imandari ka fal | ईमानदारी का इनाम |


 


एक गांव में नंदू नाम का एक गरीब आदमी रहता था। वह अपनी पत्नी और अपने बच्चों के साथ एक साधारण जीवन व्यतीत करता था । वह इतनी गरीबी से झूझ रहा था कि उसके पास खाने के लिए दो वक्त का भोजन भी नहीं था। परंतु वह भगवान पर अत्यधिक विश्वास करता था ।उसको यह पता था कि एक ना एक दिन भगवान मेरी सारी मनोकामना पूरी करेंगे और मेरी सारी समस्या समाप्त कर देंगे। वह हर रोज नए-नए काम ढूंढता रहता था ।जिससे कि वह अपने बीवी और बच्चों का पेट पाल सकें। पर कभी-कभी उसकी किस्मत उसका साथ नहीं देती थी । एक दिन जब उसे कहीं पर भी काम नहीं मिला तो वह परेशान होकर जंगल की ओर जाने लगा। चलते चलते वह मन ही मन में बस यही प्रार्थना कर रहा था कि भगवान मुझे कुछ ऐसा काम दे दो जिससे मैं अपने परिवार को अच्छे से रख पाऊं । तभी उसने देखा कि एक सेठ उसी जंगल के रास्ते उसके आगे  चल रहा है और उसने देखा कि वह सेठ बहुत ही परेशान लग रहा है । इसीलिए वह सेठ की थोड़ी ही दूरी पर जाकर खड़ा हो गया और सेठ की बातें सुनने लगा । सेठ जोर-जोर से कह रहा था कि मेरी अंगूठी खो गई । पता नहीं कहां चली गई । अभी मेरे हाथ में ही तो थी। इतना कहने के बाद सेठ उदास होकर वापस अपने घर की ओर जाने लगा।  तभी नंदू ने ढूंढना शुरू किया और उसे झाड़ियों में सेठ की अंगूठी मिल गई। जैसे ही नंदू ने उस अंगूठी को उठाया उसने देखा कि यह अंगूठी असली हीरे की बनी हुई है । नंदू को लगा कि यह सच में बहुत ही महंगी अंगूठी होगी। नंदू ने सोचा कि अगर मैं यह अंगूठी सेठ को वापस दे दूं तो शायद वह खुश होकर मुझे कोई अच्छा काम बता दे । इसीलिए नंदू बिना वक्त गवाए सेठ के पीछे पीछे चलता रहा । और जैसे ही सेठ घर पहुंच गया नंदू ने उन्हें पीछे से आवाज लगाई और कहा सेठ जी यह आपकी वही अंगूठी है  जो जंगल में खो गई थी । जैसे ही सेठ अंगूठी को देखता है वह आश्चर्यचकित हो जाता है । और उसके चेहरे पर एक सुकून आ जाता है । पर सेठ को विश्वास नहीं होता कि यह आदमी अंगूठी मुझे वापिस क्यों कर रहा है । तो सेठ नंदू से पूछता है कि तुमने मुझे ही अंगूठी वापिस क्यों की। अगर तुम चाहते तो यह अंगूठी अपने पास रख सकते थे । और इस को बेचकर धन कमा सकते थे। पर तुमने ऐसा नहीं किया क्यों ? तभी नंदू कहता है सेठ यह तो बेमानी हुई जो चीज मेरी है ही नहीं, उससे मिलने वाला पैसा भी मेरा नहीं है । और अगर मैं ऐसा करता ,तो वह पैसा भी मेरे पास नहीं रहता और साथ ही में मेरे भगवान मुझसे रूठ जाते । इसीलिए मैं ऐसी बेमानी नहीं कर सकता था । तभी सेठ खुश होकर नंदू से कहते हैं कि बताओ , तुम्हें क्या चाहिए मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूंगा । तुम्हें जो चाहिए तुम मुझसे मांग सकते हो । तभी नंदू हाथ जोड़कर कहता है कि सेठ मुझे एक अच्छे काम की तलाश है । एक ऐसा काम जिसके साथ मैं अपना परिवार भी संभाल सकूं और अपने बच्चों को पढ़ा सकूं । तभी सेठ मुस्कुरा कर कहता है कि मेरे यहां पर एक ईमानदार काम करने वाले की जरूरत है । अगर तुम चाहो तो वह काम कर सकते हो ।क्योंकि इस अंगूठी को वापस करके तुमने अपनी ईमानदारी साबित कर दी है। और तुम्हें यह नौकरी देने में मुझे जरा भी संकोच नहीं हो रहा । नंदू हाथ जोड़कर कहता है कि अगर आपको यह लगता है कि मैं इस काम को करने के योग्य हूं ।तो मुझे आपका काम करके खुशी मिलेगी ।और मैं आपके काम को पूरी ईमानदारी के साथ करूंगा ।उसके बाद नंदू वहां पर काम करना शुरू कर देता है । उसके दिन बदल गए थे ।अब वह अच्छे से काम कर रहा था। सेठ उसे अच्छे पैसे भी देता था।

 वह आदमी समझ गया था कि “भगवान” सभी को देखते है। वह सभी की इच्छा पूरी करते है। अगर हम सब कुछ ईमानदारी से करते है ।तो वह मदद जरूर करते है। इसलिए भगवान के प्रति विश्वाश होना बहुत जरुरी होता है। अगर आप विश्वाश करते है तो आपकी इच्छा एक दिन जरूर पूरी होती है।


There lived a poor man named Nandu in a village. He lived a simple life with his wife and his children. He was suffering from such poverty that he did not even have two meals to eat. But he had great faith in God. He knew that one day God would fulfill all my wishes and solve all my problems. He used to find new work everyday so that he could feed his wife and children. But sometimes his luck did not favor him. One day when he could not find work anywhere, he got upset and started going towards the forest. While walking, he was praying in his heart that God give me some such work so that I can take care of my family well. Then he saw that a Seth was walking ahead of him through the same forest and he saw that Seth was looking very upset. That is why he stood at a short distance from Seth and started listening to Seth's words. Seth was saying loudly that I had lost my ring. I don't know where it went. It was only in my hand. After saying this, Seth got sad and started going back towards his house. Then Nandu started searching and found Seth's ring in the bushes. As soon as Nandu picked up the ring he saw that it was made of real diamonds. Nandu thought that this would be a really expensive ring. Nandu thought that if I give this ring back to Seth, then maybe he will be happy and tell me some good deed. That's why Nandu kept on following Seth without wasting any time. And as soon as Seth reached home, Nandu called him from behind and said Seth ji, this is your ring which was lost in the forest. As soon as Seth sees the ring he is surprised. And a look of relief comes to his face. But Seth can't believe why this man is returning the ring to me. So Seth asks Nandu why did you return the ring to me. If you wanted, you could have kept this ring with you. And could earn money by selling it. But why didn't you do that? Then Nandu says, Seth, it is meaningless, the thing which is not mine, the money received from it is also not mine. And if I had done this, then even that money would not remain with me and at the same time my God would have been angry with me. That's why I couldn't do such nonsense. Then Seth is happy and tells Nandu that tell me, what do you want, I will fulfill your every wish. You can ask me whatever you want. Then Nandu says with folded hands that Seth I am looking for a good job. A job with which I can also take care of my family and educate my children. Then Seth smiles and says that I need an honest worker here. You can do that if you want. Because by returning this ring you have proved your integrity. And I have no hesitation in giving this job to you. Nandu says with folded hands that if you feel that I am capable of doing this work. Then I will be happy to do your work. And I will do your work with complete honesty. After that Nandu would start working there. Is . His days had changed. Now he was doing well. Seth used to give him good money too.

