langde bhikhari ki badduaa | लंगड़े भिखारी की बद्दुआ |

 



















एक गरीब भिखारी था । वह हर रोज भीख मांगता था और जो भी पैसे या खाना मिलता  वह उसे अपनी झोपड़ी में  ले जाता और अपनी पत्नी के साथ बांटकर खाता था । उस भिखारी की कोई संतान नहीं थी । भिखारी की पत्नी बीमार होने की वजह से एक टूटी हुई खाट पर ही पड़ी रहती थी ।एक दिन की बात है वह भिखारी  एक अमीर व्यक्ति के घर के दरवाजे पर जाकर भीख मांगता है । तो वह अमीर व्यक्ति उस भिखारी को गालियां देता है और बोलता है कि – जाओ यहां से, मेरे पास तुम्हें देने के लिए फालतू पैसे नहीं है । तुम यहां कमा कर नहीं रख गए हो ,जो मैं तुम्हें भीख दूं । और कभी-कभी वह अमीर आदमी उस भिखारी को धक्का भी दे देता । मगर वह गरीब भिखारी बस इतना ही कहता कि भगवान तुम्हारे पापों को क्षमा करें । और वहां से चला जाता । दूसरे दिन भी वह भिखारी उस अमीर व्यक्ति के घर के दरवाजे पर जाकर भीख मांगता है ।  उस दिन उस अमीर व्यक्ति का अपनी पत्नी से झगड़ा हो जाता है और वह उस कारण बहुत गुस्से में होता है । जब वह भिखारी उससे भीख मांगता है तो वह गुस्से में आकर उस भिखारी का सिर एक पत्थर से फोड़ देता है । उस भिखारी के सिर से खून निकलने लगता है ।  मगर तब भी वह भिखारी इतना ही बोला कि भगवान तुम्हारे पापों को क्षमा करें । और आगे चला जाता है । उस अमीर व्यक्ति का जब गुस्सा कम हुआ तो वह सोचने लगा कि मैंने उस भिखारी को पत्थर से मारा फिर भी उसने मुझे कुछ भी ना कह कर मेरे लिए भगवान से दुआ मांगी । आखिर इस भिखारी के अंदर इतना संतोष कैसे है ?  मुझे यह सब जानना होगा । उसके अंदर यह सब जानने की  उत्सुकता बढ़ गई । फिर वह अमीर व्यक्ति उस भिखारी को ढूंढता ढूंढता फिरता है । उसे वह भिखारी एक घर के सामने भीख मांगता दिखाई देता है । वह अमीर आदमी उस भिखारी का पीछा करता है । वह भिखारी जहां जहां जाता वहां वहां वह अमीर व्यक्ति भी जाने लगा ।तब वह अमीर व्यक्ति देखता है कि कोई उस भिखारी को गालियां देता और कुछ लोग उस भिखारी को जलील करते । मगर भिखारी उन सब को इतना ही कहता कि भगवान तुम्हारे पापों को क्षमा करें । भिखारी जब अपनी झोपड़ी में वापस लौट रहा था । वह अमीर व्यक्ति भी उसके पीछे पीछे जा रहा था । भिखारी ने जैसे ही अपनी झोपड़ी में प्रवेश किया तो उसकी बीमार पत्नी उठ खड़ी हुई । उसका भीख का कटोरा देखने लगी तो उस  कटोरे में केवल एक ही रोटी थी । तब भिखारी की पत्नी बोली कि बस एक ही रोटी। और आपके सिर पर यह खून कैसे निकल रहा है ? आपको यह चोट कैसे लगी ?  तब भिखारी बोला कि आज के लिए एक रोटी ही है । सब ने मुझे बहुत गालियां दी और पत्थर मारे जिसकी वजह से यह खून निकला  है । यह सब हमारे पापों का फल है । तुम्हें याद है कि कुछ साल पहले हम भी अमीर हुआ करते थे । हमारे पास बहुत सारी धन दौलत थी । उस धन दौलत पर हमें बहुत अभिमान था । और वह लंगड़ा भिखारी जिसे हम बहुत परेशान करते थे । जब वह हमारे घर के दरवाजे पर भीख मांगने आता था तो हम उसे कितना सुनाते थे और ना ही उसे भीख देते थे । और तो और उसकी लाठी छीन कर उसको नीचे गिरा दिया करते थे । वो जमीन पर पड़ा हुआ कहता था कि मेरी लाठी मुझे दे दो , मैं इसके बिना चल नहीं पाऊंगा । लेकिन हम उसे उसकी लाठी नहीं देते थे और उसे ऐसा ही पड़ा हुआ देखकर खूब हंसते थे । अपने घर के कुत्तों को उसके पीछे छोड़ देते थे । एक बार तो हमने उसके भीख का कटोरा भी फेंक दिया था ।तब वो कहता था कि तुम्हारे पापों का हिसाब भगवान करेगा । मुझे लगता है कि हमें उसे लंगड़े भिखारी की बद्दुआ लग गई है और अब भगवान हमारे पापों का हिसाब कर रहा है । हमारी फैक्ट्री में जो आग लगी थी लगता है वह उस लंगड़े भिखारी की ही बद्दुआ थी । भिखारी बोला इसलिए मैं कभी भी किसी को बद्दुआ नहीं देता चाहे लोग मुझे कितनी भी गालियां दे या मेरा अपमान करें ।मगर मैं सब को दुआ ही देता रहूंगा ।क्योंकि मैं यह नहीं चाहता कि कोई और भी मेरे जैसे इतने बुरे दिन देखे ।मेरे साथ गलत करने वालों को भी मैं दुआ देता रहूंगा क्योंकि उनको यह मालूम ही नहीं होता कि वे कोई पाप कर रहे हैं ।जैसे हमने किया था। यह बातें वह अमीर व्यक्ति झोपड़ी के बाहर खड़ा होकर सुन रहा था । उसे अब सारी बातें समझ में आ गई ।भिखारी की पत्नी ने जो रोटी भीख में मिली थी वह आधी आधी कर दी और दोनों पति-पत्नी उस आधी –आधी रोटी को खा कर सो गए। अगले दिन वह भिखारी उसी अमीर व्यक्ति के घर के दरवाजे पर जाकर भीख मांगने लगता है ।तब अमीर व्यक्ति ने उसे बहुत सारा खाना दिया और कुछ पैसे भी दिए । भिखारी ने उसे दुआ दी और चला गया ।


