जब गधे के रूप मे आए भगवान।











 


संत एकनाथ जी महाराष्ट्र के बहुत ही प्रसिद्ध संत थे ।    गुरु की कृपा और अपनी तपस्या से इन्होंने अल्पायु में ही भगवान दत्तात्रेय का दर्शन कर लिया था । एकनाथ जी बड़े ही सरल स्वभाव के और परोपकारी थे । 

एक दिन संत एकनाथ जी ने सोचा कि प्रयाग में जाकर त्रिवेणी में स्नान करें और त्रिवेणी से जल भरकर श्री रामेश्वरम पर चढ़ाएं । एकनाथ जी कुछ संतो को साथ लेकर प्रयाग आए। वहां पर आकर त्रिवेणी में स्नान किया और कावड़ में जल भरकर श्री रामेश्वरम के लिए यात्रा पर चल दिए । नंगे पैर चलते-चलते एकनाथ जी के पैरों में छाले भी पड़ गए थें । परन्तु न तो उन्हें भूख और प्यास की चिंता थी और ना ही तेज धूप की । उन्हें तो सिर्फ रामेश्वरम जाकर जल चढ़ाने की धुन लगी हुई थी । काफी समय से सफर तय करते हुए श्री एकनाथ जी ने काफी लंबी दूरी तय कर ली थी और उन्होंने बीच-बीच में कई जगह विश्राम भी किया था । लेकिन उनको इस बात की प्रसन्नता थी कि रामेश्वर अब थोड़ी ही दूर है और अब वे जाकर अपने प्रभु पर जल चढ़ाएंगे और उनके दर्शन करेंगे । चलते – चलते तभी एकनाथ जी ने देखा कि थोड़ी ही दूर एक गधा प्यास के मारे तड़प रहा है । और ठीक से चल भी नहीं पा रहा है । संतो के मन में गधे को देखकर दया आई किंतु उन्हें तो अपना जल श्री रामेश्वरम जी पर जाकर चढ़ाना था । इसलिए संतों ने उस गधे की कुछ भी मदद नहीं की। उस क्षेत्र में कहीं दूर दूर तक जल नही था । गधा सभी जल ले जाने वालों की ओर बड़ी ही दीनता से देख रहा था । किंतु किसी ने भी उसे जल नहीं पिलाया और सब आगे चले जा रहे थे । किंतु एकनाथ जी बहुत ही दयालु स्वभाव के थे । उन्होंने बिना देरी किए अपनी कावड़ का जल , जो कि उन्हें रामेश्वरम पर चढ़ाना था , वह उस गधे को पिला दिया । जल मिलने पर मानो गधे को जैसे नया जीवन ही मिल गया हो । वह फिर से उठ बैठा और आसपास घास चरने लगा । तब संतो ने कहा आपने तो अपना सारा जल इस गधे को पिला दिया है । आपका तो इतनी दूर से कांवड़ में जल भरकर लाना व्यर्थ ही हो गया । तब एकनाथ जी बोले कि –  ईश्वर तो कण-कण में है , क्या पता ?  श्री रामेश्वर भगवान इसी के रुप में आकर ही जल स्वीकार करना चाहते हो । और वैसे भी किसी जीव के प्राणों को बचाना सबसे बड़ा पुण्य होता है ।  कहते है कि वो गधा एकनाथ जी के पास आया और उनसे मनुष्य की वाणी में बोलने लगा । सभी आश्चर्यचकित हो गए । तब गधा बोला कि इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है , मैं तो तुम्हारी परीक्षा लेने आया था । तुमने जो जल मुझे पिलाया है । समझो वह तुमने रामेश्वरम पर ही चढ़ा दिया । क्योंकि मैं स्वयं शिव हूं । जो तुम्हारे धर्म की परीक्षा लेने आया था ।

एक और अन्य अदभुत घटना के अनुसार कहते है कि –  बहुत से जो रूढ़िवादी संत और पंडित लोग थे वे सब एकनाथजी की लोकप्रियता से चिढ़ते थें । उन पंडितों ने एकनाथ जी के बेटे हरि पंडित जी को एकनाथ जी के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया । वे कहते थे कि – तुम्हारे पिता तो किसी भी छोटी जाति वालों के घर जाकर कुछ भी खा पी लेते हैं  । उन्हें अपने ब्राह्मण होने का थोड़ा सा तो मान रखना चाहिए । पंडितों की बात सुनकर हरि पंडित घर जाकर अपने पिता एकनाथ जी से कहने लगे कि हम ब्राह्मण लोग है और आप इतने बड़े पंडित हैं ,आप को अपनी प्रसिद्धि का ध्यान रखना चाहिए । संत एकनाथ जी कुछ नहीं बोले । अगले दिन एक बूढ़ी औरत एकनाथ जी के घर आई और बोली कि मुझे एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराना है । परंतु मेरे पास इतना धन नही है कि मैं 1000 ब्राह्मणों को भोजन करा सकूं । यदि आप मेरे घर चल कर भोजन करेंगे , तो मैं समझूंगी कि मैंने 1000 ब्राह्मणों को भोजन करा दिया है । एकनाथ जी के बेटे हरि पंडित ने कहा – ठीक है , परंतु भोजन मैं ही बनाऊंगा । तभी जाकर मेरे पिताजी भोजन करेंगे ।  