 The man understood that "God" sees all. He fulfills everyone's wish. If we do everything honestly. Then he definitely helps. That is why it is very important to have faith in God. If you believe then your wish will definitely come true one day.

shanshah or bulbul | शहंशाह और बुलबुल की कहानी की सच्ची कहानी

 शहंशाह और बुलबुल की कहानी की सच्ची कहानी 



पुराने समय की बात है चीन के दूरदराज के इलाके में शहंशाह की हुकूमत हुआ करती थी । शहंशाह का महल बहुत ही शानदार और आलीशान था । और महल के चारों ओर इतना बड़ा बगीचा था कि उसके माली को भी उसकी हद पता नहीं थी । बगीचे के एक पेड़ पर एक छोटी सी बुलबुल रहा करती थी। वह बहुत ही मधुर स्वर में गाना गाती थी । जिसका आनंद बगीचे के सारे लोग लिया करते थे ।  केवल राजा ही ऐसे थे जो उस बुलबुल के गीत का आनंद नहीं ले पाते थे । क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उनके महल के बगीचे में एक इतनी सुंदर और इतना प्यारा गाना गाने वाली एक मधुर बुलबुल रहती है।  एक दिन जापान का एक सैनिक शहंशाह के महल में आता है और कहता है कि हमारे महाराज आपसे मिलना चाहते हैं।  इसलिए वह कल यहां आ रहे हैं । और इस बात को सुनकर शहंशाह को खुशी होती है । शहंशाह अपने सैनिकों को कहते हैं कि उनकी स्वागत की व्यवस्था की जाए और साथ में यह भी कहा कि उनका स्वागत ऐसे किया जाए जैसे किसी ने कभी ना किया हो। शहंशाह के आदेश  मुताबिक जापान के शहंशाह का बहुत ही जबरदस्त स्वागत हुआ और मेहमान नवाजी में उनके लिए ढेरों पकवान बनाए गए।जापान के शहंशाह को एक बहुत ही प्यारा कमरा रहने के लिए दिया गया। जिसमें हर प्रकार की सुख सुविधाएं थी। शहंशाह को बहुत खुशी हुई कि जापान के शहंशाह हमारे यहां की व्यवस्था को इतनी पसंद कर रहे हैं। उन्हें बगीचे में घुमाया गया और उन्हें अपनी प्रजा से भी मिलवाया । वहां से जाते वक्त उन्हें बुलबुल की मधुर आवाज सुनाई दी । जापान के शहंशाह बुलबुल की मधुर आवाज के दीवाने हो गए।

 फिर एक दिन जापान के शहंशाह, शहंशाह के लिए एक खत भेजते हैं ।तो शहंशाह कहते हैं कि जापान के शहंशाह की भेजी हुई चिट्ठी पढ़कर सुनाई जाए । जापान के शहंशाह, शहंशाह का शुक्रिया करते हैं और साथ में यह भी कहते हैं कि उनकी प्रजा और भोजन ने हमारा दिल जीत लिया। आप के बगीचे की बुलबुल की मीठी आवाज को सुनकर तो हम एक अलग दुनिया में चले गए । जैसे ही चिट्ठी में बुलबुल का जिक्र होता है तो महाराज कहते हैं कि यह बुलबुल कौन है जिसकी आवाज हमनें नहीं सुनी। शहंशाह ने बुलबुल को अपने पास बुलाने का आदेश दिया ।

 शहंशाह ने बुलबुल की आवाज सुनी। तो शहंशाह ने कहा तुम्हारी आवाज तो बहुत ही मीठी है ,प्यारे नन्हे पक्षी। शहंशाह ने बुलबुल को अपने महल में रखा ताकि वो  उसकी मीठी आवाज को रोज सुन सके। एक दिन जापान के शहंशाह, शहंशाह के लिए एक तोहफा भेजते हैं । जिसके अंदर एक चाबी से चलने वाली प्लास्टिक की बुलबुल होती है । उसमें चाबी भरते हैं वह एक सुंदर सा गीत गाने लगती है । शहंशाह उस तोहफे को देख करके बहुत खुश होते हैं।  अब महाराज हर रोज खिलौने वाली बुलबुल की ही आवाज सुना करते थे । यह देखकर बुलबुल को बहुत बुरा लगा और वह महल से उड़ गई । और दोबारा लौटकर नहीं आई । फिर एक दिन खिलौना खराब हो गया । इसलिए महाराज ने अपने सैनिकों से कहा कि तुम इसको ठीक करवा कर लाओ  । जब सैनिक वापस आए तो उन्होंने बताया कि महाराज पूरी दुनिया में हमें ऐसा कोई खिलौने ठीक करने वाला नहीं मिला जो इस खिलौने को ठीक कर सके । फिर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ कि उन्होंने एक प्लास्टिक के खिलौने के लिए अपनी दोस्त को छोड़ दिया।  बुलबुल के गम में शहंशाह ने खाना पीना छोड़ दिया और दिन प्रतिदिन वह बहुत बीमार होने लगे। इसीलिए गांव के पास के एक वैद्य  को बुलाया गया और उनसे शहंशाह का इलाज करवाया गया । फिर वैद्य ने कहा कि इनका इलाज सिर्फ उस बुलबुल की आवाज है । जिसकी वजह से इन्होंने सब कुछ खाना पीना छोड़ दिया है ।  सैनिक अपने शहर से बाहर निकल गए और हर जगह बुलबुल को ढूंढने लगे । काफी दिन बीत गए लेकिन बुलबुल कहीं नहीं मिल रही थी।  और शहंशाह की तबीयत भी खराब होती जा रही थी।  वैध ने कहा कि अगर कुछ दिनों के अंदर बुलबुल नहीं मिली तो हम अपने राजा को खो देंगे। इसीलिए सैनिकों ने चारों ओर ऐलान कर दिया कि जो कोई भी बुलबुल को ढूंढ कर लाएगा हम उसे 1000 सोने के सिक्के देंगे। एक दिन अचानक बुलबुल उड़ते उड़ते राजा के महल में वापस अपने आप आ गई । सब ने देखा की बुलबुल लौट आई है और वह सीधा शहंशाह के कमरे की खिड़की पर जाकर बैठ गई । जब उसने देखा कि शहंशाह बिस्तर पर लेटे हैं तो उसने अपना गाना गाना शुरू किया।   जैसे ही बुलबुल की मधुर आवाज शहंशाह के कानों में पड़ी तो शहंशाह उठकर खड़े हो गए और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे । वह भाग के खिड़की के पास गए और बुलबुल को अपनी हथेली में उठा लिया और गले से लगाया।  यह देखकर बुलबुल को बहुत खुशी हुई और उसने गाना गाना शुरू कर दिया और शहंशाह ने उसका गाना काफी लंबे समय तक सुना। धीरे-धीरे शहंशाह के स्वास्थ्य में भी सुधार हुआ और वह पहले की तरह ठीक हो गए ।बुलबुल शहंशाह के सबसे अच्छी दोस्त बन गई।

दोस्तों इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है कि हमें कभी भी नकली चीजों  के लिए अपने असली दोस्तों को नहीं छोड़ना चाहिए । क्योंकि उनके जाने के बाद ही हमें उनकी कीमत का एहसास होता है।

True story of the story of Shahenshah and Bulbul


It is a matter of old time that the emperor used to rule in the remote areas of China. The emperor's palace was very luxurious and luxurious. And there was such a large garden around the palace that even its gardener did not know its extent. There used to be a small bulbul on a tree in the garden. She sang in a very melodious voice. Which was enjoyed by all the people of the garden. It was only the king who could not enjoy the song of that bulbul. Because they did not know that in the garden of their palace there was a sweet bulbul singing such a beautiful and such a lovely song. One day a soldier from Japan comes to the Emperor's palace and says that our Maharaja wants to meet you. That's why he is coming here tomorrow. And the emperor is happy to hear this. The emperor tells his soldiers that arrangements should be made to welcome them and also said that they should be welcomed as if no one has ever done it. According to the emperor's order, the emperor of Japan was given a very warm welcome and many dishes were prepared for him in the hospitality. The emperor of Japan was given a very lovely room to stay. It had all kinds of amenities. The emperor was very happy that the emperor of Japan is liking our system so much. He was taken in the garden and introduced him to his subjects. While leaving from there, he heard the melodious voice of Bulbul. The emperor of Japan fell in love with the melodious voice of Bulbul.