There was a poor beggar. He used to beg everyday and whatever money or food he got, he would take it to his hut and share it with his wife. The beggar had no children. The beggar's wife used to be lying on a broken cot due to illness. It is a matter of one day that the beggar goes to the door of a rich man's house and begs. So that rich person abuses that beggar and says - go from here, I don't have extra money to give you. You have not earned and kept here, which I should beg you. And sometimes that rich man would even push that beggar. But that poor beggar would only say that God forgive your sins. and leaves from there. On the second day also the beggar goes to the door of the rich person's house and begs. That day the rich man got into a fight with his wife and he was very angry because of that. When that beggar begs him, he gets angry and breaks the head of that beggar with a stone. Blood starts pouring out of that beggar's head. But even then the beggar only said that God forgive your sins. And goes on. When the anger of that rich person subsided, he started thinking that I hit that beggar with a stone, yet he did not say anything to me and prayed to God for me. After all, how is there so much contentment inside this beggar? I need to know all this. The curiosity to know all this increased in him. Then that rich person goes on searching for that beggar. He sees that beggar begging in front of a house. The rich man follows the beggar. Wherever that beggar went, that rich person also started going there. Then that rich person sees that someone abuses that beggar and some people insult that beggar. But the beggar tells them all only that God forgive your sins. When the beggar was returning to his hut. That rich man was also following him. As the beggar entered his hut, his ailing wife stood up. When she started looking at his begging bowl, there was only one roti in that bowl. Then the beggar's wife said that only one bread. And how is this blood coming out on your head? How did you get this injury? Then the beggar said that there is only one roti for today. Everyone abused me a lot and threw stones because of which this blood has come out. All this is the result of our sins. You remember we used to be rich a few years back too. We had lots of wealth. We were very proud of that wealth. And that lame beggar whom we used to harass a lot. When he used to come to the door of our house to beg, we used to tell him how much and neither did we give him alms. And he used to snatch his sticks and put him down. He used to lie on the ground saying that give me my stick, I will not be able to walk without it. But we did not give him his stick and we used to laugh a lot seeing him lying like this. He used to leave the dogs of his house behind him. Once we even threw his begging bowl. Then he used to say that God will pay for your sins. I think we have got him the bad name of a lame beggar and now God is accounting for our sins. The fire that broke out in our factory seems to have been that lame beggar's gun. The beggar said that's why I never bully anyone, no matter how much people abuse me or insult me. But I will keep praying to everyone. Because I do not want anyone else to see such bad days like me. I will keep praying to those who do wrong because they do not even know that they are committing any sin. Like we did. The rich man was listening to these things standing outside the hut. He understood everything now. The beggar's wife halved the bread that she had received in begging, and both the husband and wife slept after eating that half-and-half. The next day the beggar starts begging at the door of the same rich person's house. Then the rich person gave him a lot of food and also some money. The beggar prayed to him and left.

