langde bhikhari ki badduaa | लंगड़े भिखारी की बद्दुआ |

 



















एक गरीब भिखारी था । वह हर रोज भीख मांगता था और जो भी पैसे या खाना मिलता  वह उसे अपनी झोपड़ी में  ले जाता और अपनी पत्नी के साथ बांटकर खाता था । उस भिखारी की कोई संतान नहीं थी । भिखारी की पत्नी बीमार होने की वजह से एक टूटी हुई खाट पर ही पड़ी रहती थी ।एक दिन की बात है वह भिखारी  एक अमीर व्यक्ति के घर के दरवाजे पर जाकर भीख मांगता है । तो वह अमीर व्यक्ति उस भिखारी को गालियां देता है और बोलता है कि – जाओ यहां से, मेरे पास तुम्हें देने के लिए फालतू पैसे नहीं है । तुम यहां कमा कर नहीं रख गए हो ,जो मैं तुम्हें भीख दूं । और कभी-कभी वह अमीर आदमी उस भिखारी को धक्का भी दे देता । मगर वह गरीब भिखारी बस इतना ही कहता कि भगवान तुम्हारे पापों को क्षमा करें । और वहां से चला जाता । दूसरे दिन भी वह भिखारी उस अमीर व्यक्ति के घर के दरवाजे पर जाकर भीख मांगता है ।  उस दिन उस अमीर व्यक्ति का अपनी पत्नी से झगड़ा हो जाता है और वह उस कारण बहुत गुस्से में होता है । जब वह भिखारी उससे भीख मांगता है तो वह गुस्से में आकर उस भिखारी का सिर एक पत्थर से फोड़ देता है । उस भिखारी के सिर से खून निकलने लगता है ।  मगर तब भी वह भिखारी इतना ही बोला कि भगवान तुम्हारे पापों को क्षमा करें । और आगे चला जाता है । उस अमीर व्यक्ति का जब गुस्सा कम हुआ तो वह सोचने लगा कि मैंने उस भिखारी को पत्थर से मारा फिर भी उसने मुझे कुछ भी ना कह कर मेरे लिए भगवान से दुआ मांगी । आखिर इस भिखारी के अंदर इतना संतोष कैसे है ?  मुझे यह सब जानना होगा । उसके अंदर यह सब जानने की  उत्सुकता बढ़ गई । फिर वह अमीर व्यक्ति उस भिखारी को ढूंढता ढूंढता फिरता है । उसे वह भिखारी एक घर के सामने भीख मांगता दिखाई देता है । वह अमीर आदमी उस भिखारी का पीछा करता है । वह भिखारी जहां जहां जाता वहां वहां वह अमीर व्यक्ति भी जाने लगा ।तब वह अमीर व्यक्ति देखता है कि कोई उस भिखारी को गालियां देता और कुछ लोग उस भिखारी को जलील करते । मगर भिखारी उन सब को इतना ही कहता कि भगवान तुम्हारे पापों को क्षमा करें । भिखारी जब अपनी झोपड़ी में वापस लौट रहा था । वह अमीर व्यक्ति भी उसके पीछे पीछे जा रहा था । भिखारी ने जैसे ही अपनी झोपड़ी में प्रवेश किया तो उसकी बीमार पत्नी उठ खड़ी हुई । उसका भीख का कटोरा देखने लगी तो उस  कटोरे में केवल एक ही रोटी थी । तब भिखारी की पत्नी बोली कि बस एक ही रोटी। और आपके सिर पर यह खून कैसे निकल रहा है ? आपको यह चोट कैसे लगी ?  तब भिखारी बोला कि आज के लिए एक रोटी ही है । सब ने मुझे बहुत गालियां दी और पत्थर मारे जिसकी वजह से यह खून निकला  है । यह सब हमारे पापों का फल है । तुम्हें याद है कि कुछ साल पहले हम भी अमीर हुआ करते थे । हमारे पास बहुत सारी धन दौलत थी । उस धन दौलत पर हमें बहुत अभिमान था । और वह लंगड़ा भिखारी जिसे हम बहुत परेशान करते थे । जब वह हमारे घर के दरवाजे पर भीख मांगने आता था तो हम उसे कितना सुनाते थे और ना ही उसे भीख देते थे । और तो और उसकी लाठी छीन कर उसको नीचे गिरा दिया करते थे । वो जमीन पर पड़ा हुआ कहता था कि मेरी लाठी मुझे दे दो , मैं इसके बिना चल नहीं पाऊंगा । लेकिन हम उसे उसकी लाठी नहीं देते थे और उसे ऐसा ही पड़ा हुआ देखकर खूब हंसते थे । अपने घर के कुत्तों को उसके पीछे छोड़ देते थे । एक बार तो हमने उसके भीख का कटोरा भी फेंक दिया था ।तब वो कहता था कि तुम्हारे पापों का हिसाब भगवान करेगा । मुझे लगता है कि हमें उसे लंगड़े भिखारी की बद्दुआ लग गई है और अब भगवान हमारे पापों का हिसाब कर रहा है । हमारी फैक्ट्री में जो आग लगी थी लगता है वह उस लंगड़े भिखारी की ही बद्दुआ थी । भिखारी बोला इसलिए मैं कभी भी किसी को बद्दुआ नहीं देता चाहे लोग मुझे कितनी भी गालियां दे या मेरा अपमान करें ।मगर मैं सब को दुआ ही देता रहूंगा ।क्योंकि मैं यह नहीं चाहता कि कोई और भी मेरे जैसे इतने बुरे दिन देखे ।मेरे साथ गलत करने वालों को भी मैं दुआ देता रहूंगा क्योंकि उनको यह मालूम ही नहीं होता कि वे कोई पाप कर रहे हैं ।जैसे हमने किया था। यह बातें वह अमीर व्यक्ति झोपड़ी के बाहर खड़ा होकर सुन रहा था । उसे अब सारी बातें समझ में आ गई ।भिखारी की पत्नी ने जो रोटी भीख में मिली थी वह आधी आधी कर दी और दोनों पति-पत्नी उस आधी –आधी रोटी को खा कर सो गए। अगले दिन वह भिखारी उसी अमीर व्यक्ति के घर के दरवाजे पर जाकर भीख मांगने लगता है ।तब अमीर व्यक्ति ने उसे बहुत सारा खाना दिया और कुछ पैसे भी दिए । भिखारी ने उसे दुआ दी और चला गया ।


There was a poor beggar. He used to beg everyday and whatever money or food he got, he would take it to his hut and share it with his wife. The beggar had no children. The beggar's wife used to be lying on a broken cot due to illness. It is a matter of one day that the beggar goes to the door of a rich man's house and begs. So that rich person abuses that beggar and says - go from here, I don't have extra money to give you. You have not earned and kept here, which I should beg you. And sometimes that rich man would even push that beggar. But that poor beggar would only say that God forgive your sins. and leaves from there. On the second day also the beggar goes to the door of the rich person's house and begs. That day the rich man got into a fight with his wife and he was very angry because of that. When that beggar begs him, he gets angry and breaks the head of that beggar with a stone. Blood starts pouring out of that beggar's head. But even then the beggar only said that God forgive your sins. And goes on. When the anger of that rich person subsided, he started thinking that I hit that beggar with a stone, yet he did not say anything to me and prayed to God for me. After all, how is there so much contentment inside this beggar? I need to know all this. The curiosity to know all this increased in him. Then that rich person goes on searching for that beggar. He sees that beggar begging in front of a house. The rich man follows the beggar. Wherever that beggar went, that rich person also started going there. Then that rich person sees that someone abuses that beggar and some people insult that beggar. But the beggar tells them all only that God forgive your sins. When the beggar was returning to his hut. That rich man was also following him. As the beggar entered his hut, his ailing wife stood up. When she started looking at his begging bowl, there was only one roti in that bowl. Then the beggar's wife said that only one bread. And how is this blood coming out on your head? How did you get this injury? Then the beggar said that there is only one roti for today. Everyone abused me a lot and threw stones because of which this blood has come out. All this is the result of our sins. You remember we used to be rich a few years back too. We had lots of wealth. We were very proud of that wealth. And that lame beggar whom we used to harass a lot. When he used to come to the door of our house to beg, we used to tell him how much and neither did we give him alms. And he used to snatch his sticks and put him down. He used to lie on the ground saying that give me my stick, I will not be able to walk without it. But we did not give him his stick and we used to laugh a lot seeing him lying like this. He used to leave the dogs of his house behind him. Once we even threw his begging bowl. Then he used to say that God will pay for your sins. I think we have got him the bad name of a lame beggar and now God is accounting for our sins. The fire that broke out in our factory seems to have been that lame beggar's gun. The beggar said that's why I never bully anyone, no matter how much people abuse me or insult me. But I will keep praying to everyone. Because I do not want anyone else to see such bad days like me. I will keep praying to those who do wrong because they do not even know that they are committing any sin. Like we did. The rich man was listening to these things standing outside the hut. He understood everything now. The beggar's wife halved the bread that she had received in begging, and both the husband and wife slept after eating that half-and-half. The next day the beggar starts begging at the door of the same rich person's house. Then the rich person gave him a lot of food and also some money. The beggar prayed to him and left.

