती है तो लड़के कि कुंडली में बहु विवाह योग , विदुर योग और मार्ग भटकने का योग देखा जाता है ! बहु विवाह योग में कुंडली के द्वारा यह देखा जाता है कि लड़के के जीवन में एक से अधिक विवाह ना हो ! विदुर योग में देखा जाता है कि लड़के का उसकी पत्नी के साथ सम्बन्ध कैसा होगा ! दोनों के मध्य कोई क्लेश या भेदभाव के ग्रह तो नहीं बन रहे या फिर लड़की की अकाल मृत्यु तो नहीं हो जाएगी इन बातों पर विशेष ध्यान दिया जाता है ! मार्ग भटकने का अर्थ है कि लड़का भविष्य में गलत आदतों जैसे जुंआ, शराब, असत्य , बुरे विचार आदि मार्गों का अनुसरण ना करें अन्यथा लड़की का जीवन बहुत कठिन होगा ! यदि कुंडली में इस प्रकार के दोष पाएं जातें है तो विवाह में कठिनाइयां आती है !


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वहीँ लड़की कि कुंडली में वैधव्य योग ,विषकन्या योग और बहुपति योग देखे  जातें है ! वैधव्य योग में देखा जाता है कि दोनों में से किसी की भी अकाल मृत्यु तो नहीं होंगी ! फिर यह देखा जाता है कि लड़की की कुंडली में विषकन्या योग ना हो क्योंकि इस योग के कारण लड़की सुखी नहीं रह पाती ! उसके जीवन में दुःख और दुर्भाग्य आते ही रहते है ! बहुपति योग में देखा जाता है की लड़की की कुंडली में एक से अधिक विवाह ना हो !  इसके समाधान के लिए लड़की का विवाह पहले किसी वृक्ष से करवाया जाता है जिससे इस दोष को निष्प्रभाव किया जा सके !   वर और कन्या की कुंडलियों के आधार पर कुल 8 गुणों का विश्लेषण किया जाता है ! इन गुणों की कर्म संख्या के आधार पर ही इनका अंक माना गया है जैसे पहले गुण का अंक 1 है दूसरे का 2 आदि और इस प्रकार सारे अंकों का योग 36 होता है ! इसलिए कुल मिलाकर 36 गुणों का आंकलन करके निर्धारित किया जाता है कि दोनों एक दूसरे से विवाह करने के योग्य है या नहीं ! तो आइये जानते है कि ये 8 गुण कौनसे है !
1 . वर्ण  -  जिसमे कन्या और वर के वर्ण अर्थात जाति का मिलान किया जाता है ! वर का वर्ण कन्या के वर्ण से उच्च या समान होना चाहिए ! इस गुण में दोनों के मध्य सामंजस्य को भी देखा जाता है !
2 . वश्य -  इस गुण में देखा जाता है कि दोनों में से कौन अधिक प्रभावशाली है और दोनों में से जीवनसाथी के प्रति किसकी नियंत्रण क्षमता अधिक है !
3 . तारा - इस गुण में दोनों के नक्षत्रों की तुलना की जाती है ! यह दोनों के मध्य सम्बन्ध में स्वस्थ भागफल को दर्शाता है !
4 . योनि - इस गुण में दोनों के मध्य योन संगता को देखा जाता है !
5 . गृह मैत्री - इस गुण के द्वारा जाँच की जाती है दोनों में मैत्री का व्यवहार कैसा है ! वर और वधु के विचार,मानसिक और बौद्धिक क्षमता कैसी रहेगी !
6 . गण -  यह गुण दोनों के व्यक्तित्व और दृष्टिकोण के सामंजस्य को दर्शाता है !
7 . भकूट - दोनों की कुंडली के आधार पर देखा जाता है कि भविष्य में परिवार ,कल्याण,समृद्धि आदि कि स्थिति कैसी होगी !

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8 . नाड़ी - इस गुण का अंक सबसे अधिक है इसलिए इसे सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है ! इसका सीधा संबंध संतान उत्पत्ति से है यदि दोनों की नाड़ी एक है तो संतान में दोष पाए जा सकते है ! इस गुण का आंकलन ब्लड ग्रुप से भी किया जा सकता है ! यदि वर और वधु दोनों का ही ब्लड ग्रुप एक है तो संतान के स्वास्थ्य पर उसका नकारात्मक प्रभाव होता है ! नाड़ी दोष कुंडली में सबसे बड़ा दोष है !  इसी कारण सनातन धर्म में समान नाड़ी के लोगों का विवाह ठीक नहीं माना गया है ! कुंडली मिलान से यही निर्धारित किया जाता है कि प्रत्येक दृष्टिकोण से वर और वधु एक दूसरे के प्रति भाग्यशाली हो और दोनों का जीवन बेहतरीन ढंग से व्यतीत हो ! वैसे तो जिसके भाग्य में जो है वो होता ही है परन्तु कुंडली मिलान एक अच्छा प्रयास है जिसके माध्यम से यह देखा जा सकता है कि एक दम्पति का जीवन खुशहाल व्यतीत हो और दोस्तों इसलिए ही सनातन धर्म में विवाह से पूर्व कुंडली मिलाने का प्रावधान है !