बूढ़ी औरत ने कहा ठीक है , जैसी तुम्हारी इच्छा । अगले दिन एकनाथ जी के बेटे हरि पंडित ने जाकर भोजन बनाया । एकनाथ जी जब भोजन करके उठने लगे , तब जैसे ही उनके पुत्र हरि पंडित जी उनकी पत्तल उठाने लगे तो जैसे ही उन्होने पहली पत्तल उठाई वहां पर दूसरी पत्तल अपने आप आ गई । हरि जी ने दूसरी पत्तल उठाई तो तीसरी पत्तल  प्रकट हो गई और इस तरह करके 1000 पत्तल उनके बेटे ने उठाई । उनके बेटे समझ गए कि उनके पिता कोई साधारण संत नहीं है । बल्कि उनके पिता हजारों विद्वानों के बराबर है । यह देखकर उनका बेटा अपने पिता के चरणों में गिर पड़ा और बोला–  पिताजी , मुझे माफ कर दीजिए । मैं झूठे पंडितों के चक्कर में आकर आप के विरुद्ध हो गया था । संत एकनाथ जी ने उसे क्षमा किया और उसे समझाया कि हर प्राणी में ईश्वर बसा है , कोई भी इस दुनिया में छोटा या बड़ा नहीं होता ।  हम सब उस ईश्वर की ही संतान है ।


Sant Eknath ji was a very famous saint of Maharashtra. With the grace of the Guru and his penance, he had seen Lord Dattatreya at a very young age. Eknath ji was very simple and benevolent.

One day, Saint Eknath ji thought that he should go to Prayag and take bath in Triveni and fill it with water from Triveni and offer it to Rameshwaram. Eknath ji came to Prayag with some saints. After coming there, bathed in Triveni and after filling water in Kavad started on journey to Sri Rameshwaram. Eknath ji had blisters while walking barefoot. But he was neither worried about hunger and thirst nor about the hot sun. He was only interested in going to Rameshwaram and offering water. While traveling for a long time, Shri Eknath ji had covered a long distance and he also took rest at many places in between. But he was happy that Rameshwar was a short distance away and now he would go and offer water to his lord and see him. While walking, Eknath ji saw that a donkey was suffering from thirst just a short distance away. And can't even walk properly. Seeing the donkey felt pity in the mind of the saints, but they had to offer their water to Shri Rameshwaram ji. That's why the saints did not help the donkey in anything. There was no water in that area far and wide. The donkey was looking humbly at all the water-carryers. But no one gave him water and everyone was going ahead. But Eknath ji was of a very kind nature. Without delay, he made the donkey drink the water of his Kavad, which he was to offer at Rameshwaram. On getting water, it is as if a donkey has got a new life. He got up again and started grazing the grass around him. Then the saints said that you have given all your water to this donkey. Your bringing water in the kanwar from such a distance became in vain. Then Eknath ji said that - God is in every particle, do you know? Lord Rameshwar wants to accept water only by coming in this form. And anyway, saving the life of a living being is the biggest virtue. It is said that the donkey came to Eknath ji and started speaking to him in human voice. Everyone was surprised. Then the donkey said that there is nothing surprising in this, I had come to test you. The water you have given me. Understand that you have put it on Rameshwaram itself. Because I am Shiva himself. Who came to test your religion.