 Then one day the Emperor of Japan sends a letter to the Emperor. So the Emperor says that the letter sent by the Emperor of Japan should be read and heard. The emperor of Japan thanks the emperor and also says that his people and food have won our hearts. Hearing the sweet sound of your garden buzzing, we went to a different world. As soon as Bulbul is mentioned in the letter, Maharaj says who is this Bulbul, whose voice we have not heard. The emperor ordered Bulbul to be called to him.

 The emperor heard Bulbul's voice. So the emperor said that your voice is very sweet, dear little bird. The emperor kept Bulbul in his palace so that he could listen to his sweet voice every day. One day the Emperor of Japan sends a gift to the Emperor. Inside which is a key-operated plastic bulb. When he fills the key, she starts singing a beautiful song. The emperor is very happy to see that gift. Now Maharaj used to hear the sound of the toy bulbul every day. Seeing this, Bulbul felt very bad and she flew away from the palace. And did not come back again. Then one day the toy got damaged. That's why Maharaj told his soldiers that you get it repaired and get it. When the soldiers came back, they told that Maharaj, we could not find any toy fixer in the whole world who could fix this toy. Then Raja realized his mistake that he left his friend for a plastic toy. In the sorrow of Bulbul, the emperor stopped eating and drinking and he started getting very sick day by day. That is why a Vaidya near the village was called and he was given the treatment of the emperor. Then Vaidya said that his cure is only the voice of that bulbul. Because of which he has stopped eating and drinking everything. The soldiers left their city and started looking for Bulbul everywhere. Many days passed but Bulbul was nowhere to be found. And the emperor's health was also deteriorating. Vaidhi said that if Bulbul is not found within a few days, we will lose our king. That is why the soldiers announced all around that whoever finds Bulbul, we will give him 1000 gold coins. One day suddenly Bulbul came back to the king's palace while flying. Everyone saw that Bulbul had returned and she went straight to the window of the emperor's room and sat down. When he saw that the emperor was lying on the bed, he started singing his song. As soon as the melodious voice of Bulbul fell in the ears of the emperor, the emperor stood up and tears started flowing from his eyes. He went to the window of the part and picked up Bulbul in his palm and hugged him. Bulbul was very happy to see this and he started singing and the emperor listened to his song for a long time. Gradually, the emperor's health also improved and he recovered as before. Bulbul became the best friend of the emperor.

Friends, we learn from this story that we should never leave our real friends for fake things. Because only after they are gone do we realize their worth.