किसने दिया यमलोक के धर्मराज को श्राप ? विदुर की सच्ची कहानी ,





















 


बहुत पहले की बात है ऋषि मांडवय नाम के बहुत ही उच्च तपस्वी थे । उन्होंने अपनी तपस्या के बल पर बहुत से पुण्य अर्जित कर लिए थे । एक दिन की बात है ऋषि मांडवय अपनी कुटिया में बैठे तपस्या कर रहे थे । वे भगवान के ध्यान में लीन थे ।तभी तीन चोर जो कि व्यापारी की वेशभूषा में थे ,उनके पास दौड़ते हुए आते हैं और कहते हैं कि – हे ब्राह्मण देव ! हमें बचा लीजिए , हमारे पीछे कुछ डाकू पड़े हुए हैं जो हमारी तरह ही व्यापारी का वेश बनाए हुए हैं । वह हमसे हमारा धन लूटना चाहते हैं । उन तीनों चोरों के पास बहुत सारा धन था । तीनों चोर महर्षि से झूठ बोल रहे थे । उनके पीछे वास्तव में डाकू नहीं बल्कि राजा के सिपाही व्यापारी वेशभूषा में थे। जो उन्हें पकड़ने के लिए आ रहे थे ।महर्षि मांडवय ने उन तीनों चोरों की बात को सच समझ कर और उन्हें व्यापारी समझ कर अपनी कुटिया में छिपा लिया । तीनों चोर चोरी के धन को ऋषि मांडवय जी की कुटिया में रखकर भाग गए । जब व्यापारियों का वेश धारण किए हुए राजा के सिपाही महर्षि मांडवय की कुटिया के समीप पहुंचे तो उन्होंने उन चोरों को वहां से भागते हुए देख लिया ।  वे ऋषि मांडवय के पास आए और कहने लगे कि ब्राह्मण देव आपने उन चोरों को क्यों भगा दिया ? ऋषि मांडवय बोले कि वे चोर नहीं थे , वे तो अपने आप को बड़ा व्यापारी बता रहे थे और तुम लोगों को डाकू बताकर तुम से बचना चाहते थे । बचने के लिए मेरी कुटिया में शरण मांगने आए थे । राजा के सिपाही बोले कि नहीं ब्राह्मण देव वे डाकू थे ,जो राहगीरों का सामान लूटते थे ।राजा के आदेश अनुसार हमने व्यापारी का वेश बनाया और उन चोरों से सामना किया । हमने भी व्यापारियों का वेश बनाकर उन्हें पकड़ने की योजना बनाई और जब हम उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे भाग रहे थे तब वे आपकी कुटिया में आ गए । ऋषि मांडवय नहीं समझ पाए कि सच कौन बोल रहा है ।राजा के सिपाही ऋषि मांडवय को उन चोरों का साथी ही समझ बैठे और चोरी के धन को ऋषि मांडवय की कुटिया से प्राप्त कर लिया । ऋषि को सिपाही राजा के पास लेकर गए और कहा कि हे राजन ! यह ब्राह्मण देव उन चोरों के साथी हैं इन्होंने उन चोरों को वहां से भगा दिया । तब राजा ने कहा की हे ब्राह्मण देव ! तुम ब्राह्मणों का वेश धारण करके लोगों की आस्था के साथ खेल रहे हो । सब आपको ब्राह्मण समझकर आप की पूजा करते हैं ,आप का सम्मान करते हैं और आप उन्हें धोखा देते हो । ऋषि मांडवय ने राजा को बहुत समझाया कि वह झूठ नहीं बोल रहे । उन्होंने चोरों को सज्जन पुरुष समझा था और उन्हें बचाने के लिए अपनी कुटिया में शरण दी थी । परंतु राजा ने उनकी बात नहीं मानी और अपने सिपाहियों से कहकर ऋषि मांडवय को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया । राजा के सिपाही ऋषि मांडवय को सूली के पास लेकर गए और उन्हें सूली पर चढ़ा दिया  ।परंतु ऋषि मांडवय  ने अपनी योग शक्ति के द्वारा समाधि धारण कर ली ।ऋषि मांडवय के शरीर का सूली भेदन नहीं कर पाई । क्योंकि ऋषि मांडवय ने योग शक्ति के द्वारा अपने आप को बचा लिया था । वे सूली पर चढ़े हुए ही समाधि में लीन हो गए ।जब राजा के सिपाही ने देखा कि ऋषि मांडवय के आसपास एक बहुत बड़ा प्रकाश पुंज बन गया है और  उनके शरीर का सूली भेदन नहीं कर पा रही , तो वे सब घबरा गए । यह सब चमत्कार देखकर आसपास सभी लोग इकट्ठा हो गए ।और ऋषि मांडवय की शक्ति को नमस्कार करने लगे ।  उन सभी लोगों की भीड़ में एक साधु भी था जिन्होंने उन ऋषि को पहचान लिया और कहा कि यह तो ऋषि मांडवय है । उस साधु के ऐसा कहते ही राजा के सिपाही दौड़कर राजा के पास गए । उन्होंने राजा को सारी बात बताई और कहा कि वे ऋषि मांडवय है । मांडवय ऋषि का नाम सुनकर राजा बहुत घबरा गया । और सोचने लगा कि उससे ऐसी बड़ी गलती कैसे हो सकती है ? कि उसने ऋषि मांडवय को ही नहीं पहचाना । राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ । वे दौड़कर ऋषि मांडवय के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी । और कहा कि हे ऋषि ! मुझे माफ कर दीजिए ,आप चाहे तो मुझे मेरे अपराध का दंड दे सकते है। इसे मैं अपना प्रायश्चित समझूंगा ।आप कृपा करके सूली से नीचे उतर आइए । परंतु ऋषि मांडवय ने सूली से नीचे उतरने के लिए मना कर दिया और कहा कि राजा मैं आपकी आज्ञा का पालन कर रहा था ।राजा प्रजा को जैसा आदेश देता है वह वैसा ही करती है । अब आप सूली से उतरने के लिए कह रहे हैं तो मैं सूली से नहीं उतरूंगा बल्कि सीधा पहले धर्मराज के पास जाऊंगा । क्योंकि उन्हीं के कारण मुझे यह दंड मिला है ।इसमें आपका कोई दोष नहीं है ।जैसी आपको परिस्थिति नजर आई आपने वैसा ही दंड दिया । यह कहते ही ऋषि मांडवय धर्मराज के पास गए ।  धर्मराज के पास जाकर बोले कि मैंने ऐसा कौन सा बुरा कर्म किया था कि आपने मुझे जिसका इतना घोर दंड दिया । जहां तक मुझे याद है मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में कुछ भी बुरा कार्य नहीं किया ।  तब धर्मराज बोले कि हे ऋषि मांडवय जब आप बचपन में थे तब आपने एक तितली को पकड़ कर उसको तिल्ली से भेदन कर दिया था । उसी का दंड मैंने आपको दिया है । तब ऋषि मांडवय  बोले कि – शास्त्र और धर्म अनुसार जन्म से लेकर 12 वर्ष तक के बच्चों के द्वारा किया गया कोई भी अपराध दंडनीय नहीं होता है । क्योंकि उन्हें 12 वर्ष तक अच्छे या बुरे कर्म का पता ही नहीं होता ,ना ही धर्म और अधर्म का पता होता है । तो आप उनके द्वारा किए गए कार्यों का दंड कैसे दे सकते हैं । जब मैंने किसी तितली  को भेदन किया होगा उस वक्त मुझे ज्ञान नहीं था कि क्या सही है और क्या गलत  । जब मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ उसके बाद से अब तक मैंने कोई भी अधर्म नहीं किया ।  आपने मेरे साथ यह गलत किया है । आप न्याय के  सिंहासन पर बैठने वाले मेरे साथ अन्याय कर गए । तब ऋषि माडवय  ने धर्मराज को श्राप दिया कि आप पृथ्वी लोक में एक शुद्र माता के गर्भ से जन्म लोगे और जो आपने मेरे साथ न्याय के सिंहासन पर बैठ कर अन्याय किया है उसी प्रकार आप पृथ्वी लोक पर न्याय और अन्याय की गुत्थी को आपस में सुलझा – सुलझा कर थक जाओगे । यही तुम्हारे अपराध का दंड है और तुम्हें यह पता नहीं चल पाएगा क्या सही है क्या गलत है ? यह कहकर ऋषि मांडवय दोबारा पृथ्वी पर लौट आए और अपनी कुटिया में आकर तपस्या करने लगे ।  तब धर्मराज जी ऋषि मांडवय के श्राप अनुसार द्वापर युग में पृथ्वी लोक पर एक दासी के गर्भ से जन्म लिया और विदुर जी कहलाए यह विदुर जी वही थे जो धृतराष्ट्र और पांडु के भाई थे



