आज हम आपको बताएंगे कि आखिर किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है ! इस कथन का वर्णन महाभारत ग्रंथ के आदिपर्व में मिलता है ! जब राजा ययति के पुण्य क्षीण हो गए थे तब वे पवित्र लोकों से निकलकर उस स्थान पर गिरने लगे जिस स्थान पर अष्टक , प्रतर्दन , वसुमान और शिवि नाम के तपस्वी तपस्या करते थे ! उन्हें गिरते देखकर अष्टक ने कहा तुम्हारा रूप इन्द्र के समान है ! तुम्हे गिरते देखकर हम चकित हो रहे है ! तुम जहां तक आ गए हो वही ठहर जाओ और हमे अपनी यह तक आने की बात बताओं ! दुखी और दीन मनुष्यों के लिए ही संत ही परम् आश्रय है ! सौभाग्य वश तुम उन्ही के बीच में आ गए हो ! तुम अपनी सारी कथा हमें बताओं ! तब ययति ने कहा - मैं समस्त प्राणियों का तिरस्कार करने के कारण स्वर्ग से गिर रहा हूँ ! मुझमे अभिमान था ! अभिमान नर्क का मूल कारण है ! जो सद्पुरुष होते है उन्हें दुष्टों का अनुकरण नहीं करना चाहिए ! जो धन धान्य की चिंता छोड़कर अपनी आत्मा का हित सोचता है वही समझदार है ! धन सम्पति को पाकर अभिमान नहीं करना चाहिए ! विद्वान होकर अंहकार नहीं करना चाहिए ! अपने विचार और प्रयत्न की अपेक्षा दैव की गति बलवान है ऐसा सोचकर संताप नहीं करना चाहिए ! दुःख से जले नहीं सुख में फूले नहीं ! दोनों ही स्थितियों में समान रहना चाहिए !
अष्टक मैं इस समय मोहित नहीं हूँ मेरे मन में कोई जलन भी नहीं है ! मैं विधाता के विपरीत तो जा नहीं सकता ! मैं यह समझकर संतुष्ट रहता हूँ ! मैं सुख-दुःख दोनों ही स्थितियों को समझता हूँ ! फिर मुझे दुःख हो तो हो कैसे ? अष्टक ऋषि ने पूछा कि - हे राजन आप तो सारे लोकों मेँ रह चुके हो और आत्मज्ञानी और नारद ऋषि आदि के समान वार्तालाप कर रहे है ! तो ये बताइये कि आप किन - किन लोकों मेँ रह चुके है ! इस पर राजा ययति बोले कि - मैं सबसे पहले पृथ्वी लोक पर सार्वभौम राजा था ! मैं एक सहस्त्र वर्षो तक महान व स्रवश्रेष्ठ लोकों में रहा ! और फिर 100 योजन लम्बी चौड़ी सहस्त्र दौर युक्त इंद्रपुरी में एक सहस्त्र वर्षों तक रहा ! उसके बाद प्रजापति के लोक में जाकर एक सहस्त्र वर्षों तक रहा ! मैने नंदन वन में स्वर्गीय भोगो को भोगते हुए लाखो वर्षों तक निवास किया ! वहाँ के सुखों में आसक्त हो गया और पुण्य क्षीण होने पर पृथ्वी पर आ रहा हूँ ! जैसे धन का नाश होने पर जगत के सगे संबंधी छोड़ देते है वैसे ही पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्रादि देवता भी परित्याग कर देते है ! तब अष्टक ने पूछा - राजन किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोको की प्राप्ति होती है ! वे तप से प्राप्त होते है या ज्ञान से ! इस पर ययति ने उत्तर दिया - स्वर्ग के 7 द्वार है ! दान , तप , लज्जा, शम, दम, सरलता और सब पर दया ! अभिमान से तपस्या क्षीण हो जाती है ! जो अपनी विदवता के अभिमान में दूसरों के यश को मिटाना चाहते है उन्हें उत्तम लोको की प्राप्ति नहीं होती !
अभय के 4 साधन है - अग्निहोत्र , मौन , वेदाध्यन और यज्ञ ! यदि अनुचित रीति से इनका अनुष्ठान होता है तो ये भय के कारण बन जाते है ! सम्मानित होने पर सुख नहीं मानना चाहिए और अपमानित होने पर दुःख ! जगत में सद्पुरुष ऐसे लोगों की ही पूजा करते है ! दुष्टों से शिष्ट बुद्धि की चाह निरर्थक है ! मैं दूंगा , मैं यज्ञ करूंगा , मैं जान लूंगा , मेरी यह प्रतिज्ञा है इस तरह की बातें बड़ी भयंकर है ! इनका त्याग ही श्रेष्ठ है ! तब अष्टक ने पूछा - ब्रह्मचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यासी किन धर्मों का पालन करने से मृत्यु के बाद सुखी होते है ! इस पर ययति ने कहा - ब्रह्मचारी यदि आचार्य की आज्ञानुसारअध्ययन करता है जिसे गुरु सेवा के लिए आज्ञा नहीं देनी पड़ती ! जो आचार्य से पहले जागता और पीछे सोता है ! जिसका स्वभाव मधुर होता है ! जिसकी अपने मन पर विजय होती है ! जो धैर्यशाली होता है उसे शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है !
जो पुरुष धर्मानुकूल धन प्राप्त करके यज्ञ करता है , अतिथियों को खिलाता है , किसी भी वस्तु को उसके बिना दिए नहीं लेता वहीं सच्चा गृहस्थ है ! जो स्वंय उद्योग करके अपनी जीविका चलाता है , पाप नहीं करता , दूसरों को कुछ न कुछ देता ही रहता है और न ही किसी को कष्ट पहुँचाता है , थोड़ा खाता है और नियम से रहता है ऐसा वानप्रस्थ आश्रमी शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करता है ! जो किसी कला , कौशल , चिकित्सा , कारीगरी आदि से जीविका नहीं चलाता ! समस्त सद्गुणों से युक्त , जितेन्द्रिय और अकेला है ! किसी के घर नहीं रहता ! अनेक जगहों पर विचरण करता हुआ नम्र रहता है वहीं सच्चा संन्यासी है ! इस प्रकार राजा ययति ने अष्टक के सारे प्रश्नों का उत्तर दिया था !