When God Himself came to help the child ? जब खुद भगवान आये बच्चे की मदद करने /












एक समय की बात है नारद जी हर रोज भगवान विष्णु के दर्शनों के लिए बैकुंठधाम जाते थे। और भगवान के दर्शन करके वापस आ जाते हैं। यही क्रम रोजाना चलता था। फिर एक दिन नारद जी के मन में यह विचार आया कि कल मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए तो कितना अच्छा होगा। यही विचार करके वह माता लक्ष्मी के पास गए और  उनसे आग्रह किया कि माता क्या आप मुझे भगवान का प्रसाद दिलवा दोगी तो आपकी बड़ी कृपा होगी । मगर माता लक्ष्मी कहती है कि भगवान का प्रसाद मिलना इतना आसान नहीं है। उसके लिए भगवान की आज्ञा अत्यंत आवश्यक है । बिना भगवान की आज्ञा के मैं किसी को भगवान का प्रसाद नहीं दे सकती । फिर नारद जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए 12 वर्षों तक कठिन तपस्या की । मगर भगवान का प्रसाद पाना इतना आसान  नहीं था । इतनी तपस्या करने के बाद भी नारद जी को प्रसाद नहीं मिला । अब वे विचार करने लगे कि मैं ऐसा क्या करूं ? कि मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए । फिर नारद जी ने एक योजना बनाई । नारद जी ने स्त्री का रूप धारण किया। साड़ी पहन कर और श्रृंगार करके रोजाना रात को दो बजे से तीन बजे के बीच भगवान के दरबार में झाडू लगाते थे। पूरी सफाई रात को करके वहाँ से चले जाते थे। लक्ष्मी माता यह सोच में पड़ गई कि रात के तीन बजे भगवान के दरबार में  कौन झाडू लगाता है ? लक्ष्मी जी जानना चाहती थी इतनी सुबह कौन पूरा दरबार साफ करके जाता है। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा । एक दिन लक्ष्मी जी फैसला करती हैं कि जो कोई भी यहां सफाई करता है मैं उसको ढूंढगी। इसलिए वह रात को ही एक पेड़ के पीछे छुप कर खड़ी हो गयी। फिर ठीक  3 बजे नारद जी स्त्री के रूप में साड़ी पहन कर आए और भगवान के दरबार की सफाई करने लगे । नारद जी पूरी लगन के साथ सफाई करने में लगे हुए थे तभी लक्ष्मी जी ने पीछे से आकर नारद जी को पकड़ लिया और पूछने लगी कि कौन हो तुम ? और चुपचाप सफाई क्यों करती हो ? क्या इरादा है तुम्हारा ? इस तरह से माता लक्ष्मी जी ने एक साथ बहुत सारे सवाल पूछ डालें ।  फिर नारद जी अपने असली स्वरूप में आकर माता लक्ष्मी से बोले – माता , मैं नारद हूं ।  भगवान के प्रसाद को पाने की भावना से भगवान की सेवा कर रहा हूं ताकि भगवान प्रसन्न होकर प्रसाद देने की कृपा करें । लक्ष्मी जी बोली आपने इतने वर्षों तक तपस्या की फिर भी आपको प्रसाद नहीं मिला और अब आप प्रसाद पाने के लिए झाड़ू लगा रहे हो । माता बहुत आश्चर्यचकित हो गई । नारद जी फिर से आग्रह करने लगे कि मां आप स्वयं भगवान विष्णु से बात  करें ।  माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास गई और प्रभु से कहा कि – हे! भगवन । नारद जी , आपके प्रसाद लिए बहुत आग्रह कर रहे हैं । कृपा करके आप उनकी विनती स्वीकार करो । फिर भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले कि आप जाकर नारद जी के लिए छप्पन भोग का भोजन तैयार करो  । फिर माता लक्ष्मी जी भगवान की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु जी का प्रसाद तैयार करती है । छप्पन प्रकार का भोजन बनाती है ।  उनका भगवान श्री विष्णु जी को भोग लगाती है । भगवान ने थोड़ा प्रसाद खाकर बाकी का प्रसाद नारद जी को देने के लिए कहा । माता लक्ष्मी जी ने प्रभु की आज्ञा से नारद जी को भगवान का प्रसाद दिया । नारद जी बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए और पूरा प्रसाद खा लिया । फिर तो नारद भगवान का नाम चिंतन करने लगे । नारद जी नारायण – नारायण करते हुए सीधे भगवान शिव के धाम कैलाश चले गए । नारद जी को देखकर भगवान शिव ने पूछा कि क्या बात है नारद ?  आज आप बहुत प्रसन्न हो । नारद जी बताते हैं कि आज मुझे श्री भगवान विष्णु का प्रसाद खाने को मिला है । मैं तो धन्य हो गया । शिव जी बोले – यह तो गलत बात है आपने अकेले ही खा लिया । हमे प्रसाद नही दिया  । नारद जी बोलते हैं प्रसाद खाते हुए, मुझे भगवान के सिवा कुछ याद ही नहीं रहा । इसलिए मैंने सारा प्रसाद खा लिया । तभी भगवान शिव की नजर नारद जी के मुंह पर लगे एक चावल के दाने पर पड़ी । भगवान शिव ने वही चावल का एक दाना ग्रहण कर लिया फिर तो वें भी भगवान विष्णु में ही मगन हो गए और खुशी से नृत्य करने लगे । माता पार्वती ने भगवान शिव को इस तरह से भक्ति भाव में देखा तो उन्होंने पूछा भी कि ऐसा क्या हुआ है ? जो आप इतने अधिक प्रसन्न दिखाई दे रहे हो । कृपा करके बताइए । भगवान शिव ने सारी कथा मां पार्वती को बता दी फिर तो माता पार्वती नाराज हो जाती हैं और भगवान शिव से कहती हैं कि मैं आपकी अर्धाग्नि हूं फिर भी आपने मुझे प्रसाद नहीं दिया और अपने आप ही खा लिया । यदि आपको चावल का एक दाना  मिला था तो आधा मुझे दे देते । माता पार्वती नाराज होकर बैकुंठ धाम चली जाती हैं । और भगवान विष्णु से कहती है कि आपने मुझे अपना प्रसाद नहीं दिया । भगवान शिव और नारद जी ने तो आपका प्रसाद प्राप्त कर लिया है । परंतु मुझे ही नहीं मिला । फिर भगवान विष्णु माता लक्ष्मी जी से कहते हैं कि आप फिर से भोजन बनाइए और मुझे भोग लगाकर फिर माता पार्वती जी को दीजिए । तब माता लक्ष्मी ने ऐसा ही किया । प्रसाद प्राप्त कर माता पार्वती का क्रोध शांत हुआ । भगवान विष्णु ने माता पार्वती जी को वचन दिया कि मैं कलयुग में जगन्नाथ जी के रूप में जगन्नाथपुरी में  विराजमान होऊंगा। । वहां पर मेरा छप्पन प्रकार का भोग लगा करेगा । मेरे भोग लगने के पश्चात आपको सबसे पहले प्रसाद दिया जाएगा । इसलिए आपका मंदिर भी वही उसी प्रांगण में स्थापित होगा । वहां पर आपका नाम माता विमला देवी के नाम से प्रसिद्ध होगा ।  सभी लोग आपकी पूजा करेंगे आपको प्रसाद चढ़ाने के बाद  ही मेरा प्रसाद महाप्रसाद बन जाएगा । उसके बाद ही सब को वितरित किया जाएगा । इस प्रसाद को पाकर सभी लोग धन्य हो जाएंगे । उनके सभी तरह के पापों का अंत हो जाएगा । तो आपने देखा कि भगवान का प्रसाद पाने के लिए देवताओं को भी तप करना पड़ता है और हम सब यह महाप्रसाद भगवान जगन्नाथ पुरी के धाम में प्राप्त कर सकते हैं इस महाप्रसाद की महिमा अपरंपार है ।

When God Himself came to help the child

Once upon a time, Narad ji used to go to Baikunthdham every day to have darshan of Lord Vishnu. And come back after seeing God. This routine went on every day. Then one day this thought came in the mind of Narad ji that tomorrow I will get God's prasad how good it will be. Thinking this, he went to Mata Lakshmi and requested her that mother, if you give me God's prasad, then you will be very pleased. But Mata Lakshmi says that getting the prasad of God is not so easy. God's command is very necessary for that. I cannot give God's prasad to anyone without God's permission. Then Narada did hard penance for 12 years to please the Lord. But getting God's prasad was not so easy. Even after doing so much penance, Narada did not get prasad. Now they started thinking what should I do? that I may get the blessings of God. Then Narad ji made a plan. Narada took the form of a woman. Wearing a sari and making up, he used to sweep the Lord's court every night between two o'clock and three o'clock. After doing complete cleaning at night, they used to leave from there. Lakshmi Mata got into thinking that who sweeps the court of God at three o'clock in the night? Lakshmi ji wanted to know who goes to clean the whole court this morning. This went on for several days. One day Lakshmi ji decides that whoever cleans here, I will find him. So she stood at night hiding behind a tree. Then at exactly 3 o'clock Narad ji came wearing a sari in the form of a woman and started cleaning the court of God. Narad ji was engaged in cleaning with full dedication, then Lakshmi ji came from behind and caught Narad ji and started asking who are you? And why do you keep quiet? what is your intention? In this way Mata Lakshmi ji asked many questions at once. Then Narad ji came in his real form and said to Mother Lakshmi – Mother, I am Narada. I am serving God with the spirit of getting God's prasad so that God may be pleased to give prasad. Lakshmi ji said that you did penance for so many years, yet you did not get the prasad and now you are sweeping to get the prasad. Mother was very surprised. Narad ji again urged that mother herself should talk to Lord Vishnu. Mother Lakshmi went to Lord Vishnu and said to the Lord - O! God . Naradji, you are asking a lot for your prasad. Please accept his request. Then Lord Vishnu smiled and said that you go and prepare fifty-six bhog food for Narada ji. Then Mata Lakshmi ji prepares the offerings of Lord Vishnu after getting the permission of God. Cooks fifty six types of food. They offer bhog to Lord Shri Vishnu ji. After eating some prasad, God asked him to give the rest of the prasad to Narad ji. Mother Lakshmi ji gave God's prasad to Narad ji by the order of the Lord. Narad ji was very happy and ate the whole prasad. Then Narada started contemplating the name of the Lord. Narad ji Narayan - While doing Narayan, went straight to Kailash, the abode of Lord Shiva. Seeing Narad ji, Lord Shiva asked what is the matter Narada? You are very happy today. Narad ji says that today I have got to eat the Prasad of Lord Vishnu. I was blessed. Shiv ji said – This is wrong, you ate alone. We were not given prasad. Narad ji says that while eating prasad, I could not remember anything except God. So I ate all the prasad. Then Lord Shiva's eyes fell on a grain of rice on Narada's mouth. Lord Shiva took a grain of the same rice, then he too became engrossed in Lord Vishnu and started dancing happily. When Mata Parvati saw Lord Shiva in such a devotional spirit, she also asked what has happened? You seem so happy. Please tell me Lord Shiva told the whole story to Mother Parvati, then Mother Parvati gets angry and tells Lord Shiva that I am your half fire, yet you did not give me prasad and ate it on your own. If you had got a grain of rice, you would have given half to me. Mother Parvati gets angry and goes to Baikunth Dham. And tells Lord Vishnu that you have not given me your prasad. Lord Shiva and Narad ji have received your prasad. But I didn't get it. Then Lord Vishnu tells Mata Lakshmi ji that you should prepare food again and after offering me food, then give it to Mother Parvati ji. Then Mother Lakshmi did the same. On receiving the prasad, the anger of Mother Parvati was pacified. Lord Vishnu promised Mata Parvati ji that I would be seated in Jagannathpuri in the form of Jagannath ji in Kali Yuga. , There I will have fifty-six kinds of bhog. Prasad will be given to you first after I enjoy it. Therefore your temple will also be established in the same courtyard. There your name will be famous as Mata Vimala Devi. Everyone will worship you, only after offering you prasad, my prasad will become Mahaprasad. Only then will it be distributed to all. Everyone will be blessed by getting this prasad. All their sins will come to an end. So you have seen that to get the prasad of God, even the deities have to do penance and we all can get this Mahaprasad in the dham of Lord Jagannath Puri. The glory of this Mahaprasad is unmatched.