किसने दिया यमलोक के धर्मराज को श्राप ? विदुर की सच्ची कहानी ,





















 


बहुत पहले की बात है ऋषि मांडवय नाम के बहुत ही उच्च तपस्वी थे । उन्होंने अपनी तपस्या के बल पर बहुत से पुण्य अर्जित कर लिए थे । एक दिन की बात है ऋषि मांडवय अपनी कुटिया में बैठे तपस्या कर रहे थे । वे भगवान के ध्यान में लीन थे ।तभी तीन चोर जो कि व्यापारी की वेशभूषा में थे ,उनके पास दौड़ते हुए आते हैं और कहते हैं कि – हे ब्राह्मण देव ! हमें बचा लीजिए , हमारे पीछे कुछ डाकू पड़े हुए हैं जो हमारी तरह ही व्यापारी का वेश बनाए हुए हैं । वह हमसे हमारा धन लूटना चाहते हैं । उन तीनों चोरों के पास बहुत सारा धन था । तीनों चोर महर्षि से झूठ बोल रहे थे । उनके पीछे वास्तव में डाकू नहीं बल्कि राजा के सिपाही व्यापारी वेशभूषा में थे। जो उन्हें पकड़ने के लिए आ रहे थे ।महर्षि मांडवय ने उन तीनों चोरों की बात को सच समझ कर और उन्हें व्यापारी समझ कर अपनी कुटिया में छिपा लिया । तीनों चोर चोरी के धन को ऋषि मांडवय जी की कुटिया में रखकर भाग गए । जब व्यापारियों का वेश धारण किए हुए राजा के सिपाही महर्षि मांडवय की कुटिया के समीप पहुंचे तो उन्होंने उन चोरों को वहां से भागते हुए देख लिया ।  वे ऋषि मांडवय के पास आए और कहने लगे कि ब्राह्मण देव आपने उन चोरों को क्यों भगा दिया ? ऋषि मांडवय बोले कि वे चोर नहीं थे , वे तो अपने आप को बड़ा व्यापारी बता रहे थे और तुम लोगों को डाकू बताकर तुम से बचना चाहते थे । बचने के लिए मेरी कुटिया में शरण मांगने आए थे । राजा के सिपाही बोले कि नहीं ब्राह्मण देव वे डाकू थे ,जो राहगीरों का सामान लूटते थे ।राजा के आदेश अनुसार हमने व्यापारी का वेश बनाया और उन चोरों से सामना किया । हमने भी व्यापारियों का वेश बनाकर उन्हें पकड़ने की योजना बनाई और जब हम उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे भाग रहे थे तब वे आपकी कुटिया में आ गए । ऋषि मांडवय नहीं समझ पाए कि सच कौन बोल रहा है ।राजा के सिपाही ऋषि मांडवय को उन चोरों का साथी ही समझ बैठे और चोरी के धन को ऋषि मांडवय की कुटिया से प्राप्त कर लिया । ऋषि को सिपाही राजा के पास लेकर गए और कहा कि हे राजन ! यह ब्राह्मण देव उन चोरों के साथी हैं इन्होंने उन चोरों को वहां से भगा दिया । तब राजा ने कहा की हे ब्राह्मण देव ! तुम ब्राह्मणों का वेश धारण करके लोगों की आस्था के साथ खेल रहे हो । सब आपको ब्राह्मण समझकर आप की पूजा करते हैं ,आप का सम्मान करते हैं और आप उन्हें धोखा देते हो । ऋषि मांडवय ने राजा को बहुत समझाया कि वह झूठ नहीं बोल रहे । उन्होंने चोरों को सज्जन पुरुष समझा था और उन्हें बचाने के लिए अपनी कुटिया में शरण दी थी । परंतु राजा ने उनकी बात नहीं मानी और अपने सिपाहियों से कहकर ऋषि मांडवय को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया । राजा के सिपाही ऋषि मांडवय को सूली के पास लेकर गए और उन्हें सूली पर चढ़ा दिया  ।परंतु ऋषि मांडवय  ने अपनी योग शक्ति के द्वारा समाधि धारण कर ली ।ऋषि मांडवय के शरीर का सूली भेदन नहीं कर पाई । क्योंकि ऋषि मांडवय ने योग शक्ति के द्वारा अपने आप को बचा लिया था । वे सूली पर चढ़े हुए ही समाधि में लीन हो गए ।