Why did Narada take the form of a woman? क्यों लिया नारद जी ने स्त्री का रूप ?
















एक समय की बात है नारद जी हर रोज भगवान विष्णु के दर्शनों के लिए बैकुंठधाम जाते थे। और भगवान के दर्शन करके वापस आ जाते हैं। यही क्रम रोजाना चलता था। फिर एक दिन नारद जी के मन में यह विचार आया कि कल मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए तो कितना अच्छा होगा। यही विचार करके वह माता लक्ष्मी के पास गए और  उनसे आग्रह किया कि माता क्या आप मुझे भगवान का प्रसाद दिलवा दोगी तो आपकी बड़ी कृपा होगी । मगर माता लक्ष्मी कहती है कि भगवान का प्रसाद मिलना इतना आसान नहीं है। उसके लिए भगवान की आज्ञा अत्यंत आवश्यक है । बिना भगवान की आज्ञा के मैं किसी को भगवान का प्रसाद नहीं दे सकती । फिर नारद जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए 12 वर्षों तक कठिन तपस्या की । मगर भगवान का प्रसाद पाना इतना आसान  नहीं था । इतनी तपस्या करने के बाद भी नारद जी को प्रसाद नहीं मिला । अब वे विचार करने लगे कि मैं ऐसा क्या करूं ? कि मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए । फिर नारद जी ने एक योजना बनाई । नारद जी ने स्त्री का रूप धारण किया। साड़ी पहन कर और श्रृंगार करके रोजाना रात को दो बजे से तीन बजे के बीच भगवान के दरबार में झाडू लगाते थे। पूरी सफाई रात को करके वहाँ से चले जाते थे। लक्ष्मी माता यह सोच में पड़ गई कि रात के तीन बजे भगवान के दरबार में  कौन झाडू लगाता है ? लक्ष्मी जी जानना चाहती थी इतनी सुबह कौन पूरा दरबार साफ करके जाता है। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा । एक दिन लक्ष्मी जी फैसला करती हैं कि जो कोई भी यहां सफाई करता है मैं उसको ढूंढगी। इसलिए वह रात को ही एक पेड़ के पीछे छुप कर खड़ी हो गयी। फिर ठीक  3 बजे नारद जी स्त्री के रूप में साड़ी पहन कर आए और भगवान के दरबार की सफाई करने लगे । नारद जी पूरी लगन के साथ सफाई करने में लगे हुए थे तभी लक्ष्मी जी ने पीछे से आकर नारद जी को पकड़ लिया और पूछने लगी कि कौन हो तुम ? और चुपचाप सफाई क्यों करती हो ? क्या इरादा है तुम्हारा ? इस तरह से माता लक्ष्मी जी ने एक साथ बहुत सारे सवाल पूछ डालें ।  फिर नारद जी अपने असली स्वरूप में आकर माता लक्ष्मी से बोले – माता , मैं नारद हूं ।  भगवान के प्रसाद को पाने की भावना से भगवान की सेवा कर रहा हूं ताकि भगवान प्रसन्न होकर प्रसाद देने की कृपा करें । लक्ष्मी जी बोली आपने इतने वर्षों तक तपस्या की फिर भी आपको प्रसाद नहीं मिला और अब आप प्रसाद पाने के लिए झाड़ू लगा रहे हो । माता बहुत आश्चर्यचकित हो गई । नारद जी फिर से आग्रह करने लगे कि मां आप स्वयं भगवान विष्णु से बात  करें ।  माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास गई और प्रभु से कहा कि – हे! भगवन । नारद जी , आपके प्रसाद लिए बहुत आग्रह कर रहे हैं । कृपा करके आप उनकी विनती स्वीकार करो । फिर भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले कि आप जाकर नारद जी के लिए छप्पन भोग का भोजन तैयार करो  । फिर माता लक्ष्मी जी भगवान की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु जी का प्रसाद तैयार करती है । छप्पन प्रकार का भोजन बनाती है ।  उनका भगवान श्री विष्णु जी को भोग लगाती है । भगवान ने थोड़ा प्रसाद खाकर बाकी का प्रसाद नारद जी को देने के लिए कहा । माता लक्ष्मी जी ने प्रभु की आज्ञा से नारद जी को भगवान का प्रसाद दिया । नारद जी बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए और पूरा प्रसाद खा लिया । फिर तो नारद भगवान का नाम चिंतन करने लगे । नारद जी नारायण – नारायण करते हुए सीधे भगवान शिव के धाम कैलाश चले गए । नारद जी को देखकर भगवान शिव ने पूछा कि क्या बात है नारद ?  आज आप बहुत प्रसन्न हो । नारद जी बताते हैं कि आज मुझे श्री भगवान विष्णु का प्रसाद खाने को मिला है । मैं तो धन्य हो गया । शिव जी बोले – यह तो गलत बात है आपने अकेले ही खा लिया । हमे प्रसाद नही दिया  । नारद जी बोलते हैं प्रसाद खाते हुए, मुझे भगवान के सिवा कुछ याद ही नहीं रहा । इसलिए मैंने सारा प्रसाद खा लिया । तभी भगवान शिव की नजर नारद जी के मुंह पर लगे एक चावल के दाने पर पड़ी । भगवान शिव ने वही चावल का एक दाना ग्रहण कर लिया फिर तो वें भी भगवान विष्णु में ही मगन हो गए और खुशी से नृत्य करने लगे । माता पार्वती ने भगवान शिव को इस तरह से भक्ति भाव में देखा तो उन्होंने पूछा भी कि ऐसा क्या हुआ है ? जो आप इतने अधिक प्रसन्न दिखाई दे रहे हो । कृपा करके बताइए । भगवान शिव ने सारी कथा मां पार्वती को बता दी फिर तो माता पार्वती नाराज हो जाती हैं और भगवान शिव से कहती हैं कि मैं आपकी अर्धाग्नि हूं फिर भी आपने मुझे प्रसाद नहीं दिया और अपने आप ही खा लिया । यदि आपको चावल का एक दाना  मिला था तो आधा मुझे दे देते । माता पार्वती नाराज होकर बैकुंठ धाम चली जाती हैं । और भगवान विष्णु से कहती है कि आपने मुझे अपना प्रसाद नहीं दिया । भगवान शिव और नारद जी ने तो आपका प्रसाद प्राप्त कर लिया है । परंतु मुझे ही नहीं मिला । फिर भगवान विष्णु माता लक्ष्मी जी से कहते हैं कि आप फिर से भोजन बनाइए और मुझे भोग लगाकर फिर माता पार्वती जी को दीजिए । तब माता लक्ष्मी ने ऐसा ही किया । प्रसाद प्राप्त कर माता पार्वती का क्रोध शांत हुआ । भगवान विष्णु ने माता पार्वती जी को वचन दिया कि मैं कलयुग में जगन्नाथ जी के रूप में जगन्नाथपुरी में  विराजमान होऊंगा। । वहां पर मेरा छप्पन प्रकार का भोग लगा करेगा । मेरे भोग लगने के पश्चात आपको सबसे पहले प्रसाद दिया जाएगा । इसलिए आपका मंदिर भी वही उसी प्रांगण में स्थापित होगा । वहां पर आपका नाम माता विमला देवी के नाम से प्रसिद्ध होगा ।  सभी लोग आपकी पूजा करेंगे आपको प्रसाद चढ़ाने के बाद  ही मेरा प्रसाद महाप्रसाद बन जाएगा । उसके बाद ही सब को वितरित किया जाएगा । इस प्रसाद को पाकर सभी लोग धन्य हो जाएंगे । उनके सभी तरह के पापों का अंत हो जाएगा । तो आपने देखा कि भगवान का प्रसाद पाने के लिए देवताओं को भी तप करना पड़ता है और हम सब यह महाप्रसाद भगवान जगन्नाथ पुरी के धाम में प्राप्त कर सकते हैं इस महाप्रसाद की महिमा अपरंपार है ।