Why did Narada take the form of a woman? क्यों लिया नारद जी ने स्त्री का रूप ?
















एक समय की बात है नारद जी हर रोज भगवान विष्णु के दर्शनों के लिए बैकुंठधाम जाते थे। और भगवान के दर्शन करके वापस आ जाते हैं। यही क्रम रोजाना चलता था। फिर एक दिन नारद जी के मन में यह विचार आया कि कल मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए तो कितना अच्छा होगा। यही विचार करके वह माता लक्ष्मी के पास गए और  उनसे आग्रह किया कि माता क्या आप मुझे भगवान का प्रसाद दिलवा दोगी तो आपकी बड़ी कृपा होगी । मगर माता लक्ष्मी कहती है कि भगवान का प्रसाद मिलना इतना आसान नहीं है। उसके लिए भगवान की आज्ञा अत्यंत आवश्यक है । बिना भगवान की आज्ञा के मैं किसी को भगवान का प्रसाद नहीं दे सकती । फिर नारद जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए 12 वर्षों तक कठिन तपस्या की । मगर भगवान का प्रसाद पाना इतना आसान  नहीं था । इतनी तपस्या करने के बाद भी नारद जी को प्रसाद नहीं मिला । अब वे विचार करने लगे कि मैं ऐसा क्या करूं ? कि मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए । फिर नारद जी ने एक योजना बनाई । नारद जी ने स्त्री का रूप धारण किया। साड़ी पहन कर और श्रृंगार करके रोजाना रात को दो बजे से तीन बजे के बीच भगवान के दरबार में झाडू लगाते थे। पूरी सफाई रात को करके वहाँ से चले जाते थे। लक्ष्मी माता यह सोच में पड़ गई कि रात के तीन बजे भगवान के दरबार में  कौन झाडू लगाता है ? लक्ष्मी जी जानना चाहती थी इतनी सुबह कौन पूरा दरबार साफ करके जाता है। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा । एक दिन लक्ष्मी जी फैसला करती हैं कि जो कोई भी यहां सफाई करता है मैं उसको ढूंढगी। इसलिए वह रात को ही एक पेड़ के पीछे छुप कर खड़ी हो गयी। फिर ठीक  3 बजे नारद जी स्त्री के रूप में साड़ी पहन कर आए और भगवान के दरबार की सफाई करने लगे । नारद जी पूरी लगन के साथ सफाई करने में लगे हुए थे तभी लक्ष्मी जी ने पीछे से आकर नारद जी को पकड़ लिया और पूछने लगी कि कौन हो तुम ? और चुपचाप सफाई क्यों करती हो ? क्या इरादा है तुम्हारा ? इस तरह से माता लक्ष्मी जी ने एक साथ बहुत सारे सवाल पूछ डालें ।  फिर नारद जी अपने असली स्वरूप में आकर माता लक्ष्मी से बोले – माता , मैं नारद हूं ।  भगवान के प्रसाद को पाने की भावना से भगवान की सेवा कर रहा हूं ताकि भगवान प्रसन्न होकर प्रसाद देने की कृपा करें । लक्ष्मी जी बोली आपने इतने वर्षों तक तपस्या की फिर भी आपको प्रसाद नहीं मिला और अब आप प्रसाद पाने के लिए झाड़ू लगा रहे हो । माता बहुत आश्चर्यचकित हो गई । नारद जी फिर से आग्रह करने लगे कि मां आप स्वयं भगवान विष्णु से बात  करें ।  माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास गई और प्रभु से कहा कि – हे! भगवन । नारद जी , आपके प्रसाद लिए बहुत आग्रह कर रहे हैं । कृपा करके आप उनकी विनती स्वीकार करो । फिर भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले कि आप जाकर नारद जी के लिए छप्पन भोग का भोजन तैयार करो  । फिर माता लक्ष्मी जी भगवान की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु जी का प्रसाद तैयार करती है । छप्पन प्रकार का भोजन बनाती है ।  उनका भगवान श्री विष्णु जी को भोग लगाती है । भगवान ने थोड़ा प्रसाद खाकर बाकी का प्रसाद नारद जी को देने के लिए कहा । माता लक्ष्मी जी ने प्रभु की आज्ञा से नारद जी को भगवान का प्रसाद दिया । नारद जी बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए और पूरा प्रसाद खा लिया । फिर तो नारद भगवान का नाम चिंतन करने लगे । नारद जी नारायण – नारायण करते हुए सीधे भगवान शिव के धाम कैलाश चले गए । नारद जी को देखकर भगवान शिव ने पूछा कि क्या बात है नारद ?  आज आप बहुत प्रसन्न हो । नारद जी बताते हैं कि आज मुझे श्री भगवान विष्णु का प्रसाद खाने को मिला है । मैं तो धन्य हो गया । शिव जी बोले – यह तो गलत बात है आपने अकेले ही खा लिया । हमे प्रसाद नही दिया  । नारद जी बोलते हैं प्रसाद खाते हुए, मुझे भगवान के सिवा कुछ याद ही नहीं रहा । इसलिए मैंने सारा प्रसाद खा लिया । तभी भगवान शिव की नजर नारद जी के मुंह पर लगे एक चावल के दाने पर पड़ी । भगवान शिव ने वही चावल का एक दाना ग्रहण कर लिया फिर तो वें भी भगवान विष्णु में ही मगन हो गए और खुशी से नृत्य करने लगे । माता पार्वती ने भगवान शिव को इस तरह से भक्ति भाव में देखा तो उन्होंने पूछा भी कि ऐसा क्या हुआ है ? जो आप इतने अधिक प्रसन्न दिखाई दे रहे हो । कृपा करके बताइए । भगवान शिव ने सारी कथा मां पार्वती को बता दी फिर तो माता पार्वती नाराज हो जाती हैं और भगवान शिव से कहती हैं कि मैं आपकी अर्धाग्नि हूं फिर भी आपने मुझे प्रसाद नहीं दिया और अपने आप ही खा लिया । यदि आपको चावल का एक दाना  मिला था तो आधा मुझे दे देते । माता पार्वती नाराज होकर बैकुंठ धाम चली जाती हैं । और भगवान विष्णु से कहती है कि आपने मुझे अपना प्रसाद नहीं दिया । भगवान शिव और नारद जी ने तो आपका प्रसाद प्राप्त कर लिया है । परंतु मुझे ही नहीं मिला । फिर भगवान विष्णु माता लक्ष्मी जी से कहते हैं कि आप फिर से भोजन बनाइए और मुझे भोग लगाकर फिर माता पार्वती जी को दीजिए । तब माता लक्ष्मी ने ऐसा ही किया । प्रसाद प्राप्त कर माता पार्वती का क्रोध शांत हुआ । भगवान विष्णु ने माता पार्वती जी को वचन दिया कि मैं कलयुग में जगन्नाथ जी के रूप में जगन्नाथपुरी में  विराजमान होऊंगा। । वहां पर मेरा छप्पन प्रकार का भोग लगा करेगा । मेरे भोग लगने के पश्चात आपको सबसे पहले प्रसाद दिया जाएगा । इसलिए आपका मंदिर भी वही उसी प्रांगण में स्थापित होगा । वहां पर आपका नाम माता विमला देवी के नाम से प्रसिद्ध होगा ।  सभी लोग आपकी पूजा करेंगे आपको प्रसाद चढ़ाने के बाद  ही मेरा प्रसाद महाप्रसाद बन जाएगा । उसके बाद ही सब को वितरित किया जाएगा । इस प्रसाद को पाकर सभी लोग धन्य हो जाएंगे । उनके सभी तरह के पापों का अंत हो जाएगा । तो आपने देखा कि भगवान का प्रसाद पाने के लिए देवताओं को भी तप करना पड़ता है और हम सब यह महाप्रसाद भगवान जगन्नाथ पुरी के धाम में प्राप्त कर सकते हैं इस महाप्रसाद की महिमा अपरंपार है ।