According to another wonderful incident, it is said that - Many orthodox saints and pundits were all irritated by the popularity of Eknathji. Those pundits started instigating Eknath ji's son Hari Pandit ji against Eknath ji. They used to say that – Your father goes to the house of any small caste and eats anything. They should take some pride in their being Brahmins. After listening to the pundits, Hari Pandit went home and started telling his father Eknath ji that we are Brahmin people and you are such a big pandit, you should take care of your fame. Sant Eknath ji did not say anything. Next day an old lady came to Eknath ji's house and said that I have to feed one thousand Brahmins. But I do not have enough money to feed 1000 brahmins. If you come to my house and eat food, then I will understand that I have fed 1000 brahmins. Eknath ji's son Hari Pandit said – Okay, but I will cook the food. Only then will my father have food. The old lady said okay, as you wish. The next day Eknath ji's son Hari Pandit went and prepared food. When Eknath ji started getting up after eating, then as soon as his son Hari Pandit ji started lifting his leaf, then as soon as he picked up the first leaf, the second leaf came automatically. When Hari ji picked up the second leaf, the third leaf appeared and in this way his son picked up 1000 leaves. His sons understood that his father was no ordinary saint. Rather his father is equal to thousands of scholars. Seeing this, his son fell at his father's feet and said – Father, forgive me. I had turned against you due to the illusion of false pundits. Saint Eknath ji forgave him and explained to him that God resides in every creature, no one is small or big in this world. We are all children of that God.

पैदा होते ही गधे की भांति रोने वाला बच्चा कौन था ? gyan ganga | a hindi story








 


गांधारी गांधार देश के राजा "सुबल " की कन्या थी । इसलिए उसे गांधारी कहा जाता था ।  गांधारी बचपन से ही   शिव जी की भक्ति करती थी ।  शिव जी ने उन्हें प्रसन्न होकर सौ पुत्रों का वरदान दिया था । गांधारी के एक भाई भी था जिसका नाम शकुनी था । गांधारी का विवाह हस्तिनापुर के राजा महाराज धृतराष्ट्र से हुआ था । धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे । विवाह के समय ही  गांधारी ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। क्योंकि उन्होने सोचा कि – जब उनके पति ही इस संसार को नहीं देख सकते , तो उन्हें भी इस संसार को देखने का कोई हक नहीं है । और एक पतिव्रता नारी होने के कारण उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली । महारानी गांधारी जब गर्भवती हुई , तो सब बहुत ही खुश थे ।  धृतराष्ट्र को तो अपने आने वाले युवराज का बेसब्री से इंतजार था । परंतु गांधारी के गर्भ को 2 वर्ष हो चुके थे । परंतु अभी तक उन्हे प्रसव की कोई भी पीड़ा नही हुई थी । उसी समय महारानी कुंती ने वन में युधिष्ठिर को जन्म दिया । इस खबर को सुनते ही धृतराष्ट्र महारानी गांधारी पर क्रोधित होने लगे ।  और उनसे कहने लगे कि उन्होंने अभी तक किसी पुत्र को जन्म क्यों नहीं दिया । उन्हें तो शिवजी से सौ पुत्रों का वरदान मिला है , फिर अभी तक एक भी पुत्र क्यों पैदा नहीं हुआ  । धृतराष्ट्र की ये बातें सुनकर गांधारी को अपने आप पर क्रोध आने लगा ।  क्रोध में आकर गांधारी ने अपने पेट पर बहुत जोर से मुक्का मारा । जिससे उसके गर्भ से मांस का एक बड़ा सा टुकड़ा निकला । सब यह देखकर आश्चर्य चकित हो गए। तब भगवान वेदव्यास को बुलाया गया और वेदव्यास ने अपनी शक्ति से उस मांस के टुकड़े को 100  भागों में बांटा ।  