Why did Narada take the form of a woman?


Once upon a time, Narad ji used to go to Baikunthdham every day to have darshan of Lord Vishnu. And come back after seeing God. This routine went on every day. Then one day this thought came in the mind of Narad ji that tomorrow I will get God's prasad how good it will be. Thinking this, he went to Mata Lakshmi and requested her that mother, if you give me God's prasad, then you will be very pleased. But Mata Lakshmi says that getting the prasad of God is not so easy. God's command is very necessary for that. I cannot give God's prasad to anyone without God's permission. Then Narada did hard penance for 12 years to please the Lord. But getting God's prasad was not so easy. Even after doing so much penance, Narada did not get prasad. Now they started thinking what should I do? that I may get the blessings of God. Then Narad ji made a plan. Narada took the form of a woman. Wearing a sari and making up, he used to sweep the Lord's court every night between two o'clock and three o'clock. After doing complete cleaning at night, they used to leave from there. Lakshmi Mata got into thinking that who sweeps the court of God at three o'clock in the night? Lakshmi ji wanted to know who goes to clean the whole court this morning. This went on for several days. One day Lakshmi ji decides that whoever cleans here, I will find him. So she stood at night hiding behind a tree. Then at exactly 3 o'clock Narad ji came wearing a sari in the form of a woman and started cleaning the court of God. Narad ji was engaged in cleaning with full dedication, then Lakshmi ji came from behind and caught Narad ji and started asking who are you? And why do you keep quiet? what is your intention? In this way Mata Lakshmi ji asked many questions at once. Then Narad ji came in his real form and said to Mother Lakshmi – Mother, I am Narada. I am serving God with the spirit of getting God's prasad so that God may be pleased to give prasad. Lakshmi ji said that you did penance for so many years, yet you did not get the prasad and now you are sweeping to get the prasad. Mother was very surprised. Narad ji again urged that mother herself should talk to Lord Vishnu. Mother Lakshmi went to Lord Vishnu and said to the Lord - O! God . Naradji, you are asking a lot for your prasad. Please accept his request. Then Lord Vishnu smiled and said that you go and prepare fifty-six bhog food for Narada ji. Then Mata Lakshmi ji prepares the offerings of Lord Vishnu after getting the permission of God. Cooks fifty six types of food. They offer bhog to Lord Shri Vishnu ji. After eating some prasad, God asked him to give the rest of the prasad to Narad ji. Mother Lakshmi ji gave God's prasad to Narad ji by the order of the Lord. Narad ji was very happy and ate the whole prasad. Then Narada started contemplating the name of the Lord. Narad ji Narayan - While doing Narayan, went straight to Kailash, the abode of Lord Shiva. Seeing Narad ji, Lord Shiva asked what is the matter Narada? You are very happy today. Narad ji says that today I have got to eat the Prasad of Lord Vishnu. I was blessed. Shiv ji said – This is wrong, you ate alone. We were not given prasad. Narad ji says that while eating prasad, I could not remember anything except God. So I ate all the prasad. Then Lord Shiva's eyes fell on a grain of rice on Narada's mouth. Lord Shiva took a grain of the same rice, then he too became engrossed in Lord Vishnu and started dancing happily. When Mata Parvati saw Lord Shiva in such a devotional spirit, she also asked what has happened? You seem so happy. Please tell me Lord Shiva told the whole story to Mother Parvati, then Mother Parvati gets angry and tells Lord Shiva that I am your half fire, yet you did not give me prasad and ate it on your own. If you had got a grain of rice, you would have given half to me. Mother Parvati gets angry and goes to Baikunth Dham. And tells Lord Vishnu that you have not given me your prasad. Lord Shiva and Narad ji have received your prasad. But I didn't get it. Then Lord Vishnu tells Mata Lakshmi ji that you should prepare food again and after offering me food, then give it to Mother Parvati ji. Then Mother Lakshmi did the same. On receiving the prasad, the anger of Mother Parvati was pacified. Lord Vishnu promised Mata Parvati ji that I would be seated in Jagannathpuri in the form of Jagannath ji in Kali Yuga. , There I will have fifty-six kinds of bhog. Prasad will be given to you first after I enjoy it. Therefore your temple will also be established in the same courtyard. There your name will be famous as Mata Vimala Devi. Everyone will worship you, only after offering you prasad, my prasad will become Mahaprasad. Only then will it be distributed to all. Everyone will be blessed by getting this prasad. All their sins will come to an end. So you have seen that to get the prasad of God, even the deities have to do penance and we all can get this Mahaprasad in the dham of Lord Jagannath Puri. The glory of this Mahaprasad is unmatched.