Why did Narada take the form of a woman?


Once upon a time, Narad ji used to go to Baikunthdham every day to have darshan of Lord Vishnu. And come back after seeing God. This routine went on every day. Then one day this thought came in the mind of Narad ji that tomorrow I will get God's prasad how good it will be. Thinking this, he went to Mata Lakshmi and requested her that mother, if you give me God's prasad, then you will be very pleased. But Mata Lakshmi says that getting the prasad of God is not so easy. God's command is very necessary for that. I cannot give God's prasad to anyone without God's permission. Then Narada did hard penance for 12 years to please the Lord. But getting God's prasad was not so easy. Even after doing so much penance, Narada did not get prasad. Now they started thinking what should I do? that I may get the blessings of God. Then Narad ji made a plan. Narada took the form of a woman. Wearing a sari and making up, he used to sweep the Lord's court every night between two o'clock and three o'clock. After doing complete cleaning at night, they used to leave from there. Lakshmi Mata got into thinking that who sweeps the court of God at three o'clock in the night? Lakshmi ji wanted to know who goes to clean the whole court this morning. This went on for several days. One day Lakshmi ji decides that whoever cleans here, I will find him. So she stood at night hiding behind a tree. Then at exactly 3 o'clock Narad ji came wearing a sari in the form of a woman and started cleaning the court of God. Narad ji was engaged in cleaning with full dedication, then Lakshmi ji came from behind and caught Narad ji and started asking who are you? And why do you keep quiet? what is your intention? In this way Mata Lakshmi ji asked many questions at once. Then Narad ji came in his real form and said to Mother Lakshmi – Mother, I am Narada. I am serving God with the spirit of getting God's prasad so that God may be pleased to give prasad. Lakshmi ji said that you did penance for so many years, yet you did not get the prasad and now you are sweeping to get the prasad. Mother was very surprised. Narad ji again urged that mother herself should talk to Lord Vishnu. Mother Lakshmi went to Lord Vishnu and said to the Lord - O! God . Naradji, you are asking a lot for your prasad. Please accept his request. Then Lord Vishnu smiled and said that you go and prepare fifty-six bhog food for Narada ji. Then Mata Lakshmi ji prepares the offerings of Lord Vishnu after getting the permission of God. Cooks fifty six types of food. They offer bhog to Lord Shri Vishnu ji. After eating some prasad, God asked him to give the rest of the prasad to Narad ji. Mother Lakshmi ji gave God's prasad to Narad ji by the order of the Lord. Narad ji was very happy and ate the whole prasad. Then Narada started contemplating the name of the Lord. Narad ji Narayan - While doing Narayan, went straight to Kailash, the abode of Lord Shiva. Seeing Narad ji, Lord Shiva asked what is the matter Narada? You are very happy today. Narad ji says that today I have got to eat the Prasad of Lord Vishnu. I was blessed. Shiv ji said – This is wrong, you ate alone. We were not given prasad. Narad ji says that while eating prasad, I could not remember anything except God. So I ate all the prasad. Then Lord Shiva's eyes fell on a grain of rice on Narada's mouth. Lord Shiva took a grain of the same rice, then he too became engrossed in Lord Vishnu and started dancing happily. When Mata Parvati saw Lord Shiva in such a devotional spirit, she also asked what has happened? You seem so happy. Please tell me Lord Shiva told the whole story to Mother Parvati, then Mother Parvati gets angry and tells Lord Shiva that I am your half fire, yet you did not give me prasad and ate it on your own. If you had got a grain of rice, you would have given half to me. Mother Parvati gets angry and goes to Baikunth Dham. And tells Lord Vishnu that you have not given me your prasad. Lord Shiva and Narad ji have received your prasad. But I didn't get it. Then Lord Vishnu tells Mata Lakshmi ji that you should prepare food again and after offering me food, then give it to Mother Parvati ji. Then Mother Lakshmi did the same. On receiving the prasad, the anger of Mother Parvati was pacified. Lord Vishnu promised Mata Parvati ji that I would be seated in Jagannathpuri in the form of Jagannath ji in Kali Yuga. , There I will have fifty-six kinds of bhog. Prasad will be given to you first after I enjoy it. Therefore your temple will also be established in the same courtyard. There your name will be famous as Mata Vimala Devi. Everyone will worship you, only after offering you prasad, my prasad will become Mahaprasad. Only then will it be distributed to all. Everyone will be blessed by getting this prasad. All their sins will come to an end. So you have seen that to get the prasad of God, even the deities have to do penance and we all can get this Mahaprasad in the dham of Lord Jagannath Puri. The glory of this Mahaprasad is unmatched.

कैसे पहुंचे भगवान जगन्नाथ वृंदावन ? Bhagvan jagannath | How did Lord Jagannath reach Vrindavan?