Long ago, there was a very high ascetic named Rishi Mandavaya. He had earned many virtues on the strength of his penance. It is a matter of one day that Rishi Mandavaya was doing penance sitting in his hut. They were engrossed in the meditation of the Lord. Then three thieves who were dressed as merchants came running to them and said – O Brahman God! Save us, some dacoits are lying behind us who are disguised as merchants just like us. They want to steal our money from us. Those three thieves had a lot of money. The three thieves were lying to the Maharishi. Behind them were not actually dacoits, but the king's soldiers in merchant attire. Those who were coming to catch them. Maharishi Mandvay hid the words of those three thieves as true and hid them in his hut as a businessman. The three thieves fled by keeping the stolen money in the hut of sage Mandavay ji. When the king's soldiers dressed as merchants reached near the hut of Maharishi Mandvay, they saw the thieves running away. They came to the sage Mandavay and started saying that Brahmin god, why did you drive away those thieves? Sage Mandavay said that he was not a thief, he was telling himself a big businessman and wanted to avoid you by calling you a robber. To escape, they had come to seek shelter in my hut. The king's soldiers said that no Brahmin gods were those dacoits, who used to rob the goods of the passers-by. According to the orders of the king, we disguised as merchants and faced those thieves. We also made a plan to capture the merchants disguised as them and when we were running after them to catch them, they came to your hut. Sage Mandavay could not understand who was telling the truth. The king's soldier mistook Rishi Mandavay as a companion of those thieves and got the stolen money from the hut of Rishi Mandavay. The soldiers took the sage to the king and said, O king! This Brahmin god is the companion of those thieves, he drove those thieves from there. Then the king said that O Brahmin god! You are playing with the faith of people by disguising themselves as Brahmins. Everyone treats you as a Brahmin and worships you, respects you and you deceive them. Sage Mandavaya explained a lot to the king that he was not lying. He considered the thieves to be gentlemen and had given shelter in his hut to save them. But the king did not listen to them and after telling his soldiers ordered the sage Mandavaya to be crucified. The king's soldiers took sage Mandavaya to the cross and crucified him. But the sage Mandavaya attained samadhi through his yogic power. The sage could not pierce the body of the sage Mandavaya. Because sage Mandavaya had saved himself by the power of yoga. They were absorbed in the samadhi as soon as they were crucified. When the king's soldier saw that a huge beam of light had formed around the sage Mandvaya and the crucifix could not pierce his body, they were all terrified. Seeing all these miracles, all the people gathered around. And the sage started saluting the power of Mandavaya. There was also a sage in the crowd of all those people who recognized those sages and said that this is Rishi Mandavaya. As soon as that monk said so, the king's soldiers ran to the king. He told the whole thing to the king and said that he is the sage Mandavaya. Hearing the name of the sage Mandavaya, the king was very nervous. And wondered how could he make such a big mistake? That he did not recognize the sage Mandavaya. The king realized his mistake. He ran to the sage Mandavaya and with folded hands he apologized for his crime. And said, O sage! Forgive me, you can punish me for my crime if you want. I will consider it my atonement. Please come down from the cross. But sage Mandavay refused to come down from the cross and said that the king I was following your orders. He does as the king orders the subjects. Now you are asking to come down from the cross, then I will not come down from the cross, but will go straight to Dharmaraj first. Because because of them I have got this punishment. It is not your fault in this. You punished the same as you saw the situation. After saying this, sage Mandavaya went to Dharmaraja. Going to Dharmaraj, he said that what such bad deed I had done that you punished me so severely. As far as I remember I have not done anything bad in my life till now. Then Dharmaraja said that O sage Mandavay, when you were in your childhood, you caught a butterfly and pierced it with the spleen. I have punished you for that. Then Sage Mandavay said that - According to the scriptures and religion, any crime committed by children from birth to 12 years is not punishable. Because they do not know about good or bad karma for 12 years, nor do they know about dharma and adharma. So how can you punish them for what they have done. When I would have pierced a butterfly, at that time I did not know what was right and what was wrong. I have not committed any adharma since the time I attained enlightenment. You have done this wrong to me. You who sit on the throne of justice have done injustice to me. Then sage Madvaya cursed Dharmaraja that you will be born in the earth world from the womb of a Shudra mother and who you have done injustice to me by sitting on the throne of justice, in the same way you solve the mystery of justice and injustice on earth. - solve And you'll be tired. This is the punishment for your crime and you will not be able to know what is right or wrong? Saying this the sage Mandavaya again returned to the earth and came to his hut and started doing penance. Then Dharmaraj ji took birth from the womb of a maidservant on earth in Dwapar yuga according to the curse of sage Mandvay and called Vidur ji, this Vidur ji was the same who was the brother of Dhritarashtra and Pandu.