कैसे पहुंचे भगवान जगन्नाथ वृंदावन ? Bhagvan jagannath | How did Lord Jagannath reach Vrindavan?























एक समय की बात है कहा जाता है एक बार श्री जगन्नाथ जी ने वृंदावन में रहने वाले अपने भक्त  श्री हरिदास जी को स्वपन में दर्शन देते हुए कहा – भक्त हरिदास उठो । श्री हरिदास जी उठ कर बैठ गए । परंतु उनके नेत्र बंद थे । क्योंकि वह नींद में थे । भगवान जगन्नाथ जी ने कहा–  भक्त हरिदास,  तुम यहां वृंदावन में बहुत समय से मेरी भक्ति करते आ रहे हो । हमारी इच्छा है कि आप जगन्नाथ पुरी दर्शन करने आए ।   वहां पर इस वर्ष मेरा विग्रह परिवर्तित किया जाएगा जो  36 वर्षों में एक बार परिवर्तित किया जाता है ।जगन्नाथ पुरी का यही नियम है 36 वर्षों  में एक समय पर श्री जगन्नाथ जी की मूर्तियों का विग्रह परिवर्तित करने उन्हे नए विग्रह में स्थापित किया जाता है । तब भगवान ने आदेश दिया यह समय आने वाला है । आषाढ़ का महीना है आप वहां पहुंचे । आप वहां पहुंचकर मेरा पुराना विग्रह है जो समुंदर में बहाया जाता है उसे इस बार आप अपने साथ वृंदावन लेकर आइएगा ।क्योंकि मैं भी वृंदावन रहकर भक्तों के साथ जीवन यापन करना चाहता हूं ।भगवान यह कहकर स्वपन में ही अंतर्ध्यान हो गए । अगली सुबह भगवान का आदेश मानकर श्री हरिदास जी भक्तों को साथ लेकर यात्रा पर निकल गए । धीरे-धीरे भजन सिमरन करते हुए श्री हरिदास जी वृंदावन से जगन्नाथपुरी पहुंचे । जगन्नाथपुरी में सबको पता चला हरिदास जी आए हैं तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । श्री हरिदास जी ने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए । अगले दिन भगवान जगन्नाथ के विग्रह को परिवर्तित करना था । तो भक्त हरिदास ने एक पंडित जी से पूछा कि जो पंडित जी विग्रह को परिवर्तित करते हैं मुझे उनसे मिलना है । पंडित ने कहा यहां तो एक बड़े पुजारी हैं वह विग्रह को परिवर्तित करते हैं । उस समय सब का प्रवेश मंदिर में  वर्जित है । आप भी अंदर नहीं जा सकते हैं । श्री हरिदास जी ने कहा मुझे अंदर नहीं जाना है , मुझे तो भगवान के श्री विग्रह को अपने साथ लेकर जाना है ।उनकी यह बात सुनकर वह पंडित कहने लगा अरे संत जी यह क्या कहते हो । यह तो अपराध है यहां जो विग्रह बाहर निकाला जाता है उसे समुद्र में बहा दिया जाता है । उसे समुंदर देवता अपने साथ अपने स्थान पर लेकर जाते हैं । आप ऐसी बात किसी से मत कह देना ।अन्यथा लोग आप पर क्रोधित हो जाएंगे । अब भक्त जी को तो भगवान की आज्ञा हुई थी वह उस बड़े पंडित के पास पहुंचे उससे भी वही बात बताई।वह पंडित भी बड़ा क्रोधित होकर कहने लगा ।यह कैसी अनाप-शनाप बातें करते हो भगवान का विग्रह अपने साथ नहीं लेकर जा सकते हो । तब एक सेवक ने श्री हरिदास जी को कहा ये पंडित जी आपकी बात नहीं समझेंगे । आप जगन्नाथ पुरी के राजा के पास जाकर सारी बात बताइए । अब हरिदास जी भक्तों के साथ राजा के महल में पहुंचे । राजा ने उठकर श्री हरिदास जी को सम्मान देते हुए प्रणाम किया ।राजा का प्रणाम स्वीकार कर भक्त हरिदास जी कहने लगे हे राजन , आप जगन्नाथपुरी के सेवक हैं । मुझे भगवान का आदेश प्राप्त हुआ है कि इस बार जो भगवान जगन्नाथ जी का श्री विग्रह परिवर्तित किया जाएगा । तो पुराना विग्रह को  मैं अपने साथ वृंदावन धाम लेकर जाऊं । उनकी यह बात सुनकर राजा को क्रोध आ गया । राजा कहने लगा यह कैसी बातें करते हैं ।अनादि काल से यह परंपरा चलती आ रही है जो भगवान का पुराना विग्रह है उसे समुद्र में प्रवाहित किया जाता है । किसी व्यक्ति विशेष को देने का अधिकार हमारे पास नहीं है ।हम तो उसी परंपरा का पालन करते आ रहे हैं ।इस प्रकार राजा ने भक्त हरिदास को  पुराना विग्रह देने से मना कर दिया । भक्त हरिदास अपने भक्तों के साथ अन्न और जल को त्याग कर समुद्र किनारे बैठ गए । वें परमात्मा को उलाहना देते हुए कहने लगे – हे प्रभु, विचित्र लीला करते हो मुझे यहां बुलाया है ,मेरे साथ चलने के लिए और अब यहां से चलने को तैयार नहीं हो । आपके मन में इच्छा है आप वृंदावन में निवास करना चाहते हैं और मैं आपको लेने आया हूं । तो यहां राजा आपका विग्रह देने को तैयार नहीं है । आपकी जैसी इच्छा हो वैसा ही किया जाएगा ।