जब राजा के सिपाही ने देखा कि ऋषि मांडवय के आसपास एक बहुत बड़ा प्रकाश पुंज बन गया है और  उनके शरीर का सूली भेदन नहीं कर पा रही , तो वे सब घबरा गए । यह सब चमत्कार देखकर आसपास सभी लोग इकट्ठा हो गए ।और ऋषि मांडवय की शक्ति को नमस्कार करने लगे ।  उन सभी लोगों की भीड़ में एक साधु भी था जिन्होंने उन ऋषि को पहचान लिया और कहा कि यह तो ऋषि मांडवय है । उस साधु के ऐसा कहते ही राजा के सिपाही दौड़कर राजा के पास गए । उन्होंने राजा को सारी बात बताई और कहा कि वे ऋषि मांडवय है । मांडवय ऋषि का नाम सुनकर राजा बहुत घबरा गया । और सोचने लगा कि उससे ऐसी बड़ी गलती कैसे हो सकती है ? कि उसने ऋषि मांडवय को ही नहीं पहचाना । राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ । वे दौड़कर ऋषि मांडवय के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी । और कहा कि हे ऋषि ! मुझे माफ कर दीजिए ,आप चाहे तो मुझे मेरे अपराध का दंड दे सकते है। इसे मैं अपना प्रायश्चित समझूंगा ।आप कृपा करके सूली से नीचे उतर आइए । परंतु ऋषि मांडवय ने सूली से नीचे उतरने के लिए मना कर दिया और कहा कि राजा मैं आपकी आज्ञा का पालन कर रहा था ।राजा प्रजा को जैसा आदेश देता है वह वैसा ही करती है । अब आप सूली से उतरने के लिए कह रहे हैं तो मैं सूली से नहीं उतरूंगा बल्कि सीधा पहले धर्मराज के पास जाऊंगा । क्योंकि उन्हीं के कारण मुझे यह दंड मिला है ।इसमें आपका कोई दोष नहीं है ।जैसी आपको परिस्थिति नजर आई आपने वैसा ही दंड दिया । यह कहते ही ऋषि मांडवय धर्मराज के पास गए ।  धर्मराज के पास जाकर बोले कि मैंने ऐसा कौन सा बुरा कर्म किया था कि आपने मुझे जिसका इतना घोर दंड दिया । जहां तक मुझे याद है मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में कुछ भी बुरा कार्य नहीं किया ।  तब धर्मराज बोले कि हे ऋषि मांडवय जब आप बचपन में थे तब आपने एक तितली को पकड़ कर उसको तिल्ली से भेदन कर दिया था । उसी का दंड मैंने आपको दिया है । तब ऋषि मांडवय  बोले कि – शास्त्र और धर्म अनुसार जन्म से लेकर 12 वर्ष तक के बच्चों के द्वारा किया गया कोई भी अपराध दंडनीय नहीं होता है । क्योंकि उन्हें 12 वर्ष तक अच्छे या बुरे कर्म का पता ही नहीं होता ,ना ही धर्म और अधर्म का पता होता है । तो आप उनके द्वारा किए गए कार्यों का दंड कैसे दे सकते हैं । जब मैंने किसी तितली  को भेदन किया होगा उस वक्त मुझे ज्ञान नहीं था कि क्या सही है और क्या गलत  । जब मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ उसके बाद से अब तक मैंने कोई भी अधर्म नहीं किया ।  आपने मेरे साथ यह गलत किया है । आप न्याय के  सिंहासन पर बैठने वाले मेरे साथ अन्याय कर गए । तब ऋषि माडवय  ने धर्मराज को श्राप दिया कि आप पृथ्वी लोक में एक शुद्र माता के गर्भ से जन्म लोगे और जो आपने मेरे साथ न्याय के सिंहासन पर बैठ कर अन्याय किया है उसी प्रकार आप पृथ्वी लोक पर न्याय और अन्याय की गुत्थी को आपस में सुलझा – सुलझा कर थक जाओगे । यही तुम्हारे अपराध का दंड है और तुम्हें यह पता नहीं चल पाएगा क्या सही है क्या गलत है ? यह कहकर ऋषि मांडवय दोबारा पृथ्वी पर लौट आए और अपनी कुटिया में आकर तपस्या करने लगे ।  तब धर्मराज जी ऋषि मांडवय के श्राप अनुसार द्वापर युग में पृथ्वी लोक पर एक दासी के गर्भ से जन्म लिया और विदुर जी कहलाए यह विदुर जी वही थे जो धृतराष्ट्र और पांडु के भाई थे