एक समय की बात है कहा जाता है एक बार श्री जगन्नाथ जी ने वृंदावन में रहने वाले अपने भक्त  श्री हरिदास जी को स्वपन में दर्शन देते हुए कहा – भक्त हरिदास उठो । श्री हरिदास जी उठ कर बैठ गए । परंतु उनके नेत्र बंद थे । क्योंकि वह नींद में थे । भगवान जगन्नाथ जी ने कहा–  भक्त हरिदास,  तुम यहां वृंदावन में बहुत समय से मेरी भक्ति करते आ रहे हो । हमारी इच्छा है कि आप जगन्नाथ पुरी दर्शन करने आए ।   वहां पर इस वर्ष मेरा विग्रह परिवर्तित किया जाएगा जो  36 वर्षों में एक बार परिवर्तित किया जाता है ।जगन्नाथ पुरी का यही नियम है 36 वर्षों  में एक समय पर श्री जगन्नाथ जी की मूर्तियों का विग्रह परिवर्तित करने उन्हे नए विग्रह में स्थापित किया जाता है । तब भगवान ने आदेश दिया यह समय आने वाला है । आषाढ़ का महीना है आप वहां पहुंचे । आप वहां पहुंचकर मेरा पुराना विग्रह है जो समुंदर में बहाया जाता है उसे इस बार आप अपने साथ वृंदावन लेकर आइएगा ।क्योंकि मैं भी वृंदावन रहकर भक्तों के साथ जीवन यापन करना चाहता हूं ।भगवान यह कहकर स्वपन में ही अंतर्ध्यान हो गए । अगली सुबह भगवान का आदेश मानकर श्री हरिदास जी भक्तों को साथ लेकर यात्रा पर निकल गए । धीरे-धीरे भजन सिमरन करते हुए श्री हरिदास जी वृंदावन से जगन्नाथपुरी पहुंचे । जगन्नाथपुरी में सबको पता चला हरिदास जी आए हैं तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । श्री हरिदास जी ने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए । अगले दिन भगवान जगन्नाथ के विग्रह को परिवर्तित करना था । तो भक्त हरिदास ने एक पंडित जी से पूछा कि जो पंडित जी विग्रह को परिवर्तित करते हैं मुझे उनसे मिलना है । पंडित ने कहा यहां तो एक बड़े पुजारी हैं वह विग्रह को परिवर्तित करते हैं । उस समय सब का प्रवेश मंदिर में  वर्जित है । आप भी अंदर नहीं जा सकते हैं । श्री हरिदास जी ने कहा मुझे अंदर नहीं जाना है , मुझे तो भगवान के श्री विग्रह को अपने साथ लेकर जाना है ।उनकी यह बात सुनकर वह पंडित कहने लगा अरे संत जी यह क्या कहते हो । यह तो अपराध है यहां जो विग्रह बाहर निकाला जाता है उसे समुद्र में बहा दिया जाता है । उसे समुंदर देवता अपने साथ अपने स्थान पर लेकर जाते हैं । आप ऐसी बात किसी से मत कह देना ।अन्यथा लोग आप पर क्रोधित हो जाएंगे । अब भक्त जी को तो भगवान की आज्ञा हुई थी वह उस बड़े पंडित के पास पहुंचे उससे भी वही बात बताई।वह पंडित भी बड़ा क्रोधित होकर कहने लगा ।यह कैसी अनाप-शनाप बातें करते हो भगवान का विग्रह अपने साथ नहीं लेकर जा सकते हो । तब एक सेवक ने श्री हरिदास जी को कहा ये पंडित जी आपकी बात नहीं समझेंगे । आप जगन्नाथ पुरी के राजा के पास जाकर सारी बात बताइए । अब हरिदास जी भक्तों के साथ राजा के महल में पहुंचे । राजा ने उठकर श्री हरिदास जी को सम्मान देते हुए प्रणाम किया ।राजा का प्रणाम स्वीकार कर भक्त हरिदास जी कहने लगे हे राजन , आप जगन्नाथपुरी के सेवक हैं । मुझे भगवान का आदेश प्राप्त हुआ है कि इस बार जो भगवान जगन्नाथ जी का श्री विग्रह परिवर्तित किया जाएगा । तो पुराना विग्रह को  मैं अपने साथ वृंदावन धाम लेकर जाऊं । उनकी यह बात सुनकर राजा को क्रोध आ गया । राजा कहने लगा यह कैसी बातें करते हैं ।अनादि काल से यह परंपरा चलती आ रही है जो भगवान का पुराना विग्रह है उसे समुद्र में प्रवाहित किया जाता है । किसी व्यक्ति विशेष को देने का अधिकार हमारे पास नहीं है ।हम तो उसी परंपरा का पालन करते आ रहे हैं ।इस प्रकार राजा ने भक्त हरिदास को  पुराना विग्रह देने से मना कर दिया । भक्त हरिदास अपने भक्तों के साथ अन्न और जल को त्याग कर समुद्र किनारे बैठ गए । वें परमात्मा को उलाहना देते हुए कहने लगे – हे प्रभु, विचित्र लीला करते हो मुझे यहां बुलाया है ,मेरे साथ चलने के लिए और अब यहां से चलने को तैयार नहीं हो । आपके मन में इच्छा है आप वृंदावन में निवास करना चाहते हैं और मैं आपको लेने आया हूं । तो यहां राजा आपका विग्रह देने को तैयार नहीं है । आपकी जैसी इच्छा हो वैसा ही किया जाएगा ।मैं तो क्या कर सकता हूं । तो कुछ भक्तों ने कहा महाराज आप आज्ञा दे तो हम विग्रह की चोरी कर ले । भक्त हरिदास जी कहने लगे अरे अरे, ऐसा पाप ना करना भगवान चलने को तैयार हैं तो हम चोरी क्यों करें ।जब भगवान की इच्छा होगी तब चलेंगे ।  रात्रि के समय जब राजा अपने शयनकक्ष में आराम कर रहा था तब परमात्मा की एक आवाज सुनाई दी ।परमात्मा ने राजा को उठाते हुए कहा राजन, तुमने बड़ा अपराध किया है ।मेरे भक्त पर क्रोध किया है ।वह तो मेरी आज्ञा से मेरा श्री विग्रह लेने के लिए आए थे ।तुमने उन्हें नाराज करके बड़ा अपराध किया है ।भगवान की यह बात सुनकर राजा कहने लगा भगवन मुझे आज्ञा दो ,मुझे क्या करना चाहिए ? जैसे आप कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं । मैं तो बहुत समय से यह परंपरा देखता आ रहा हूं जो पुराना विग्रह है उसे समुंदर में प्रवाहित किया जाता है मैं आपकी आज्ञा के बिना श्री हरिदास जी को कैसे उसे दे सकता था । तब भगवान ने प्रसन्न होते हुए कहा हे राजन वह मेरा ही भक्त है मेरी आज्ञा से ही वृंदावन से चलकर यहां तक आया है ।आप अच्छी सी व्यवस्था कर मेरे श्री विग्रह को रथ में बैठा दो । जिससे वह आराम से मेरे विग्रह को लेकर वृंदावन जा सके ।अब भगवान की आज्ञा से प्रातः काल राजा ने मंत्रियों को आदेश दिया । जल्दी से भक्त हरिदास जी को खोज कर मेरे राज महल में लेकर आओ । मैं उनसे मिलना चाहता हूं ।अब राजा की आज्ञा मानकर राजा के मंत्री भक्त हरिदास जी को खोजने के लिए सारे शहर में निकल गए । किसी ने आकर बताया कि  भक्त हरिदास जी समुंदर के किनारे बैठे हैं । आप स्वयं चलकर उनका सम्मान कीजिए क्योंकि आप को भगवान का आदेश प्राप्त हुआ है ।कहा जाता है भगवान की आज्ञा पाकर और संत जी की खबर सुनकर राजा स्वयं समुंदर के किनारे आए ।भक्त हरिदास जी को देखकर जगन्नाथ पुरी के राजा प्रसन्न हो गए ।उन्हें अपना स्वपन सुनाते हुए  कहा हरिदास जी कल रात्रि के समय मुझे भगवान का आदेश हुआ है । वे अपनी इच्छा से आपके साथ वृंदावन चलना चाहते हैं ।आप जैसा कहेंगे वैसी व्यवस्था आपको करके दी जाएगी ।यह बात सुनकर भक्त हरिदास जी प्रसन्न हो गए उनकी आंखों से आंसू बहने लगे । भक्त जी को रोता हुआ देखकर राजा कहने लगा महाराज मुझसे कोई अपराध हुआ है क्या, आप रो क्यों रहे हो ? तब हरिदास जी कहने लगे , मैं भगवान की करुणा पर रो रहा हूं वे कितने दयालु हैं , मेरे साथ चलने के लिए उन्होंने रात्रि मे जाकर तुम्हें आदेश दिया है । अब तो सारे जगन्नाथपुरी में भक्त हरिदास जी की जय जयकार होने लगी ।जब समय आया , मूर्तियों का परिवर्तन किया गया जो पुराना श्री विग्रह था वो जाकर श्री हरिदास जी को सोपते हुए ,राजा ने कहा – महाराज यह लीजिए जगन्नाथ जी, इन्हें संभाल कर आप अपने साथ पर लेकर जाइएगा । कहा जाता है श्री हरिदास जी अपने साथ भगवान जगन्नाथ जी को  रथ में बैठा कर जैसे ही वहां से प्रस्थान करने लगे , वैसे तो जगन्नाथपुरी से वृंदावन आने में कम से कम 8 महीने लग जाते है पर परमात्मा ने एक विचित्र लीला की , जैसे ही रात गुजरी , रात्रि समाप्त होते ही प्रातः काल  सारे भक्त विग्रह के साथ श्री हरिदास जी के समीप वृंदावन में उपस्थित थे । यह देखकर सब हैरान हो गए ।हम एक रात्रि में जगन्नाथ पुरी से वृंदावन कैसे पहुंच गए ? श्री हरिदास जी ने कहा यह सब परमात्मा की लीला है उनकी लीला से यह सब हो पा रहा है । कहा जाता है भगवान जगन्नाथ के आदेश से श्री हरिदास जी ने यमुना नदी के निकट जगन्नाथ घाट पर भगवान श्री जगन्नाथ का एक विशाल मंदिर स्थापित किया । अभी तक वह मंदिर वृंदावन में स्थापित है वहां पर जो श्री विग्रह स्थापित किए गए हैं जिनका दर्शन हमें प्राप्त होता है भगवान स्वयं जगन्नाथ पुरी से वृंदावन आए थे ।