मैं तो क्या कर सकता हूं । तो कुछ भक्तों ने कहा महाराज आप आज्ञा दे तो हम विग्रह की चोरी कर ले । भक्त हरिदास जी कहने लगे अरे अरे, ऐसा पाप ना करना भगवान चलने को तैयार हैं तो हम चोरी क्यों करें ।जब भगवान की इच्छा होगी तब चलेंगे ।  रात्रि के समय जब राजा अपने शयनकक्ष में आराम कर रहा था तब परमात्मा की एक आवाज सुनाई दी ।परमात्मा ने राजा को उठाते हुए कहा राजन, तुमने बड़ा अपराध किया है ।मेरे भक्त पर क्रोध किया है ।वह तो मेरी आज्ञा से मेरा श्री विग्रह लेने के लिए आए थे ।तुमने उन्हें नाराज करके बड़ा अपराध किया है ।भगवान की यह बात सुनकर राजा कहने लगा भगवन मुझे आज्ञा दो ,मुझे क्या करना चाहिए ? जैसे आप कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं । मैं तो बहुत समय से यह परंपरा देखता आ रहा हूं जो पुराना विग्रह है उसे समुंदर में प्रवाहित किया जाता है मैं आपकी आज्ञा के बिना श्री हरिदास जी को कैसे उसे दे सकता था । तब भगवान ने प्रसन्न होते हुए कहा हे राजन वह मेरा ही भक्त है मेरी आज्ञा से ही वृंदावन से चलकर यहां तक आया है ।आप अच्छी सी व्यवस्था कर मेरे श्री विग्रह को रथ में बैठा दो । जिससे वह आराम से मेरे विग्रह को लेकर वृंदावन जा सके ।अब भगवान की आज्ञा से प्रातः काल राजा ने मंत्रियों को आदेश दिया । जल्दी से भक्त हरिदास जी को खोज कर मेरे राज महल में लेकर आओ । मैं उनसे मिलना चाहता हूं ।अब राजा की आज्ञा मानकर राजा के मंत्री भक्त हरिदास जी को खोजने के लिए सारे शहर में निकल गए । किसी ने आकर बताया कि  भक्त हरिदास जी समुंदर के किनारे बैठे हैं । आप स्वयं चलकर उनका सम्मान कीजिए क्योंकि आप को भगवान का आदेश प्राप्त हुआ है ।कहा जाता है भगवान की आज्ञा पाकर और संत जी की खबर सुनकर राजा स्वयं समुंदर के किनारे आए ।भक्त हरिदास जी को देखकर जगन्नाथ पुरी के राजा प्रसन्न हो गए ।उन्हें अपना स्वपन सुनाते हुए  कहा हरिदास जी कल रात्रि के समय मुझे भगवान का आदेश हुआ है । वे अपनी इच्छा से आपके साथ वृंदावन चलना चाहते हैं ।आप जैसा कहेंगे वैसी व्यवस्था आपको करके दी जाएगी ।यह बात सुनकर भक्त हरिदास जी प्रसन्न हो गए उनकी आंखों से आंसू बहने लगे । भक्त जी को रोता हुआ देखकर राजा कहने लगा महाराज मुझसे कोई अपराध हुआ है क्या, आप रो क्यों रहे हो ? तब हरिदास जी कहने लगे , मैं भगवान की करुणा पर रो रहा हूं वे कितने दयालु हैं , मेरे साथ चलने के लिए उन्होंने रात्रि मे जाकर तुम्हें आदेश दिया है । अब तो सारे जगन्नाथपुरी में भक्त हरिदास जी की जय जयकार होने लगी ।जब समय आया , मूर्तियों का परिवर्तन किया गया जो पुराना श्री विग्रह था वो जाकर श्री हरिदास जी को सोपते हुए ,राजा ने कहा – महाराज यह लीजिए जगन्नाथ जी, इन्हें संभाल कर आप अपने साथ पर लेकर जाइएगा । कहा जाता है श्री हरिदास जी अपने साथ भगवान जगन्नाथ जी को  रथ में बैठा कर जैसे ही वहां से प्रस्थान करने लगे , वैसे तो जगन्नाथपुरी से वृंदावन आने में कम से कम 8 महीने लग जाते है पर परमात्मा ने एक विचित्र लीला की , जैसे ही रात गुजरी , रात्रि समाप्त होते ही प्रातः काल  सारे भक्त विग्रह के साथ श्री हरिदास जी के समीप वृंदावन में उपस्थित थे । यह देखकर सब हैरान हो गए ।हम एक रात्रि में जगन्नाथ पुरी से वृंदावन कैसे पहुंच गए ? श्री हरिदास जी ने कहा यह सब परमात्मा की लीला है उनकी लीला से यह सब हो पा रहा है । कहा जाता है भगवान जगन्नाथ के आदेश से श्री हरिदास जी ने यमुना नदी के निकट जगन्नाथ घाट पर भगवान श्री जगन्नाथ का एक विशाल मंदिर स्थापित किया । अभी तक वह मंदिर वृंदावन में स्थापित है वहां पर जो श्री विग्रह स्थापित किए गए हैं जिनका दर्शन हमें प्राप्त होता है भगवान स्वयं जगन्नाथ पुरी से वृंदावन आए थे ।