Long ago, there was a very high ascetic named Rishi Mandavaya. He had earned many virtues on the strength of his penance. It is a matter of one day that Rishi Mandavaya was doing penance sitting in his hut. They were engrossed in the meditation of the Lord. Then three thieves who were dressed as merchants came running to them and said – O Brahman God! Save us, some dacoits are lying behind us who are disguised as merchants just like us. They want to steal our money from us. Those three thieves had a lot of money. The three thieves were lying to the Maharishi. Behind them were not actually dacoits, but the king's soldiers in merchant attire. Those who were coming to catch them. Maharishi Mandvay hid the words of those three thieves as true and hid them in his hut as a businessman. The three thieves fled by keeping the stolen money in the hut of sage Mandavay ji. When the king's soldiers dressed as merchants reached near the hut of Maharishi Mandvay, they saw the thieves running away. They came to the sage Mandavay and started saying that Brahmin god, why did you drive away those thieves? Sage Mandavay said that he was not a thief, he was telling himself a big businessman and wanted to avoid you by calling you a robber. To escape, they had come to seek shelter in my hut. The king's soldiers said that no Brahmin gods were those dacoits, who used to rob the goods of the passers-by. According to the orders of the king, we disguised as merchants and faced those thieves. We also made a plan to capture the merchants disguised as them and when we were running after them to catch them, they came to your hut. Sage Mandavay could not understand who was telling the truth. The king's soldier mistook Rishi Mandavay as a companion of those thieves and got the stolen money from the hut of Rishi Mandavay. The soldiers took the sage to the king and said, O king! This Brahmin god is the companion of those thieves, he drove those thieves from there. Then the king said that O Brahmin god! You are playing with the faith of people by disguising themselves as Brahmins. Everyone treats you as a Brahmin and worships you, respects you and you deceive them. Sage Mandavaya explained a lot to the king that he was not lying. He considered the thieves to be gentlemen and had given shelter in his hut to save them. But the king did not listen to them and after telling his soldiers ordered the sage Mandavaya to be crucified. The king's soldiers took sage Mandavaya to the cross and crucified him. But the sage Mandavaya attained samadhi through his yogic power. The sage could not pierce the body of the sage Mandavaya. Because sage Mandavaya had saved himself by the power of yoga. They were absorbed in the samadhi as soon as they were crucified. When the king's soldier saw that a huge beam of light had formed around the sage Mandvaya and the crucifix could not pierce his body, they were all terrified. Seeing all these miracles, all the people gathered around. And the sage started saluting the power of Mandavaya. There was also a sage in the crowd of all those people who recognized those sages and said that this is Rishi Mandavaya. As soon as that monk said so, the king's soldiers ran to the king. He told the whole thing to the king and said that he is the sage Mandavaya. Hearing the name of the sage Mandavaya, the king was very nervous. And wondered how could he make such a big mistake? That he did not recognize the sage Mandavaya. The king realized his mistake. He ran to the sage Mandavaya and with folded hands he apologized for his crime. And said, O sage! Forgive me, you can punish me for my crime if you want. I will consider it my atonement. Please come down from the cross. But sage Mandavay refused to come down from the cross and said that the king I was following your orders. He does as the king orders the subjects. Now you are asking to come down from the cross, then I will not come down from the cross, but will go straight to Dharmaraj first. Because because of them I have got this punishment. It is not your fault in this. You punished the same as you saw the situation. After saying this, sage Mandavaya went to Dharmaraja. Going to Dharmaraj, he said that what such bad deed I had done that you punished me so severely. As far as I remember I have not done anything bad in my life till now. Then Dharmaraja said that O sage Mandavay, when you were in your childhood, you caught a butterfly and pierced it with the spleen. I have punished you for that. Then Sage Mandavay said that - According to the scriptures and religion, any crime committed by children from birth to 12 years is not punishable. Because they do not know about good or bad karma for 12 years, nor do they know about dharma and adharma. So how can you punish them for what they have done. When I would have pierced a butterfly, at that time I did not know what was right and what was wrong. I have not committed any adharma since the time I attained enlightenment. You have done this wrong to me. You who sit on the throne of justice have done injustice to me. Then sage Madvaya cursed Dharmaraja that you will be born in the earth world from the womb of a Shudra mother and who you have done injustice to me by sitting on the throne of justice, in the same way you solve the mystery of justice and injustice on earth. - solve And you'll be tired. This is the punishment for your crime and you will not be able to know what is right or wrong? Saying this the sage Mandavaya again returned to the earth and came to his hut and started doing penance. Then Dharmaraj ji took birth from the womb of a maidservant on earth in Dwapar yuga according to the curse of sage Mandvay and called Vidur ji, this Vidur ji was the same who was the brother of Dhritarashtra and Pandu.