कैसे बचाई भोलेनाथ ने एक बालक की जान। ऋषि मार्कण्डेय की सच्ची कहानी















 

पुराने समय में महामुनि मृकण्डु नाम के एक महर्षि थे । वे बहुत ही ज्ञानी और तेजस्वी थे । उनकी पत्नी का नाम  मरुद्वती था। उन दोनों की कोई संतान नहीं थी। इसीलिए महामुनि ने भगवान शिव की तपस्या करके पुत्र का वरदान पाने की इच्छा रखी । वे भगवान शिव की तपस्या करने के लिए बैठ गए । काफी समय तक भगवान की घोर तपस्या करने से भगवान शिव जी प्रसन्न हुए और उनके सामने प्रकट हुए । तब महा ऋषि ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनके पैरों में गिर गए । भगवान शिव ने कहा कि मैं तुम्हारी इस तपस्या से प्रसन्न हुआ तुम्हें जो मांगना है मांग सकते हो  । तो महा ऋषि ने भगवान शिव से पुत्र प्राप्ति का वरदान मांगा । भगवान शिव ने कहा किंतु तुम्हारे भाग्य में पुत्र प्राप्ति का कोई योग नहीं है । महर्षि बोले किंतु भोलेनाथ मैंने तो आपकी तपस्या पुत्र प्राप्ति के वरदान हेतु ही की है ,मुझे तो अगर कुछ चाहिए तो एक पुत्र का वरदान ही चाहिए । तब भगवान शिव ने महर्षि से कहा कि तुम्हें एक सकुशल ,प्रभावित, बुद्धिमान और 12 वर्ष तक जीवित रहने वाला पुत्र चाहिए या फिर एक दुर्व्यवहार, मंदबुद्धि और लंबी आयु वाला पुत्र चाहिए ।

तो महर्षि  ने सकुशल, प्रभावित, बुद्धिमान और 12 वर्ष तक जीवित रहने वाले पुत्र की मांग की। भगवान शिव ने उनकी इच्छा पूरी कर दी ।कुछ समय बाद श्री महर्षि की पत्नी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया ।  उन्होंने उसका नाम मार्कण्डेय रखा। मार्कण्डेय एक बहुत ही बुद्धिमान बालक था। वह नियमित रूप से अपना जीवन व्यतीत कर रहा था । उसने अपने 11 साल पूरे कर लिए थें। एक दिन जब मार्कण्डेय नदी से स्नान कर कर वापस अपने घर की ओर आया तो उसने देखा कि उसके माता-पिता बहुत ही चिंतित हैं ।माता की आंखों से आंसू आ रहे हैं और पिता जी के चेहरे पर एक अजीब सी परेशानी दिख रही है । इसलिए मार्कण्डेय उनके पास गया और पूछा कि मां ,पिता जी क्या हुआ है। आप दोनों इतने चिंतित क्यों लग रहे हो। तो महा ऋषि ने सारी बात मार्कण्डेय को बताई मार्कण्डेय ने मुस्कुराकर कहा  कि पिता जी अगर भगवान शिव ने मुझे 12 वर्ष तक जीवित रखा है । तो मैं भगवान शिव की आराधना करूंगा । उनसे और लंबी उम्र की कामना करूंगा । मार्कण्डेय की यह बात सुनकर  माता-पिता मुस्कुराए और मार्कण्डेय का साथ दिया। मार्कण्डेय जंगल में दूर जाकर एक नदी किनारे बैठ गए । वहां मिट्टी से एक शिवलिंग बनाया और उसको फूलों से सजा करके उसके  पास में बैठ करके तपस्या करनी शुरू कर दी । एक दिन की बात है वह प्रतिदिन की भांति शिवलिंग की आराधना में मग्न था। उनका अन्तिम समय आ गया था। अचानक वहां यमराज प्रकट हो गये जिन्हें देखकर वह नन्हा सा बालक डर गया ।उसने यमराज से उनके बारे में पूछा तो उन्होंने अपना प्रयोजन उसे बताया कि “हम तुम्हें लेने आये हैं तुम्हारी मृत्यु का समय आ गया है।“ऐसा सुनकर वह डर गया और अपनी छोटी-छोटी बांहों से शिवलिंग से लिपट गया और  महामृत्युंजयमंत्र का जाप करने लगा। ऐसा देखकर जैसे ही यमराज ने अपना मृत्यु पाश उसकी ओर फेंका तभी वहां भगवान शंकर प्रकट हो गये । शिव जी ने कहा कि हे यमराज ! आप इसे नहीं ले जा सकते ,अब यह मेरे संरक्षण में है। इस पर यमराज ने कहा प्रभु! इसका अन्तिम समय आ चुका है इसको इतना ही जीवन जीना था। यदि यह जीवित रहा तो यह प्रकृति के नियमों के विरूद्ध होगा। इस पर भगवान शंकर बोले मैंने इसे अभयदान दे दिया है । यह अल्पायु से दीर्घायु हो चुका है। ऐसा सुनकर यमराज बोले, जैसी प्रभु की इच्छा और वहां से चले गये। शिवजी ने उस बालक को उठाया और बोले तुम्हें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है पुत्र! मैं तुम्हें दीर्घायु और विद्वता का आशीर्वाद देता हूं। जब बालक ने उन्हें देखा तो उनके चरणों में गिर पड़ा। शिवजी ने उसे उठाया और पूछा और कोई वरदान मांगना चाहते हो तो बोलो। उसने कहा कि मुझे केवल अपनी भक्ति में डूबे रहने का वरदान प्रदान करने की कृपा करें । इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिये। शिवजी ने उसे मनचाहा वरदान दिया और कहां कि जब तक यह पृथ्वी रहेगी तब तक तुम जीवित रहोगे  । यह कहकर भोलेनाथ अन्तर्धान हो गये। यह बात उसने आकर अपनी मां और पिताजी को बताई तथा देखते ही देखते वह अपने नगर में प्रसिद्ध हो गया। आगे चलकर वही बालक शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता बना तथा श्री मार्कण्डेयपुराण की रचना की।

तो भक्तों आज भी इस कलयुग में इस पृथ्वी पर मार्कंडेय ऋषि एक दरिया के रूप में प्रवाहित है और अपने भक्तों का कल्याण करते हैं।



In olden times there was a Maharshi named Mahamuni Mrikandu. He was very knowledgeable and brilliant. His wife's name was Marudvati. Both of them did not have any children. That is why Mahamuni wished to get the boon of a son by doing penance to Lord Shiva. He sat down to do penance to Lord Shiva. Lord Shiva was pleased after doing severe penance of the Lord for a long time and appeared in front of him. Then Maha Rishi bowed down to Lord Shiva and fell at his feet. Lord Shiva said that I was pleased with this penance of yours, you can ask for whatever you want. So the great sage asked Lord Shiva for the boon of having a son. Lord Shiva said but there is no chance of getting a son in your destiny. Maharishi said but Bholenath, I have done your penance only for the boon of getting a son, if I want anything, then I want the boon of a son. Then Lord Shiva told Maharishi that you want a safe, affected, intelligent and 12 years old son or you want a misbehaving, retarded and long life son.

So Maharishi asked for a son who was safe, impressed, intelligent and would live for 12 years. Lord Shiva fulfilled his wish. After some time the wife of Shri Maharishi gave birth to a beautiful son. They named him Markandeya. Markandeya was a very intelligent child. He was leading his life regularly. He had completed his 11 years. One day, when Markandeya came back to his house after taking a bath in the river, he saw that his parents were very worried. Tears were coming from his eyes and a strange problem was seen on his face. So Markandeya went to him and asked what happened mother, father. Why do you both seem so worried? So the great sage told the whole thing to Markandeya, Markandeya smiled and said that father, if Lord Shiva has kept me alive for 12 years. So I will worship Lord Shiva. I wish him a longer life. On hearing this talk of Markandeya, the parents smiled and supported Markandeya. Markandeya went away in the forest and sat on the bank of a river. There he made a Shivling out of clay and decorated it with flowers and started doing penance by sitting next to it. It was a matter of one day that he was engrossed in the worship of Shivling as usual. His last time had come. Suddenly Yamraj appeared there, seeing that the little boy was frightened. He asked Yamraj about him, then he told his purpose that "We have come to take you, the time of your death has come." Hearing this, he got scared and He wrapped himself around the Shivling with his small arms and started chanting the Mahamrityunjaya Mantra. Seeing this, as soon as Yamraj threw his death loop towards him, only then Lord Shankar appeared there. Shiva said that O Yamraj! You can't take it, now it's under my protection. On this Yamraj said Lord! Its last time has come, he had to live this life. If it survives it will be against the laws of nature. On this, Lord Shankar said, I have given him protection. It has been long since short. Hearing this, Yamraj said, as per the will of the Lord and left from there. Shivji picked up that child and said, you do not need to be afraid, son! I bless you with longevity and scholarship. When the boy saw them, he fell at his feet. Shivaji picked him up and asked and if you want to ask for any boon, then speak. He said that please grant me the boon of being immersed in your devotion only. Apart from this, I don't want anything. Shivaji gave him the boon he wanted and where will you live as long as this earth is there. Saying this Bholenath disappeared. He came and told this to his mother and father and on seeing this he became famous in his city. Later on, the same child became a great knower of scriptures and composed Shri Markandeya Purana.