How did Lord Jagannath reach Vrindavan?


Once upon a time, it is said that Shri Jagannath ji, while giving darshan to his devotee Shri Haridas ji living in Vrindavan, said in a dream – Arise devotee Haridas. Shri Haridas ji got up and sat down. But his eyes were closed. Because he was sleeping. Lord Jagannath ji said – Bhakta Haridas, you have been doing my devotion here in Vrindavan for a long time. We wish that you come to visit Jagannath Puri. There my Deity will be changed this year which is changed once in 36 years. This is the rule of Jagannath Puri. Once in 36 years, the idols of Shri Jagannath ji are converted into a new Deity. Then God ordered, this time is about to come. It is the month of Ashadh, you have reached there. After reaching there, my old deity which is shed in the sea, this time you will bring it with you to Vrindavan. Because I also want to live in Vrindavan and live with the devotees. The Lord lost his mind by saying this. The next morning, following the orders of the Lord, Shri Haridas ji went on a journey with the devotees. Shri Haridas ji reached Jagannathpuri from Vrindavan while slowly performing Bhajan Simran. When everyone came to know that Haridas ji has come to Jagannathpuri, his happiness knew no bounds. Shri Haridas ji had darshan of Lord Jagannath. The next day the Deity of Lord Jagannath was to be changed. So the devotee Haridas asked a Panditji that I want to meet the Panditji who converts the Deity. The Pandit said that there is a big priest here, he converts the Deity. At that time everyone's entry is prohibited in the temple. You can't even go inside. Shri Haridas ji said that I do not have to go inside, I have to take the Deity of God with me. Hearing this, the pundit started saying hey saint, what do you say. It is a crime that the Deity which is taken out here is thrown into the sea. The sea gods take him with them to their place. Do not tell such a thing to anyone. Otherwise people will get angry with you. Now the devotee had the permission of God, he reached to that big pundit and told the same thing to him. That pundit also got very angry and started saying. . Then a servant said to Shri Haridas ji, this Pandit ji will not understand your point. You go to the Raja of Jagannath Puri and tell the whole thing. Now Haridas ji reached the king's palace with the devotees. The king got up and paid his respects to Shri Haridas ji. After accepting the king's salute, the devotee Haridas ji started saying, O Rajan, you are the servant of Jagannathpuri. I have received God's order that this time the deity of Lord Jagannath ji will be changed. So let me take the old Deity with me to the abode of Vrindavan. Hearing this, the king got angry. The king started saying how do they talk. This tradition has been going on since time immemorial, which is the old Deity of God, it is flown in the sea. We do not have the right to give to any particular person. We have been following the same tradition. Thus the king refused to give the old deity to the devotee Haridas. Devotee Haridas, along with his devotees, gave up food and water and sat on the sea shore. He started blaming God and said - Oh Lord, you have called me here, doing strange leela, to go with me and now you are not ready to walk from here. There is a desire in your mind that you want to reside in Vrindavan and I have come to take you. So here the king is not ready to give your grace. It will be done as you wish. What can I do? So some devotees said, Maharaj, if you give permission, then we should steal the Deity. Devotee Haridas ji started saying oh hey, God is ready to walk not to commit such a sin, then why should we steal. When God wills then we will walk. During the night, when the king was resting in his bedroom, a voice of God was heard. God raised the king and said, Rajan, you have committed a great crime. You have angered my devotee. That is my deity by my orders. Came to take them. You have committed a big crime by making them angry. Hearing this, the king started saying God, give me orders, what should I do? I am ready to do as you say. I have been seeing this tradition for a long time, which is an old deity, it is flown in the sea, how could I give it to Shri Haridas ji without your permission. Then God was pleased and said, O Rajan, he is my devotee and has come here from Vrindavan by my permission. Make good arrangements and put my Shri Deity in the chariot. So that he can comfortably take my Deity to Vrindavan. Quickly find the devotee Haridas ji and bring him to my palace. I want to meet him. Now obeying the orders of the king, the ministers of the king went out all over the city to find Bhakta Haridas ji. Someone came and told that the devotee Haridas ji is sitting by the seashore. Walk yourself and respect them because you have received the orders of God. It is said that after receiving the orders of God and hearing the news of the saint, the king himself came to the seashore. Seeing the devotee Haridas ji, the king of Jagannath Puri was pleased. While narrating his dream, said Haridas ji last night At the time of death I have got the order of God. They want to go to Vrindavan with you of their own free will. As you say, such arrangements will be given to you. Hearing this, Bhakta Haridas ji was pleased, tears started flowing from his eyes. Seeing the devotee crying, the king started saying, 'Maharaj, have I committed any crime, why are you crying? Then Haridas ji started saying, I am crying at the mercy of God, how merciful he is, he has ordered you to go with me in the night. Now the whole Jagannathpuri started chanting the praises of the devotee Haridas. You will take it with you. It is said that Shri Haridas ji took Lord Jagannath ji with him in his chariot and as soon as he started departing from there, it takes at least 8 months to reach Vrindavan from Jagannathpuri, but God did a strange Leela, as soon as the night As soon as the night ended, in the morning all the devotees were present in Vrindavan near Shri Haridas ji with Deity. Everyone was surprised to see this. How did we reach Vrindavan from Jagannath Puri in one night? Shri Haridas ji said that all this is the leela of God, all this is being done by his leela. It is said that by order of Lord Jagannath, Shri Haridas ji established a huge temple of Lord Shri Jagannath at Jagannath Ghat near river Yamuna. Till now that temple is established in Vrindavan, there the Shri Vigrahas have been established, whose vision we get, Lord Jagannath himself came to Vrindavan from Puri.