और आदेश दिया कि इन्हे अलग-अलग मिट्टी के घड़ों में घी भरकर रखा जाए । और एक वर्ष तक ना खोला जाए । 1 वर्ष के पश्चात उन में से एक मिट्टी के घड़े से एक बालक का जन्म हुआ । अपने जन्म के समय वह बालक गधे की तरह रोने लगा। उसके जन्म लेते ही बुरे अपशकुन होने शुरू हो गए थे । तब विदुर ने धृतराष्ट्र और गांधारी को सलाह दी कि आपका यह बच्चा इस राज्य के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है । इसलिए आप इसका त्याग कर दें । परंतु पुत्र मोह में आकर धृतराष्ट्र और गांधारी ने उसका त्याग नहीं किया । उसे गले से लगा लिया । इसके पश्चात  उन घड़ों से एक – एक करके 99 बच्चों ने जन्म लिया । और इस तरह गांधारी के सौ पुत्रों का जन्म हुआ । सबसे पहले जन्म लेने वाले पुत्र का नाम दुर्योधन रखा गया। उसके पश्चात गांधारी को फिर से गर्भ ठहरा और उसकी एक पुत्री पैदा हुई । जिसका नाम दुशाला था । दुशाला का विवाह सिंधु देश के राजा जयद्रथ से हुआ था । और महाभारत के युद्ध में अर्जुन के हाथों जयद्रथ की मृत्यु हुई थी ।


Gandhari was the daughter of King Subal of Gandhara country. That's why he was called Gandhari. Gandhari used to worship Lord Shiva since childhood. Shiva ji pleased him and gave him the boon of hundred sons. Gandhari also had a brother named Shakuni. Gandhari was married to King Dhritarashtra of Hastinapur. Dhritarashtra was blind since birth. At the time of marriage, Gandhari had blindfolded her. Because she thought that - when her husband cannot see this world, then she also has no right to see this world. And being a chaste woman, she blindfolded her. When Queen Gandhari became pregnant, everyone was very happy. Dhritarashtra was eagerly waiting for his coming crown prince. But it had been 2 years since Gandhari's pregnancy. But till now she had not felt any pain of childbirth. At the same time, Queen Kunti gave birth to Yudhishthira in the forest. On hearing this news, Dhritarashtra got angry at Queen Gandhari. And started telling them why they have not given birth to any son yet. He has got the boon of a hundred sons from Shiva, then why not a single son was born till now. Hearing these words of Dhritarashtra, Gandhari started getting angry with himself. In anger, Gandhari punched his stomach very hard. Due to which a big piece of meat came out of her womb. Everyone was surprised to see this. Then Lord Ved Vyas was called and Ved Vyas with his power divided that piece of meat into 100 parts. And ordered that they should be kept in separate earthen pots filled with ghee. And don't open for a year. After 1 year, a child was born from one of them from an earthen pot. At the time of his birth, the boy started crying like a donkey. Bad omens started happening as soon as he was born. Then Vidura advised Dhritarashtra and Gandhari that this child of yours can prove to be disastrous for this kingdom. So you give up on it. But Dhritarashtra and Gandhari did not abandon him due to son's attachment. He hugged her. After this 99 children were born one by one from those pots. And thus Gandhari's hundred sons were born. The first born son was named Duryodhana. After that Gandhari got pregnant again and a daughter was born to her. Whose name was Dushala. Dushala was married to Jayadratha, the king of the Indus country. And in the war of Mahabharata, Jayadratha died at the hands of Arjuna.