So devotees even today in this Kaliyuga, the Markandeya sage flows on this earth as a river and does welfare of his devotees.

imandari ka fal | ईमानदारी का इनाम |


 


एक गांव में नंदू नाम का एक गरीब आदमी रहता था। वह अपनी पत्नी और अपने बच्चों के साथ एक साधारण जीवन व्यतीत करता था । वह इतनी गरीबी से झूझ रहा था कि उसके पास खाने के लिए दो वक्त का भोजन भी नहीं था। परंतु वह भगवान पर अत्यधिक विश्वास करता था ।उसको यह पता था कि एक ना एक दिन भगवान मेरी सारी मनोकामना पूरी करेंगे और मेरी सारी समस्या समाप्त कर देंगे। वह हर रोज नए-नए काम ढूंढता रहता था ।जिससे कि वह अपने बीवी और बच्चों का पेट पाल सकें। पर कभी-कभी उसकी किस्मत उसका साथ नहीं देती थी । एक दिन जब उसे कहीं पर भी काम नहीं मिला तो वह परेशान होकर जंगल की ओर जाने लगा। चलते चलते वह मन ही मन में बस यही प्रार्थना कर रहा था कि भगवान मुझे कुछ ऐसा काम दे दो जिससे मैं अपने परिवार को अच्छे से रख पाऊं । तभी उसने देखा कि एक सेठ उसी जंगल के रास्ते उसके आगे  चल रहा है और उसने देखा कि वह सेठ बहुत ही परेशान लग रहा है । इसीलिए वह सेठ की थोड़ी ही दूरी पर जाकर खड़ा हो गया और सेठ की बातें सुनने लगा । सेठ जोर-जोर से कह रहा था कि मेरी अंगूठी खो गई । पता नहीं कहां चली गई । अभी मेरे हाथ में ही तो थी। इतना कहने के बाद सेठ उदास होकर वापस अपने घर की ओर जाने लगा।  तभी नंदू ने ढूंढना शुरू किया और उसे झाड़ियों में सेठ की अंगूठी मिल गई। जैसे ही नंदू ने उस अंगूठी को उठाया उसने देखा कि यह अंगूठी असली हीरे की बनी हुई है । नंदू को लगा कि यह सच में बहुत ही महंगी अंगूठी होगी। नंदू ने सोचा कि अगर मैं यह अंगूठी सेठ को वापस दे दूं तो शायद वह खुश होकर मुझे कोई अच्छा काम बता दे । इसीलिए नंदू बिना वक्त गवाए सेठ के पीछे पीछे चलता रहा । और जैसे ही सेठ घर पहुंच गया नंदू ने उन्हें पीछे से आवाज लगाई और कहा सेठ जी यह आपकी वही अंगूठी है  जो जंगल में खो गई थी । जैसे ही सेठ अंगूठी को देखता है वह आश्चर्यचकित हो जाता है । और उसके चेहरे पर एक सुकून आ जाता है । पर सेठ को विश्वास नहीं होता कि यह आदमी अंगूठी मुझे वापिस क्यों कर रहा है । तो सेठ नंदू से पूछता है कि तुमने मुझे ही अंगूठी वापिस क्यों की। अगर तुम चाहते तो यह अंगूठी अपने पास रख सकते थे । और इस को बेचकर धन कमा सकते थे। पर तुमने ऐसा नहीं किया क्यों ? तभी नंदू कहता है सेठ यह तो बेमानी हुई जो चीज मेरी है ही नहीं, उससे मिलने वाला पैसा भी मेरा नहीं है । और अगर मैं ऐसा करता ,तो वह पैसा भी मेरे पास नहीं रहता और साथ ही में मेरे भगवान मुझसे रूठ जाते । इसीलिए मैं ऐसी बेमानी नहीं कर सकता था । तभी सेठ खुश होकर नंदू से कहते हैं कि बताओ , तुम्हें क्या चाहिए मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूंगा । तुम्हें जो चाहिए तुम मुझसे मांग सकते हो । तभी नंदू हाथ जोड़कर कहता है कि सेठ मुझे एक अच्छे काम की तलाश है । एक ऐसा काम जिसके साथ मैं अपना परिवार भी संभाल सकूं और अपने बच्चों को पढ़ा सकूं । तभी सेठ मुस्कुरा कर कहता है कि मेरे यहां पर एक ईमानदार काम करने वाले की जरूरत है । अगर तुम चाहो तो वह काम कर सकते हो ।क्योंकि इस अंगूठी को वापस करके तुमने अपनी ईमानदारी साबित कर दी है। और तुम्हें यह नौकरी देने में मुझे जरा भी संकोच नहीं हो रहा । नंदू हाथ जोड़कर कहता है कि अगर आपको यह लगता है कि मैं इस काम को करने के योग्य हूं ।तो मुझे आपका काम करके खुशी मिलेगी ।और मैं आपके काम को पूरी ईमानदारी के साथ करूंगा ।उसके बाद नंदू वहां पर काम करना शुरू कर देता है । उसके दिन बदल गए थे ।अब वह अच्छे से काम कर रहा था। सेठ उसे अच्छे पैसे भी देता था।

 वह आदमी समझ गया था कि “भगवान” सभी को देखते है। वह सभी की इच्छा पूरी करते है। अगर हम सब कुछ ईमानदारी से करते है ।तो वह मदद जरूर करते है। इसलिए भगवान के प्रति विश्वाश होना बहुत जरुरी होता है। अगर आप विश्वाश करते है तो आपकी इच्छा एक दिन जरूर पूरी होती है।


There lived a poor man named Nandu in a village. He lived a simple life with his wife and his children. He was suffering from such poverty that he did not even have two meals to eat. But he had great faith in God. He knew that one day God would fulfill all my wishes and solve all my problems. He used to find new work everyday so that he could feed his wife and children. But sometimes his luck did not favor him. One day when he could not find work anywhere, he got upset and started going towards the forest. While walking, he was praying in his heart that God give me some such work so that I can take care of my family well. Then he saw that a Seth was walking ahead of him through the same forest and he saw that Seth was looking very upset. That is why he stood at a short distance from Seth and started listening to Seth's words. Seth was saying loudly that I had lost my ring. I don't know where it went. It was only in my hand. After saying this, Seth got sad and started going back towards his house. Then Nandu started searching and found Seth's ring in the bushes. As soon as Nandu picked up the ring he saw that it was made of real diamonds. Nandu thought that this would be a really expensive ring. Nandu thought that if I give this ring back to Seth, then maybe he will be happy and tell me some good deed. That's why Nandu kept on following Seth without wasting any time. And as soon as Seth reached home, Nandu called him from behind and said Seth ji, this is your ring which was lost in the forest. As soon as Seth sees the ring he is surprised. And a look of relief comes to his face. But Seth can't believe why this man is returning the ring to me. So Seth asks Nandu why did you return the ring to me. If you wanted, you could have kept this ring with you. And could earn money by selling it. But why didn't you do that? Then Nandu says, Seth, it is meaningless, the thing which is not mine, the money received from it is also not mine. And if I had done this, then even that money would not remain with me and at the same time my God would have been angry with me. That's why I couldn't do such nonsense. Then Seth is happy and tells Nandu that tell me, what do you want, I will fulfill your every wish. You can ask me whatever you want. Then Nandu says with folded hands that Seth I am looking for a good job. A job with which I can also take care of my family and educate my children. Then Seth smiles and says that I need an honest worker here. You can do that if you want. Because by returning this ring you have proved your integrity. And I have no hesitation in giving this job to you. Nandu says with folded hands that if you feel that I am capable of doing this work. Then I will be happy to do your work. And I will do your work with complete honesty. After that Nandu would start working there. Is . His days had changed. Now he was doing well. Seth used to give him good money too.