How did Sheikh get the name Sheikh Chilli? शेख का नाम कैसे पड़ा शेख चिल्ली ?

 कैसे पड़ा शेखचिल्ली का नाम 













शेखचिल्ली एक महान सूफी संत थे। मुगल बादशाह शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह उन्हें अपना गुरू मानते थे। शाहजहाँ भी उनके बहुत बड़े प्रशंषक थे।वास्तविकता में उनका नाम सूफी अब्द उर रज्ज़ाक था।

 इसके अलावा उन्हें अब्द उर रहीम, अलैस अब्द उर करीम, अलैस अब्द उर रज्जाक के नाम से भी जाना जाता था। वे

बलूचिस्तान के एक खानाबदोश कबीले में जन्मे, शेखचिल्ली को उनकी घुमक्कड़ी का शौक भारत में ले आया। शेखचिल्ली को न व्यवहारिकता की परवाह थी, न ही दिखावे में विश्वास करते थे। वे अपनी बात बड़ी ही ईमानदारी और सफाई से कह दिया करते थे। उनकी बातें इतनी खरी-खरी होती थी कि उसमें से हास्य उत्पन्न हो जाता था। उनकी सरलता और भोलापन भी लोगों को हँसने पर विवश कर देता था । इस कहानी में हम आपको शेखचिल्ली के बचपन में ले जायेंगे। इसमें उस समय की उस घटना का वर्णन है, जहाँ से उनका नाम शेखचिल्ली पड़ गया। 

शेखचिल्ली की पैदाइश शेख परिवार में हुई थी। पिता के निधन के बाद उनकी माँ ने बेहद ग़रीबी में उनकी परवरिश की। ग़रीबी के बावजूद माँ उसे अच्छी शिक्षा दिलवाना चाहती थी। इसलिए उसका दाखिला गाँव के एक मदरसे में करवा दिया।  वह रोज़ मदरसे में जाने लगा और मौलवी से तालीम लेने लगा। मदरसे में गाँव के कई बच्चे आया करते थे। शेख परिवार से ताल्लुक होने के कारण वे सभी उसे ‘शेख” पुकारा करते थे। मौलवी साहब ने एक दिन पढ़ाया, “लड़की के लिए जाती है, तो लड़का के लिए जाता है. लड़की के लिए  खाती है, तो लड़का के लिए खाता है।” सारे बच्चों के पीछे-पीछे दोहराया, “लड़की जाती है, तो लड़का जाता है. लड़की खाती है, तो लड़का खाता है”


फिर मौलवी ने सबसे पूछा, “आया समझ में.”