Gyan Ganga | अद्भुत। आश्चर्य। जग्गनाथपुरी की सच्ची घटना | a true hindi story | Jaggannathpuri























 


पीपलीचट्टी नाम का एक गांव था । जो जगन्नाथपुरी के पास पड़ता था । उस गांव में रघु नाम का एक व्यक्ति रहता था । वह जाति का धीवर था । उसके घर में उसकी पत्नी और एक बूढ़ी मां थी । रघु मछलियां पकड़ कर और उन्हें बेचकर अपने परिवार का पालन पोषण करता था । रघु एक बहुत ही दयालु किस्म का व्यक्ति था । वह बचपन से ही भगवान की भक्ति में और भगवान में बहुत ही विश्वास रखता था । जब वह मछलियां पकड़ने जाता था और मछलियां  जाल में आकर तड़पने लगती थी तो वह उन मछलियों को देखकर बहुत ही व्याकुल हो जाता था । लेकिन अपने परिवार के भरण-पोषण के खातिर उसे उन मछलियों को पकड़कर बाजार में मजबूरन बेचना पड़ता था । वह इस काम से खुश नहीं था । रघु ने एक गुरु जी से गुरुमंत्र लिया । वह अब नित्य स्नान करके सबसे पहले अपने भगवान के नाम का जाप करता था , बाद में अपने काम पर जाता था । जब भी कभी उसे मौका मिलता तो वह सत्संग और कीर्तन में जाया करता था । सत्संग में जब गुरु जी कहते कि प्राणी मात्र में भगवान है और हमें किसी भी प्राणी या जीव पर हिंसा नहीं करनी चाहिए ,तो उसे इन सब बातों को सुनकर उसका मन धीरे-धीरे शुद्ध हो चुका था और उसे जीव हिंसा से घृणा हो गई थी । एक दिन उसने निश्चय किया कि आज वह मछली पकड़ने नहीं जाएगा । और उसने मछली पकड़ना बंद कर दिया ।  घर में जो भी राशन था वह धीरे-धीरे समाप्त होने लगा । एक दिन ऐसा आया कि उसके घर में कुछ भी नहीं बचा था । उस दिन उसकी पत्नी और उसकी मां भूखी थी । वह दोनों उसे भला बुरा कहने लगी । अंत में अपनी पत्नी और अपनी मां की बातों से परेशान होकर उसने मछली पकड़ने का निर्णय लिया । और  वह मछली पकड़ने तालाब पर गया । भगवान को हाथ जोड़कर जैसे ही उसने जाल तालाब में डाला । उसके जाल में एक बहुत बड़ी मछली आकर फंसी । जब उसने वह जाल बाहर निकाला तो मछली बाहर आकर तड़पने लगी । उसे अपने गुरु की कही हुई बात याद आने लगी और उसे मछली में भगवान प्रतीत होने लगे । लेकिन साथ ही साथ उसे अपनी पत्नी और अपने माता के भूखे होने का भी ख्याल मन में आया । उसने हाथ जोड़कर उस मछली से कहा कि आप जो भी हो , मुझे क्षमा करना । लेकिन मेरे पास मछली पकड़ने के अलावा और कोई भी जीवन यापन का सहारा नहीं है । इसलिए मैं आप को मारने पर मजबूर हूं । उसने दोनों हाथ से जैसे ही मछली के मुंह को पकड़ा और फाड़ने लगा , तभी उस मछली में से आवाज आई कि – नारायण मेरी रक्षा करो , नारायण मेरी रक्षा करो । मछली में से आई आवाज को सुनकर रघु आश्चर्य चकित हो गया और वह उस मछली को लेकर वन की ओर भागा । वहां वन में उसे एक पानी का बड़ा सा कुंड दिखाई दिया । उसने मछली को उस कुंड में डाल दिया । वह अपने परिवार की भूख भूल गया और साथ ही उसे याद ही