 The man understood that "God" sees all. He fulfills everyone's wish. If we do everything honestly. Then he definitely helps. That is why it is very important to have faith in God. If you believe then your wish will definitely come true one day.

shanshah or bulbul | शहंशाह और बुलबुल की कहानी की सच्ची कहानी

 शहंशाह और बुलबुल की कहानी की सच्ची कहानी 



पुराने समय की बात है चीन के दूरदराज के इलाके में शहंशाह की हुकूमत हुआ करती थी । शहंशाह का महल बहुत ही शानदार और आलीशान था । और महल के चारों ओर इतना बड़ा बगीचा था कि उसके माली को भी उसकी हद पता नहीं थी । बगीचे के एक पेड़ पर एक छोटी सी बुलबुल रहा करती थी। वह बहुत ही मधुर स्वर में गाना गाती थी । जिसका आनंद बगीचे के सारे लोग लिया करते थे ।  केवल राजा ही ऐसे थे जो उस बुलबुल के गीत का आनंद नहीं ले पाते थे । क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उनके महल के बगीचे में एक इतनी सुंदर और इतना प्यारा गाना गाने वाली एक मधुर बुलबुल रहती है।  एक दिन जापान का एक सैनिक शहंशाह के महल में आता है और कहता है कि हमारे महाराज आपसे मिलना चाहते हैं।  इसलिए वह कल यहां आ रहे हैं । और इस बात को सुनकर शहंशाह को खुशी होती है । शहंशाह अपने सैनिकों को कहते हैं कि उनकी स्वागत की व्यवस्था की जाए और साथ में यह भी कहा कि उनका स्वागत ऐसे किया जाए जैसे किसी ने कभी ना किया हो। शहंशाह के आदेश  मुताबिक जापान के शहंशाह का बहुत ही जबरदस्त स्वागत हुआ और मेहमान नवाजी में उनके लिए ढेरों पकवान बनाए गए।जापान के शहंशाह को एक बहुत ही प्यारा कमरा रहने के लिए दिया गया। जिसमें हर प्रकार की सुख सुविधाएं थी। शहंशाह को बहुत खुशी हुई कि जापान के शहंशाह हमारे यहां की व्यवस्था को इतनी पसंद कर रहे हैं। उन्हें बगीचे में घुमाया गया और उन्हें अपनी प्रजा से भी मिलवाया । वहां से जाते वक्त उन्हें बुलबुल की मधुर आवाज सुनाई दी । जापान के शहंशाह बुलबुल की मधुर आवाज के दीवाने हो गए।

 फिर एक दिन जापान के शहंशाह, शहंशाह के लिए एक खत भेजते हैं ।तो शहंशाह कहते हैं कि जापान के शहंशाह की भेजी हुई चिट्ठी पढ़कर सुनाई जाए । जापान के शहंशाह, शहंशाह का शुक्रिया करते हैं और साथ में यह भी कहते हैं कि उनकी प्रजा और भोजन ने हमारा दिल जीत लिया। आप के बगीचे की बुलबुल की मीठी आवाज को सुनकर तो हम एक अलग दुनिया में चले गए । जैसे ही चिट्ठी में बुलबुल का जिक्र होता है तो महाराज कहते हैं कि यह बुलबुल कौन है जिसकी आवाज हमनें नहीं सुनी। शहंशाह ने बुलबुल को अपने पास बुलाने का आदेश दिया ।

 शहंशाह ने बुलबुल की आवाज सुनी। तो शहंशाह ने कहा तुम्हारी आवाज तो बहुत ही मीठी है ,प्यारे नन्हे पक्षी। शहंशाह ने बुलबुल को अपने महल में रखा ताकि वो  उसकी मीठी आवाज को रोज सुन सके। एक दिन जापान के शहंशाह, शहंशाह के लिए एक तोहफा भेजते हैं । जिसके अंदर एक चाबी से चलने वाली प्लास्टिक की बुलबुल होती है । उसमें चाबी भरते हैं वह एक सुंदर सा गीत गाने लगती है । शहंशाह उस तोहफे को देख करके बहुत खुश होते हैं।  अब महाराज हर रोज खिलौने वाली बुलबुल की ही आवाज सुना करते थे । यह देखकर बुलबुल को बहुत बुरा लगा और वह महल से उड़ गई । और दोबारा लौटकर नहीं आई । फिर एक दिन खिलौना खराब हो गया । इसलिए महाराज ने अपने सैनिकों से कहा कि तुम इसको ठीक करवा कर लाओ  । जब सैनिक वापस आए तो उन्होंने बताया कि महाराज पूरी दुनिया में हमें ऐसा कोई खिलौने ठीक करने वाला नहीं मिला जो इस खिलौने को ठीक कर सके । फिर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ कि उन्होंने एक प्लास्टिक के खिलौने के लिए अपनी दोस्त को छोड़ दिया।  बुलबुल के गम में शहंशाह ने खाना पीना छोड़ दिया और दिन प्रतिदिन वह बहुत बीमार होने लगे। इसीलिए गांव के पास के एक वैद्य  को बुलाया गया और उनसे शहंशाह का इलाज करवाया गया । फिर वैद्य ने कहा कि इनका इलाज सिर्फ उस बुलबुल की आवाज है । जिसकी वजह से इन्होंने सब कुछ खाना पीना छोड़ दिया है ।  सैनिक अपने शहर से बाहर निकल गए और हर जगह बुलबुल को ढूंढने लगे । काफी दिन बीत गए लेकिन बुलबुल कहीं नहीं मिल रही थी।  और शहंशाह की तबीयत भी खराब होती जा रही थी।  वैध ने कहा कि अगर कुछ दिनों के अंदर बुलबुल नहीं मिली तो हम अपने राजा को खो देंगे। इसीलिए सैनिकों ने चारों ओर ऐलान कर दिया कि जो कोई भी बुलबुल को ढूंढ कर लाएगा हम उसे 1000 सोने के सिक्के देंगे। एक दिन अचानक बुलबुल उड़ते उड़ते राजा के महल में वापस अपने आप आ गई । सब ने देखा की बुलबुल लौट आई है और वह सीधा शहंशाह के कमरे की खिड़की पर जाकर बैठ गई । जब उसने देखा कि शहंशाह बिस्तर पर लेटे हैं तो उसने अपना गाना गाना शुरू किया।   जैसे ही बुलबुल की मधुर आवाज शहंशाह के कानों में पड़ी तो शहंशाह उठकर खड़े हो गए और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे । वह भाग के खिड़की के पास गए और बुलबुल को अपनी हथेली में उठा लिया और गले से लगाया।  यह देखकर बुलबुल को बहुत खुशी हुई और उसने गाना गाना शुरू कर दिया और शहंशाह ने उसका गाना काफी लंबे समय तक सुना। धीरे-धीरे शहंशाह के स्वास्थ्य में भी सुधार हुआ और वह पहले की तरह ठीक हो गए ।बुलबुल शहंशाह के सबसे अच्छी दोस्त बन गई।

दोस्तों इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है कि हमें कभी भी नकली चीजों  के लिए अपने असली दोस्तों को नहीं छोड़ना चाहिए । क्योंकि उनके जाने के बाद ही हमें उनकी कीमत का एहसास होता है।

True story of the story of Shahenshah and Bulbul


It is a matter of old time that the emperor used to rule in the remote areas of China. The emperor's palace was very luxurious and luxurious. And there was such a large garden around the palace that even its gardener did not know its extent. There used to be a small bulbul on a tree in the garden. She sang in a very melodious voice. Which was enjoyed by all the people of the garden. It was only the king who could not enjoy the song of that bulbul. Because they did not know that in the garden of their palace there was a sweet bulbul singing such a beautiful and such a lovely song. One day a soldier from Japan comes to the Emperor's palace and says that our Maharaja wants to meet you. That's why he is coming here tomorrow. And the emperor is happy to hear this. The emperor tells his soldiers that arrangements should be made to welcome them and also said that they should be welcomed as if no one has ever done it. According to the emperor's order, the emperor of Japan was given a very warm welcome and many dishes were prepared for him in the hospitality. The emperor of Japan was given a very lovely room to stay. It had all kinds of amenities. The emperor was very happy that the emperor of Japan is liking our system so much. He was taken in the garden and introduced him to his subjects. While leaving from there, he heard the melodious voice of Bulbul. The emperor of Japan fell in love with the melodious voice of Bulbul.