कैसे बचाई भोलेनाथ ने एक बालक की जान। ऋषि मार्कण्डेय की सच्ची कहानी















 

पुराने समय में महामुनि मृकण्डु नाम के एक महर्षि थे । वे बहुत ही ज्ञानी और तेजस्वी थे । उनकी पत्नी का नाम  मरुद्वती था। उन दोनों की कोई संतान नहीं थी। इसीलिए महामुनि ने भगवान शिव की तपस्या करके पुत्र का वरदान पाने की इच्छा रखी । वे भगवान शिव की तपस्या करने के लिए बैठ गए । काफी समय तक भगवान की घोर तपस्या करने से भगवान शिव जी प्रसन्न हुए और उनके सामने प्रकट हुए । तब महा ऋषि ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनके पैरों में गिर गए । भगवान शिव ने कहा कि मैं तुम्हारी इस तपस्या से प्रसन्न हुआ तुम्हें जो मांगना है मांग सकते हो  । तो महा ऋषि ने भगवान शिव से पुत्र प्राप्ति का वरदान मांगा । भगवान शिव ने कहा किंतु तुम्हारे भाग्य में पुत्र प्राप्ति का कोई योग नहीं है । महर्षि बोले किंतु भोलेनाथ मैंने तो आपकी तपस्या पुत्र प्राप्ति के वरदान हेतु ही की है ,मुझे तो अगर कुछ चाहिए तो एक पुत्र का वरदान ही चाहिए । तब भगवान शिव ने महर्षि से कहा कि तुम्हें एक सकुशल ,प्रभावित, बुद्धिमान और 12 वर्ष तक जीवित रहने वाला पुत्र चाहिए या फिर एक दुर्व्यवहार, मंदबुद्धि और लंबी आयु वाला पुत्र चाहिए ।