सबने “हाँ” में अपना सिर हिलाया, शेख ने भी।


शाम को मदरसे से वापस घर जाते समय शेख को किसी लड़की के चिल्लाने की आवाज़ आई। वह भागा-भागा आवाज़ की दिशा में गया। वहाँ उसने देखा कि एक लड़की तालाब में डूब रही है और मदद के लिए पुकार रही है। अकेले उसे तालाब से बाहर निकाल पाना शेख के बस के बाहर था। वह दौड़ता हुआ मदरसे के साथियों के पास गया और बोला, “एक लड़की चिल्ली रही है। जल्दी चलो।” किसी को भी समझ नहीं आया कि शेख कहना क्या चाहता है। लेकिन वे उसके साथ तालाब पर पहुँच गए। जब उन्होंने एक लड़की को डूबते हुए देखा, तो उसकी मदद कर उसे बाहर निकाला। तालाब से बाहर निकलने के बाद भी वह रोना-पीटना मचाती रही। उसे देख शेख बोला, “देखो, अब भी कितना चिल्ली रही है। अरे, अब चुप भी हो जा।” बार-बार ‘चिल्ली’ सुनकर शेख के साथी तंग आ चुके थे। वे बोले, “शेख, तू बार-बार "चिल्ली रही है, चिल्ली रही है " क्यों कह रहा है?” तो शेख ने कहा 

“अरे मौलवी साहब ने ही तो सिखाया था। लड़के के लिए ‘जाता है’, लड़की के लिए ‘जाती है’। वैसे ही लड़के के लिए ‘चिल्ला’ रहा है और लड़की के लिए ‘चिल्ली’ रही है।” उसकी मूर्खतापूर्ण बात सुनकर सब जोर जोर से हँसने लगे। उस दिन के बाद से सब उसे ‘चिल्ली-चिल्ली’ चिढ़ाने लगे और बाद में यह ‘चिल्ली’ शेख के साथ जुड़ गया और वो ‘शेखचिल्ली’ कहलाने लगा।


How did Sheikh get the name Sheikh Chilli?

How did sheikhchilli got its name?

Sheikhchilli was a great Sufi saint. Dara Shikoh, the son of the Mughal emperor Shah Jahan, considered him as his guru. Shah Jahan was also his great admirer.

Actually his name was Sufi Abd ur Razzaq.

Apart from this, he was also known as Abd ur Rahim, Alas Abd ur Kareem, Alas Abd ur Razzaq. they


Born into a nomadic tribe in Balochistan, Sheikhchilli's passion for traveling brought him to India. Shekhchilli neither cared for practicality, nor did he believe in appearances. He used to say his point very honestly and clearly. His words were so honest that humor came out of it. His simplicity and innocence also compelled people to laugh. In this story we will take you back to the childhood of Sheikhchilli. It describes the incident of that time, from where he got his name Sheikhchilli.


Sheikhchilli was born in a Sheikh family. After the death of his father, his mother raised him in extreme poverty. Despite the poverty, the mother wanted him to get a good education. So he got him enrolled in a madrassa in the village. He started going to madrassa everyday and took training from Maulvi. Many children of the village used to come to the madrasa. They all used to call him 'Sheikh' as ​​he belonged to the Sheikh family. Maulvi Sahib taught one day, “If it goes for the girl, it goes for the boy. Eats for the girl, eats for the boy." Repeated after all the children, “The girl goes, the boy goes. Girl eats, boy eats"




Then the Maulvi asked everyone, "I understand."




Everyone nodded their heads "yes", Shaikh too.




In the evening, on his way back home from the madrasa, Shaikh heard a girl screaming. He ran in the direction of the voice. There he saw a girl drowning in the pond and calling for help. It was beyond Shaikh's bus to get him out of the pond alone. He ran to the fellows of the madrasa and said, “A girl is screaming. Come fast." No one understood what Shaikh wanted to say. But they reached the pond with him. When he saw a girl drowning, he helped her out. Even after coming out of the pond, she kept on crying. Seeing her the sheikh said, "Look, how much she is still crying. Oh, shut up now." Sheikh's companions were fed up after hearing 'chilli' again and again. He said, "Sheikh, why are you saying "chilli rahi hai, chilli rahi hai" again and again? so the sheikh said


“Oh Maulvi Sahib, it was he who taught. For the boy 'goes', for the girl 'goes'. Similarly, there is 'chilla' for the boy and 'chilli' for the girl." Hearing his stupid words, everyone started laughing out loud. From that day onwards everyone started teasing him 'chilli-chilli' and later this 'chilli' got associated with Sheikh and he came to be called 'Sheikhchilli'.

Where is heaven? स्वर्ग कहा है ?