 Then one day the Emperor of Japan sends a letter to the Emperor. So the Emperor says that the letter sent by the Emperor of Japan should be read and heard. The emperor of Japan thanks the emperor and also says that his people and food have won our hearts. Hearing the sweet sound of your garden buzzing, we went to a different world. As soon as Bulbul is mentioned in the letter, Maharaj says who is this Bulbul, whose voice we have not heard. The emperor ordered Bulbul to be called to him.

 The emperor heard Bulbul's voice. So the emperor said that your voice is very sweet, dear little bird. The emperor kept Bulbul in his palace so that he could listen to his sweet voice every day. One day the Emperor of Japan sends a gift to the Emperor. Inside which is a key-operated plastic bulb. When he fills the key, she starts singing a beautiful song. The emperor is very happy to see that gift. Now Maharaj used to hear the sound of the toy bulbul every day. Seeing this, Bulbul felt very bad and she flew away from the palace. And did not come back again. Then one day the toy got damaged. That's why Maharaj told his soldiers that you get it repaired and get it. When the soldiers came back, they told that Maharaj, we could not find any toy fixer in the whole world who could fix this toy. Then Raja realized his mistake that he left his friend for a plastic toy. In the sorrow of Bulbul, the emperor stopped eating and drinking and he started getting very sick day by day. That is why a Vaidya near the village was called and he was given the treatment of the emperor. Then Vaidya said that his cure is only the voice of that bulbul. Because of which he has stopped eating and drinking everything. The soldiers left their city and started looking for Bulbul everywhere. Many days passed but Bulbul was nowhere to be found. And the emperor's health was also deteriorating. Vaidhi said that if Bulbul is not found within a few days, we will lose our king. That is why the soldiers announced all around that whoever finds Bulbul, we will give him 1000 gold coins. One day suddenly Bulbul came back to the king's palace while flying. Everyone saw that Bulbul had returned and she went straight to the window of the emperor's room and sat down. When he saw that the emperor was lying on the bed, he started singing his song. As soon as the melodious voice of Bulbul fell in the ears of the emperor, the emperor stood up and tears started flowing from his eyes. He went to the window of the part and picked up Bulbul in his palm and hugged him. Bulbul was very happy to see this and he started singing and the emperor listened to his song for a long time. Gradually, the emperor's health also improved and he recovered as before. Bulbul became the best friend of the emperor.

Friends, we learn from this story that we should never leave our real friends for fake things. Because only after they are gone do we realize their worth.

When God Himself came to help the child ? जब खुद भगवान आये बच्चे की मदद करने /












एक समय की बात है नारद जी हर रोज भगवान विष्णु के दर्शनों के लिए बैकुंठधाम जाते थे। और भगवान के दर्शन करके वापस आ जाते हैं। यही क्रम रोजाना चलता था। फिर एक दिन नारद जी के मन में यह विचार आया कि कल मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए तो कितना अच्छा होगा। यही विचार करके वह माता लक्ष्मी के पास गए और  उनसे आग्रह किया कि माता क्या आप मुझे भगवान का प्रसाद दिलवा दोगी तो आपकी बड़ी कृपा होगी । मगर माता लक्ष्मी कहती है कि भगवान का प्रसाद मिलना इतना आसान नहीं है। उसके लिए भगवान की आज्ञा अत्यंत आवश्यक है । बिना भगवान की आज्ञा के मैं किसी को भगवान का प्रसाद नहीं दे सकती । फिर नारद जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए 12 वर्षों तक कठिन तपस्या की । मगर भगवान का प्रसाद पाना इतना आसान  नहीं था । इतनी तपस्या करने के बाद भी नारद जी को प्रसाद नहीं मिला । अब वे विचार करने लगे कि मैं ऐसा क्या करूं ? कि मुझे भगवान का प्रसाद मिल जाए । फिर नारद जी ने एक योजना बनाई । नारद जी ने स्त्री का रूप धारण किया। साड़ी पहन कर और श्रृंगार करके रोजाना रात को दो बजे से तीन बजे के बीच भगवान के दरबार में झाडू लगाते थे। पूरी सफाई रात को करके वहाँ से चले जाते थे। लक्ष्मी माता यह सोच में पड़ गई कि रात के तीन बजे भगवान के दरबार में  कौन झाडू लगाता है ? लक्ष्मी जी जानना चाहती थी इतनी सुबह कौन पूरा दरबार साफ करके जाता है। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा । एक दिन लक्ष्मी जी फैसला करती हैं कि जो कोई भी यहां सफाई करता है मैं उसको ढूंढगी। इसलिए वह रात को ही एक पेड़ के पीछे छुप कर खड़ी हो गयी। फिर ठीक  3 बजे नारद जी स्त्री के रूप में साड़ी पहन कर आए और भगवान के दरबार की सफाई करने लगे । नारद जी पूरी लगन के साथ सफाई करने में लगे हुए थे तभी लक्ष्मी जी ने पीछे से आकर नारद जी को पकड़ लिया और पूछने लगी कि कौन हो तुम ? और चुपचाप सफाई क्यों करती हो ? क्या इरादा है तुम्हारा ? इस तरह से माता लक्ष्मी जी ने एक साथ बहुत सारे सवाल पूछ डालें ।  फिर नारद जी अपने असली स्वरूप में आकर माता लक्ष्मी से बोले – माता , मैं नारद हूं ।  भगवान के प्रसाद को पाने की भावना से भगवान की सेवा कर रहा हूं ताकि भगवान प्रसन्न होकर प्रसाद देने की कृपा करें । लक्ष्मी जी बोली आपने इतने वर्षों तक तपस्या की फिर भी आपको प्रसाद नहीं मिला और अब आप प्रसाद पाने के लिए झाड़ू लगा रहे हो । माता बहुत आश्चर्यचकित हो गई । नारद जी फिर से आग्रह करने लगे कि मां आप स्वयं भगवान विष्णु से बात  करें ।  माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास गई और प्रभु से कहा कि – हे! भगवन । नारद जी , आपके प्रसाद लिए बहुत आग्रह कर रहे हैं । कृपा करके आप उनकी विनती स्वीकार करो । फिर भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले कि आप जाकर नारद जी के लिए छप्पन भोग का भोजन तैयार करो  । फिर माता लक्ष्मी जी भगवान की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु जी का प्रसाद तैयार करती है । छप्पन प्रकार का भोजन बनाती है ।  उनका भगवान श्री विष्णु जी को भोग लगाती है । भगवान ने थोड़ा प्रसाद खाकर बाकी का प्रसाद नारद जी को देने के लिए कहा । माता लक्ष्मी जी ने प्रभु की आज्ञा से नारद जी को भगवान का प्रसाद दिया । नारद जी बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए और पूरा प्रसाद खा लिया । फिर तो नारद भगवान का नाम चिंतन करने लगे । नारद जी नारायण – नारायण करते हुए सीधे भगवान शिव के धाम कैलाश चले गए । नारद जी को देखकर भगवान शिव ने पूछा कि क्या बात है नारद ?  आज आप बहुत प्रसन्न हो । नारद जी बताते हैं कि आज मुझे श्री भगवान विष्णु का प्रसाद खाने को मिला है । मैं तो धन्य हो गया । शिव जी बोले – यह तो गलत बात है आपने अकेले ही खा लिया । हमे प्रसाद नही दिया  । नारद जी बोलते हैं प्रसाद खाते हुए, मुझे भगवान के सिवा कुछ याद ही नहीं रहा । इसलिए मैंने सारा प्रसाद खा लिया । तभी भगवान शिव की नजर नारद जी के मुंह पर लगे एक चावल के दाने पर पड़ी । भगवान शिव ने वही चावल का एक दाना ग्रहण कर लिया फिर तो वें भी भगवान विष्णु में ही मगन हो गए और खुशी से नृत्य करने लगे । माता पार्वती ने भगवान शिव को इस तरह से भक्ति भाव में देखा तो उन्होंने पूछा भी कि ऐसा क्या हुआ है ? जो आप इतने अधिक प्रसन्न दिखाई दे रहे हो । कृपा करके बताइए । भगवान शिव ने सारी कथा मां पार्वती को बता दी फिर तो माता पार्वती नाराज हो जाती हैं और भगवान शिव से कहती हैं कि मैं आपकी अर्धाग्नि हूं फिर भी आपने मुझे प्रसाद नहीं दिया और अपने आप ही खा लिया । यदि आपको चावल का एक दाना  मिला था तो आधा मुझे दे देते । माता पार्वती नाराज होकर बैकुंठ धाम चली जाती हैं । और भगवान विष्णु से कहती है कि आपने मुझे अपना प्रसाद नहीं दिया । भगवान शिव और नारद जी ने तो आपका प्रसाद प्राप्त कर लिया है । परंतु मुझे ही नहीं मिला । फिर भगवान विष्णु माता लक्ष्मी जी से कहते हैं कि आप फिर से भोजन बनाइए और मुझे भोग लगाकर फिर माता पार्वती जी को दीजिए । तब माता लक्ष्मी ने ऐसा ही किया । प्रसाद प्राप्त कर माता पार्वती का क्रोध शांत हुआ । भगवान विष्णु ने माता पार्वती जी को वचन दिया कि मैं कलयुग में जगन्नाथ जी के रूप में जगन्नाथपुरी में  विराजमान होऊंगा। । वहां पर मेरा छप्पन प्रकार का भोग लगा करेगा । मेरे भोग लगने के पश्चात आपको सबसे पहले प्रसाद दिया जाएगा । इसलिए आपका मंदिर भी वही उसी प्रांगण में स्थापित होगा । वहां पर आपका नाम माता विमला देवी के नाम से प्रसिद्ध होगा ।  सभी लोग आपकी पूजा करेंगे आपको प्रसाद चढ़ाने के बाद  ही मेरा प्रसाद महाप्रसाद बन जाएगा । उसके बाद ही सब को वितरित किया जाएगा । इस प्रसाद को पाकर सभी लोग धन्य हो जाएंगे । उनके सभी तरह के पापों का अंत हो जाएगा । तो आपने देखा कि भगवान का प्रसाद पाने के लिए देवताओं को भी तप करना पड़ता है और हम सब यह महाप्रसाद भगवान जगन्नाथ पुरी के धाम में प्राप्त कर सकते हैं इस महाप्रसाद की महिमा अपरंपार है ।