तो महर्षि  ने सकुशल, प्रभावित, बुद्धिमान और 12 वर्ष तक जीवित रहने वाले पुत्र की मांग की। भगवान शिव ने उनकी इच्छा पूरी कर दी ।कुछ समय बाद श्री महर्षि की पत्नी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया ।  उन्होंने उसका नाम मार्कण्डेय रखा। मार्कण्डेय एक बहुत ही बुद्धिमान बालक था। वह नियमित रूप से अपना जीवन व्यतीत कर रहा था । उसने अपने 11 साल पूरे कर लिए थें। एक दिन जब मार्कण्डेय नदी से स्नान कर कर वापस अपने घर की ओर आया तो उसने देखा कि उसके माता-पिता बहुत ही चिंतित हैं ।माता की आंखों से आंसू आ रहे हैं और पिता जी के चेहरे पर एक अजीब सी परेशानी दिख रही है । इसलिए मार्कण्डेय उनके पास गया और पूछा कि मां ,पिता जी क्या हुआ है। आप दोनों इतने चिंतित क्यों लग रहे हो। तो महा ऋषि ने सारी बात मार्कण्डेय को बताई मार्कण्डेय ने मुस्कुराकर कहा  कि पिता जी अगर भगवान शिव ने मुझे 12 वर्ष तक जीवित रखा है । तो मैं भगवान शिव की आराधना करूंगा । उनसे और लंबी उम्र की कामना करूंगा । मार्कण्डेय की यह बात सुनकर  माता-पिता मुस्कुराए और मार्कण्डेय का साथ दिया। मार्कण्डेय जंगल में दूर जाकर एक नदी किनारे बैठ गए । वहां मिट्टी से एक शिवलिंग बनाया और उसको फूलों से सजा करके उसके  पास में बैठ करके तपस्या करनी शुरू कर दी । एक दिन की बात है वह प्रतिदिन की भांति शिवलिंग की आराधना में मग्न था। उनका अन्तिम समय आ गया था। अचानक वहां यमराज प्रकट हो गये जिन्हें देखकर वह नन्हा सा बालक डर गया ।उसने यमराज से उनके बारे में पूछा तो उन्होंने अपना प्रयोजन उसे बताया कि “हम तुम्हें लेने आये हैं तुम्हारी मृत्यु का समय आ गया है।“ऐसा सुनकर वह डर गया और अपनी छोटी-छोटी बांहों से शिवलिंग से लिपट गया और  महामृत्युंजयमंत्र का जाप करने लगा। ऐसा देखकर जैसे ही यमराज ने अपना मृत्यु पाश उसकी ओर फेंका तभी वहां भगवान शंकर प्रकट हो गये । शिव जी ने कहा कि हे यमराज ! आप इसे नहीं ले जा सकते ,अब यह मेरे संरक्षण में है। इस पर यमराज ने कहा प्रभु! इसका अन्तिम समय आ चुका है इसको इतना ही जीवन जीना था। यदि यह जीवित रहा तो यह प्रकृति के नियमों के विरूद्ध होगा। इस पर भगवान शंकर बोले मैंने इसे अभयदान दे दिया है । यह अल्पायु से दीर्घायु हो चुका है। ऐसा सुनकर यमराज बोले, जैसी प्रभु की इच्छा और वहां से चले गये। शिवजी ने उस बालक को उठाया और बोले तुम्हें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है पुत्र! मैं तुम्हें दीर्घायु और विद्वता का आशीर्वाद देता हूं। जब बालक ने उन्हें देखा तो उनके चरणों में गिर पड़ा। शिवजी ने उसे उठाया और पूछा और कोई वरदान मांगना चाहते हो तो बोलो। उसने कहा कि मुझे केवल अपनी भक्ति में डूबे रहने का वरदान प्रदान करने की कृपा करें । इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिये। शिवजी ने उसे मनचाहा वरदान दिया और कहां कि जब तक यह पृथ्वी रहेगी तब तक तुम जीवित रहोगे  । यह कहकर भोलेनाथ अन्तर्धान हो गये। यह बात उसने आकर अपनी मां और पिताजी को बताई तथा देखते ही देखते वह अपने नगर में प्रसिद्ध हो गया। आगे चलकर वही बालक शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता बना तथा श्री मार्कण्डेयपुराण की रचना की।