नहीं रहा कि वे दोनों उसकी प्रतीक्षा कर रही होंगी । वह उस मछली को देखकर बोला कि – हे भगवन  ! आपने मुझे इस मछली के अंदर से अपना स्वर सुनाया है । आपका स्वर इतना मीठा है , तो आप की छवि कितनी सुंदर होगी । हे भगवान मुझे दर्शन दीजिए । ये कहता हुआ वहीं बैठकर नारायण नाम का जप करने लगा । जप करते हुए उसे कई दिन हो गए । उसे अपनी भूख और प्यास का भी बिल्कुल ध्यान नहीं रहा । उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाया और उसके पास आए और बोले कि – तू कौन है और यहां पर क्यों बैठा है । रघु का ध्यान टूटा और उसने देखा कि उसके सामने एक ब्राह्मण देव खड़े हैं । उसने ब्राह्मण को प्रणाम किया और कहा कि –  कृपया आप मेरे ध्यान में विघ्न ना डालें । मैं भगवान नारायण का नाम जप रहा हूं । कृपया करके आप यहां से चले जाइए । मैं आपसे कुछ भी बात नहीं करना चाहता । तब ब्राह्मण बोले कि – अरे तपस्वी , तू क्यों मूर्ख बन गया है । क्या कभी कोई मछली भी बोल सकती है । तब रघु उनके मुख से मछली वाली बात सुनकर चौंक गया और सोचा कि ये तो साक्षात प्रभु ही हैं । जो मेरी इस मछली वाली बात को जानते हैं । तब उसने उनके चरण पकड़ लिए और कहा कि – हे प्रभु मैं बहुत पापी हूं, मैं जीवो की हत्या करता हूं । आप मेरी परीक्षा लेने यहां पर आए हैं । प्रभु कृपया मुझे दर्शन दीजिए । उसकी पुकार को सुनकर भगवन साक्षात चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गए  । और उसे वरदान मांगने को कहा । रघु बोला कि प्रभु मुझे आपके दर्शन हो गए और मुझे कुछ नहीं चाहिए । बस अपनी भक्ति का आशीर्वाद दीजिए । भगवान ने उसे अपनी भक्ति का आशीर्वाद दिया । तब रघु बोला कि हे प्रभु मैं जाति से धीवर हूं । मछली पकड़ने का काम करता हूं और यह हमारा पैतृक व्यवसाय है । मैं अपने इस व्यवसाय को छोड़ना चाहता हूं । मैं आपकी भक्ति में लीन रहना चाहता हूं । आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि जब मुझे मृत्यु आए , तब भी मैं आपका नाम लेता रहूं। भगवान ने उसे तथास्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गए । रघु भगवान हरि का नाम जपता जपता अपने घर आया । गांव के लोगों ने उसे देखते ही भला बुरा कहना शुरू कर दिया कि अपनी पत्नी और अपनी माता को भूखी छोड़ कर पता नहीं कहां चला गया था । वो तो गांव के लोगों ने उनके घर पर भोजन पहुंचाया और उनकी मदद की । रघु ने मन ही मन भगवान का धन्यवाद किया कि भगवान तूने उसकी अनुपस्थिति में उसके घर उसकी मां और उसकी पत्नी का भरण पोषण किया । अब वह भगवान का नाम जपता जपता गांव में ही भिक्षा मांगता था । उस भिक्षा से उनके घर का गुजारा चल जाता था । पहले वे सब भगवान का भोग लगाते और बाद में प्रसाद स्वरूप उस भोजन को ग्रहण करते थे । रघु पूरी तरह से बदल चुका था । वह भगवान के नाम में हर समय लीन रहता था । वह पूरी तरह से