When God Himself came to help the child

Once upon a time, Narad ji used to go to Baikunthdham every day to have darshan of Lord Vishnu. And come back after seeing God. This routine went on every day. Then one day this thought came in the mind of Narad ji that tomorrow I will get God's prasad how good it will be. Thinking this, he went to Mata Lakshmi and requested her that mother, if you give me God's prasad, then you will be very pleased. But Mata Lakshmi says that getting the prasad of God is not so easy. God's command is very necessary for that. I cannot give God's prasad to anyone without God's permission. Then Narada did hard penance for 12 years to please the Lord. But getting God's prasad was not so easy. Even after doing so much penance, Narada did not get prasad. Now they started thinking what should I do? that I may get the blessings of God. Then Narad ji made a plan. Narada took the form of a woman. Wearing a sari and making up, he used to sweep the Lord's court every night between two o'clock and three o'clock. After doing complete cleaning at night, they used to leave from there. Lakshmi Mata got into thinking that who sweeps the court of God at three o'clock in the night? Lakshmi ji wanted to know who goes to clean the whole court this morning. This went on for several days. One day Lakshmi ji decides that whoever cleans here, I will find him. So she stood at night hiding behind a tree. Then at exactly 3 o'clock Narad ji came wearing a sari in the form of a woman and started cleaning the court of God. Narad ji was engaged in cleaning with full dedication, then Lakshmi ji came from behind and caught Narad ji and started asking who are you? And why do you keep quiet? what is your intention? In this way Mata Lakshmi ji asked many questions at once. Then Narad ji came in his real form and said to Mother Lakshmi – Mother, I am Narada. I am serving God with the spirit of getting God's prasad so that God may be pleased to give prasad. Lakshmi ji said that you did penance for so many years, yet you did not get the prasad and now you are sweeping to get the prasad. Mother was very surprised. Narad ji again urged that mother herself should talk to Lord Vishnu. Mother Lakshmi went to Lord Vishnu and said to the Lord - O! God . Naradji, you are asking a lot for your prasad. Please accept his request. Then Lord Vishnu smiled and said that you go and prepare fifty-six bhog food for Narada ji. Then Mata Lakshmi ji prepares the offerings of Lord Vishnu after getting the permission of God. Cooks fifty six types of food. They offer bhog to Lord Shri Vishnu ji. After eating some prasad, God asked him to give the rest of the prasad to Narad ji. Mother Lakshmi ji gave God's prasad to Narad ji by the order of the Lord. Narad ji was very happy and ate the whole prasad. Then Narada started contemplating the name of the Lord. Narad ji Narayan - While doing Narayan, went straight to Kailash, the abode of Lord Shiva. Seeing Narad ji, Lord Shiva asked what is the matter Narada? You are very happy today. Narad ji says that today I have got to eat the Prasad of Lord Vishnu. I was blessed. Shiv ji said – This is wrong, you ate alone. We were not given prasad. Narad ji says that while eating prasad, I could not remember anything except God. So I ate all the prasad. Then Lord Shiva's eyes fell on a grain of rice on Narada's mouth. Lord Shiva took a grain of the same rice, then he too became engrossed in Lord Vishnu and started dancing happily. When Mata Parvati saw Lord Shiva in such a devotional spirit, she also asked what has happened? You seem so happy. Please tell me Lord Shiva told the whole story to Mother Parvati, then Mother Parvati gets angry and tells Lord Shiva that I am your half fire, yet you did not give me prasad and ate it on your own. If you had got a grain of rice, you would have given half to me. Mother Parvati gets angry and goes to Baikunth Dham. And tells Lord Vishnu that you have not given me your prasad. Lord Shiva and Narad ji have received your prasad. But I didn't get it. Then Lord Vishnu tells Mata Lakshmi ji that you should prepare food again and after offering me food, then give it to Mother Parvati ji. Then Mother Lakshmi did the same. On receiving the prasad, the anger of Mother Parvati was pacified. Lord Vishnu promised Mata Parvati ji that I would be seated in Jagannathpuri in the form of Jagannath ji in Kali Yuga. , There I will have fifty-six kinds of bhog. Prasad will be given to you first after I enjoy it. Therefore your temple will also be established in the same courtyard. There your name will be famous as Mata Vimala Devi. Everyone will worship you, only after offering you prasad, my prasad will become Mahaprasad. Only then will it be distributed to all. Everyone will be blessed by getting this prasad. All their sins will come to an end. So you have seen that to get the prasad of God, even the deities have to do penance and we all can get this Mahaprasad in the dham of Lord Jagannath Puri. The glory of this Mahaprasad is unmatched.