बहुत पहले की बात है विजयनगर नाम का एक राज्य था। वहां के राजा का नाम कृष्णदेव राय थे। वे अपनी प्रजा के लिए एक महान राजा थे। राजा कृष्णदेव के पास बुद्धिमान मंत्रियो की कोई कमी नही थी। पर तेनाली रामा सबसे तेज और बुद्धिमान मंत्री थे।  एक दिन  राजा कृष्णदेव ने भरी सभा में अपने सभी दरबारियों और उपस्थित लोगों से कहा की मैंने बचपन में सुना था कि स्वर्ग एक ऐसी जगह है जो की बहुत सुन्दर है।क्या कोई मुझे स्वर्ग दिखा सकता है? जब किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तो राजा ने तेनाली राम से पूछा कि क्या तुमको भी नहीं पता की स्वर्ग कहां है? तेनाली ने कहा कि महाराज मै आपको स्वर्ग दिखा सकता हूँ लेकिन उसके लिए मुझे 10000 सोने के सिक्के और छह महीने का समय चाहिए। उसकी इस बात पर सभी दरबारी हंसने लगे। राजा ने कहा कि ठीक है तुमने जो माँगा है वह तुमको मिलेगा । यदि तुम छह महीने बाद स्वर्ग दिखाने में असमर्थ रहे तो तुमको सजा मिलेगी। तेनाली राजा की बात पर सहमत हो गया और 10000 सोने के सिक्के लेकर चला गया। इसके बाद छह महीने पुरे हो गए । राजा बड़े गुस्से में थे कि तेनाली अभी तक नहीं आया। लेकिन तभी तेनाली दरबार में पहुंच गया। राजा ने तेनाली से पूछा कि क्या तुमने स्वर्ग ढूँढ लिया है? तेनाली ने कहा , जी महाराज, मैंने स्वर्ग ढूंढ लिया है कल मै आपको स्वर्ग के दर्शन कराऊंगा। अगले दिन राजा अपने कुछ मंत्रियो के साथ तेनाली के साथ चल पड़े। तेनाली राम उनको दूर लेकर गए। कुछ समय बाद एक ऐसी जगह आयी जो  कि बहुत शांत और अच्छी थी। तेनाली ने कहा की महाराज आप यहाँ पर कुछ देर आराम कर लीजिये इसके बाद हम आगे स्वर्ग के लिए जायेंगे। राजा ने तेनाली की बात मानकर सेनिकों से कहा कि यहाँ पर मेरे आराम की व्यवस्था की जाये। इसके बाद सेनिको ने राजा के आराम करने के लिए तम्बू बना दिए। राजा ने एक मंत्री से कहा की कितनी अच्छी जगह है कितनी शांत है हरे भरे पेड़, नदी और पक्षियों की आवाज़। पहले किसी ने मुझको इस जगह के बारे में क्यों नहीं बताया। इसके बाद मंत्री ने कहा महाराज वो सब तो ठीक है लेकिन तेनाली ने आपको स्वर्ग दिखाने के लिए कहा था। राजा ने पूछा तेनाली कहां  है। कुछ देर के बाद तेनाली आ गया। उसके हाथ में आम थे। तेनाली ने राजा से कहा महाराज आप इन आम को खा लीजिये। राजा ने आम खाये और कहा आम तो बहुत मीठे है। राजा ने कहा  तेनाली तुम हमको स्वर्ग के लिए कब लेकर जाओगे। तेनाली ने कहा महाराज यह इतनी सुन्दर और शांत जगह है जहाँ पर हरे भरे पेड़ पौधे है, नदी है, पक्षी है और इन मीठे आम के पेड़ है। यह जगह स्वर्ग से भी अच्छी है। स्वर्ग तो हमने देखा भी नहीं है। राजा तेनाली की बात पर सहमत हो गए और कहा लेकिन तेनाली तुमने उन 10000 सोने के सिक्को का क्या किया।तेनाली ने कहा की महाराज मैंने उनसे बीज और पौधे ख़रीदे है। जो की हम पुरे विजयनगर में लगाकर विजयनगर के सभी लोगों को स्वर्ग का अहसास करा सकते है। इस पर राजा तेनाली रामा से खुश हो गए और उनकी प्रशंसा की।


Where is heaven?


Long ago there was a kingdom named Vijayanagara. The name of the king there was Krishna Deva Raya. He was a great king for his subjects. King Krishnadev had no shortage of wise ministers. But Tenali Rama was the fastest and wisest minister. One day King Krishnadeva told all his courtiers and people present in a packed meeting that I had heard in my childhood that heaven is a place which is very beautiful. Can anyone show me heaven? When no one answered, the king asked Tenali Rama that do you not even know where the heaven is? Tenali said that sir I can show you heaven but for that I need 10000 gold coins and six months time. All the courtiers started laughing at this. The king said that okay you will get what you have asked for. If you are unable to show heaven after six months, you will be punished. Tenali agreed to the king's words and went away with 10000 gold coins. After that six months passed. The king was very angry that Tenali had not come yet. But then Tenali reached the court. The king asked Tenali that have you found heaven? Tenali said, Sir, I have found heaven, tomorrow I will show you heaven. The next day the king along with some of his ministers left with Tenali. Tenali Rama took them away. After some time a place came which was very quiet and nice. Tenali said that you take rest here for some time, after which we will go to heaven. The king obeyed Tenali and told the soldiers that arrangements should be made for my rest here. After this the soldiers made tents for the king to rest. The king told a minister that what a nice place, how quiet is the green trees, the river and the sound of birds. Why didn't anyone tell me about this place before? After this the minister said that all is fine, but Tenali had asked to show you heaven. The king asked where is Tenali. After sometime Tenali came. He had mangoes in his hand. Tenali said to the king, sir, you should eat these mangoes. The king ate mangoes and said that mangoes are very sweet. The king said Tenali, when will you take us to heaven. Tenali said, "Maharaj, this is such a beautiful and peaceful place where there are green trees, plants, rivers, birds and these sweet mango trees. This place is better than heaven. We have not even seen heaven. The king agreed to Tenali's point and said but Tenali what did you do with those 10000 gold coins. Tenali said that Maharaj, I have bought seeds and plants from him. Which we can make all the people of Vijayanagar feel heaven by putting it in the whole of Vijayanagara. On this the king was pleased with Tenali Rama and praised him.