साधु बन गया था । यह सब देखकर उसकी पत्नी और माता भी बहुत खुश थी । भगवान का नाम लेते लेते कई घंटों तक उसकी समाधि लग जाती थी । किसी के प्रति उसके मन में राग और द्वेष ही नहीं था । वह भगवान का नाम लेकर गली-गली घूमता था । गांव के कुछ शैतान लड़के उसका मजाक उड़ाते थे । कुछ तो इतने दुष्ट थे कि उसे गालियां देते और उस पर मिट्टी के ढेले फेंकते थे । लेकिन रघु किसी को कुछ नहीं कहता था । रघु पर गालियों का और मार का कुछ भी असर नहीं पड़ता था । उसके मन से क्रोध ,लोभ ,मोह सब बाहर निकल चुके थे । वह सिर्फ भगवान का नाम जपा करता था । यह सब देखकर उन लड़कों की हिम्मत बहुत ही बढ़ गई थी। जब भी रघु गांव में भिक्षा मांगने जाता था , तो लड़के उसके पीछे-पीछे चलते थे और उसकी हंसी उड़ाते थें । गांव वाले उन लड़कों को रोकते थे परंतु वे लड़के नहीं मानते थे । एक दिन रघु गांव में भिक्षा मांगने जा रहा था तभी एक लड़के ने कांटों वाला डंडा रघु की पीठ पर मारा । जिससे रघु का शरीर लहूलुहान हो गया ।  रघु ने उसे कुछ नहीं कहा और चुपचाप चलता रहा । लेकिन वह लड़का तब भी नहीं माना । और रघु को फिर से डंडा मारा । रघु ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने घर चला गया । इतने में ही भगवान की भगवती शक्ति ने अपना चमत्कार दिखाया और वह लड़का बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा । गांव के लोगों ने जब लड़के को बेहोश देखा , तो सब इकट्ठा होकर उसके पास गए और उसे उठाने लगे । लेकिन लड़का मर चुका था । उसके घर से उसके मां-बाप को बुलाया गया । उसके मां-बाप रोते-रोते पहुंचे। गांव के लोगों ने सोचा कि इस लड़के ने रघु जैसे भक्त पर प्रहार किया था । इसी कारण भगवान ने इसके प्राण हर लिए । तब लोगों ने सोचा कि हमें रघु के घर जाकर माफी मांगनी चाहिए , हो सकता है कि भगवान इसे ठीक कर दे। वे सब रघु के घर गए । रघु के घर जाकर मां-बाप दोनों रोने लगे और कहने लगे कि भक्त रघु , मेरे बेटे को क्षमा कर दो । हमारा तो ये ही एकमात्र सहारा है । हम जानते हैं कि हमारा बेटा बहुत ही दुष्ट है और उसने तुम्हें मारा था । पर हम हाथ जोड़ कर तुमसे क्षमा मांगते हैं है कि मेरे बेटे को जीवित कर दो । यदि तुम इसे क्षमा कर दोगे तो भगवान इसे जीवित कर देंगे । यह कहकर उस लड़के के माता-पिता ने रघु के पैर पकड़ लिए । रघु ने कहा आप ये क्या कर रहे हो। मैं तो बहुत ही अधम हूं । आप मेरे पैरों को हाथ मत लगाइए । मुझे तो पता भी नहीं कि ये लड़का मर गया है । जब ये मुझे मार रहा था तो मेरे मन में कभी भी ये नहीं आया कि यह लड़का मर जाए । यदि यह लड़का मर गया तो जरूर इसमें मेरा ही दोष है । मैं ही बहुत बड़ा पापी हूं । अब इस पाप से मुझे मुक्ति कैसे मिलेगी । इस लड़के के कारण मुझे जो भी दुख प्राप्त हुआ है , वह जरूर मुझे मेरे किसी पूर्व जन्म के पाप का ही फल था । यह तो बस इसका निमित्त मात्र बन रहा था । हे प्रभु , यदि मेरे मन में इस लड़के के प्रति कोई द्वेष या कोई भी क्रोध नहीं था, तो कृपा करके इस लड़के को जीवित कर दे ।  