How did Lord Jagannath reach Vrindavan?


Once upon a time, it is said that Shri Jagannath ji, while giving darshan to his devotee Shri Haridas ji living in Vrindavan, said in a dream – Arise devotee Haridas. Shri Haridas ji got up and sat down. But his eyes were closed. Because he was sleeping. Lord Jagannath ji said – Bhakta Haridas, you have been doing my devotion here in Vrindavan for a long time. We wish that you come to visit Jagannath Puri. There my Deity will be changed this year which is changed once in 36 years. This is the rule of Jagannath Puri. Once in 36 years, the idols of Shri Jagannath ji are converted into a new Deity. Then God ordered, this time is about to come. It is the month of Ashadh, you have reached there. After reaching there, my old deity which is shed in the sea, this time you will bring it with you to Vrindavan. Because I also want to live in Vrindavan and live with the devotees. The Lord lost his mind by saying this. The next morning, following the orders of the Lord, Shri Haridas ji went on a journey with the devotees. Shri Haridas ji reached Jagannathpuri from Vrindavan while slowly performing Bhajan Simran. When everyone came to know that Haridas ji has come to Jagannathpuri, his happiness knew no bounds. Shri Haridas ji had darshan of Lord Jagannath. The next day the Deity of Lord Jagannath was to be changed. So the devotee Haridas asked a Panditji that I want to meet the Panditji who converts the Deity. The Pandit said that there is a big priest here, he converts the Deity. At that time everyone's entry is prohibited in the temple. You can't even go inside. Shri Haridas ji said that I do not have to go inside, I have to take the Deity of God with me. Hearing this, the pundit started saying hey saint, what do you say. It is a crime that the Deity which is taken out here is thrown into the sea. The sea gods take him with them to their place. Do not tell such a thing to anyone. Otherwise people will get angry with you. Now the devotee had the permission of God, he reached to that big pundit and told the same thing to him. That pundit also got very angry and started saying. . Then a servant said to Shri Haridas ji, this Pandit ji will not understand your point. You go to the Raja of Jagannath Puri and tell the whole thing. Now Haridas ji reached the king's palace with the devotees. The king got up and paid his respects to Shri Haridas ji. After accepting the king's salute, the devotee Haridas ji started saying, O Rajan, you are the servant of Jagannathpuri. I have received God's order that this time the deity of Lord Jagannath ji will be changed. So let me take the old Deity with me to the abode of Vrindavan. Hearing this, the king got angry. The king started saying how do they talk. This tradition has been going on since time immemorial, which is the old Deity of God, it is flown in the sea. We do not have the right to give to any particular person. We have been following the same tradition. Thus the king refused to give the old deity to the devotee Haridas. Devotee Haridas, along with his devotees, gave up food and water and sat on the sea shore. He started blaming God and said - Oh Lord, you have called me here, doing strange leela, to go with me and now you are not ready to walk from here. There is a desire in your mind that you want to reside in Vrindavan and I have come to take you. So here the king is not ready to give your grace. It will be done as you wish. What can I do? So some devotees said, Maharaj, if you give permission, then we should steal the Deity. Devotee Haridas ji started saying oh hey, God is ready to walk not to commit such a sin, then why should we steal. When God wills then we will walk. During the night, when the king was resting in his bedroom, a voice of God was heard. God raised the king and said, Rajan, you have committed a great crime. You have angered my devotee. That is my deity by my orders. Came to take them. You have committed a big crime by making them angry. Hearing this, the king started saying God, give me orders, what should I do? I am ready to do as you say. I have been seeing this tradition for a long time, which is an old deity, it is flown in the sea, how could I give it to Shri Haridas ji without your permission. Then God was pleased and said, O Rajan, he is my devotee and has come here from Vrindavan by my permission. Make good arrangements and put my Shri Deity in the chariot. So that he can comfortably take my Deity to Vrindavan. Quickly find the devotee Haridas ji and bring him to my palace. I want to meet him. Now obeying the orders of the king, the ministers of the king went out all over the city to find Bhakta Haridas ji. Someone came and told that the devotee Haridas ji is sitting by the seashore. Walk yourself and respect them because you have received the orders of God. It is said that after receiving the orders of God and hearing the news of the saint, the king himself came to the seashore. Seeing the devotee Haridas ji, the king of Jagannath Puri was pleased. While narrating his dream, said Haridas ji last night At the time of death I have got the order of God. They want to go to Vrindavan with you of their own free will. As you say, such arrangements will be given to you. Hearing this, Bhakta Haridas ji was pleased, tears started flowing from his eyes. Seeing the devotee crying, the king started saying, 'Maharaj, have I committed any crime, why are you crying? Then Haridas ji started saying, I am crying at the mercy of God, how merciful he is, he has ordered you to go with me in the night. Now the whole Jagannathpuri started chanting the praises of the devotee Haridas. You will take it with you. It is said that Shri Haridas ji took Lord Jagannath ji with him in his chariot and as soon as he started departing from there, it takes at least 8 months to reach Vrindavan from Jagannathpuri, but God did a strange Leela, as soon as the night As soon as the night ended, in the morning all the devotees were present in Vrindavan near Shri Haridas ji with Deity. Everyone was surprised to see this. How did we reach Vrindavan from Jagannath Puri in one night? Shri Haridas ji said that all this is the leela of God, all this is being done by his leela. It is said that by order of Lord Jagannath, Shri Haridas ji established a huge temple of Lord Shri Jagannath at Jagannath Ghat near river Yamuna. Till now that temple is established in Vrindavan, there the Shri Vigrahas have been established, whose vision we get, Lord Jagannath himself came to Vrindavan from Puri.