तो भक्तों आज भी इस कलयुग में इस पृथ्वी पर मार्कंडेय ऋषि एक दरिया के रूप में प्रवाहित है और अपने भक्तों का कल्याण करते हैं।



In olden times there was a Maharshi named Mahamuni Mrikandu. He was very knowledgeable and brilliant. His wife's name was Marudvati. Both of them did not have any children. That is why Mahamuni wished to get the boon of a son by doing penance to Lord Shiva. He sat down to do penance to Lord Shiva. Lord Shiva was pleased after doing severe penance of the Lord for a long time and appeared in front of him. Then Maha Rishi bowed down to Lord Shiva and fell at his feet. Lord Shiva said that I was pleased with this penance of yours, you can ask for whatever you want. So the great sage asked Lord Shiva for the boon of having a son. Lord Shiva said but there is no chance of getting a son in your destiny. Maharishi said but Bholenath, I have done your penance only for the boon of getting a son, if I want anything, then I want the boon of a son. Then Lord Shiva told Maharishi that you want a safe, affected, intelligent and 12 years old son or you want a misbehaving, retarded and long life son.

So Maharishi asked for a son who was safe, impressed, intelligent and would live for 12 years. Lord Shiva fulfilled his wish. After some time the wife of Shri Maharishi gave birth to a beautiful son. They named him Markandeya. Markandeya was a very intelligent child. He was leading his life regularly. He had completed his 11 years. One day, when Markandeya came back to his house after taking a bath in the river, he saw that his parents were very worried. Tears were coming from his eyes and a strange problem was seen on his face. So Markandeya went to him and asked what happened mother, father. Why do you both seem so worried? So the great sage told the whole thing to Markandeya, Markandeya smiled and said that father, if Lord Shiva has kept me alive for 12 years. So I will worship Lord Shiva. I wish him a longer life. On hearing this talk of Markandeya, the parents smiled and supported Markandeya. Markandeya went away in the forest and sat on the bank of a river. There he made a Shivling out of clay and decorated it with flowers and started doing penance by sitting next to it. It was a matter of one day that he was engrossed in the worship of Shivling as usual. His last time had come. Suddenly Yamraj appeared there, seeing that the little boy was frightened. He asked Yamraj about him, then he told his purpose that "We have come to take you, the time of your death has come." Hearing this, he got scared and He wrapped himself around the Shivling with his small arms and started chanting the Mahamrityunjaya Mantra. Seeing this, as soon as Yamraj threw his death loop towards him, only then Lord Shankar appeared there. Shiva said that O Yamraj! You can't take it, now it's under my protection. On this Yamraj said Lord! Its last time has come, he had to live this life. If it survives it will be against the laws of nature. On this, Lord Shankar said, I have given him protection. It has been long since short. Hearing this, Yamraj said, as per the will of the Lord and left from there. Shivji picked up that child and said, you do not need to be afraid, son! I bless you with longevity and scholarship. When the boy saw them, he fell at his feet. Shivaji picked him up and asked and if you want to ask for any boon, then speak. He said that please grant me the boon of being immersed in your devotion only. Apart from this, I don't want anything. Shivaji gave him the boon he wanted and where will you live as long as this earth is there. Saying this Bholenath disappeared. He came and told this to his mother and father and on seeing this he became famous in his city. Later on, the same child became a great knower of scriptures and composed Shri Markandeya Purana.


So devotees even today in this Kaliyuga, the Markandeya sage flows on this earth as a river and does welfare of his devotees.