और मेरे माथे से इसकी मृत्यु का कलंक हटा दें । वह भगवान के सामने हाथ जोड़ कर रोने लगा और उनसे प्रार्थना करने लगा । उसने वहां पर खड़े सभी लोगों से भगवान का नाम लेने के लिए कहा । सभी लोग भगवान हरि का नाम जपने लगे । तभी थोड़ी देर में चमत्कार हुआ वह लड़का जीवित उठ बैठा । उस लड़के को जीवित देखकर उसके माता-पिता खुश हो गए । उस लड़के का मन पूरी तरह से बदल चुका था । वह भी भगवान का नाम जप रहा था और उसने रघु से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी । सभी लोग रघु को बार-बार हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे । और अपने अपने घर चले गए ।  रघु के इस कार्य से अब दूर-दूर गांव तक उसकी प्रसिद्धि फैलने लगी थी । उसके घर में लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी । सब अपनी कामना पूर्ति के लिए रघु के घर पर आते थे । और उसे हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे । रघु यह सब देख कर डरने लगा था । क्योंकि वह मान प्रतिष्ठा से दूर ही रहना चाहता था । अब उसने अपने घर को छोड़कर वन में रहने का विचार किया और दिन रात भगवान का भजन करने लगा । एक दिन रघु को लगा कि जगन्नाथ जी उससे भोजन मांग रहे हैं । उसने भोजन की सामग्री इकट्ठा की और भोजन बनाया । अपनी कुटिया का द्वार बंद कर लिया और भगवान को भोजन के लिए पुकारा । भक्त की पुकार को सुनकर श्री जगन्नाथ भगवान जी साक्षात आकर रघु के हाथ से भोजन ग्रहण करने लगे । उसी समय श्री जगन्नाथ पुरी में पुजारी ने भगवान जगन्नाथ के लिए छप्पन प्रकार के भोग तैयार करवाए । जगन्नाथपुरी में भगवान जी का भोग मंडप अलग है । उस भोग मंडप में एक दर्पण लगा हुआ है । उस दर्पण में श्री जगन्नाथ पुरी के श्री विग्रह का जो प्रतिबिम्ब दिखाई देता है , उसी प्रतिबिंब को नैवेद्य का भोग लगाया जाता है । सभी प्रकार के भोग तैयार हो जाने पर जब पुजारी जी भोग लगाने लगे , तो देखा कि दर्पण में प्रतिबिंब ही नहीं पड़ रहा है । पुुजारी जी घबरा उठे और राजा के पास गए और बोले कि –  राजन आज भोग बनाने में कुछ दोष है , श्री जगन्नाथ जी भोजन ग्रहण नहीं कर रहे हैं । राजा ने जब स्वयं जाकर देखा तो उन्हें भी दर्पण में प्रतिबिंब दिखाई नहीं दिया । राजा हाथ जोड़कर कहने लगे कि – हे प्रभु ! यदि हमसे कोई अपराध हो गया हो तो हमे क्षमा कीजिए । राजा इस प्रकार कहकर भगवान के गरुड़ध्वज के पास आकर भूमि में ही लेट गया । तभी भगवान की लीला से उसे नींद आ गई और उन्होंने स्वपन में देखा कि –  श्री जगन्नाथ जी भगवान उसे कह रहे हैं कि राजा तेरा कोई अपराध नहीं है , ना ही तुझ से कोई भूल हुई है । मैं इस समय जगन्नाथपुरी में नहीं हूं ,तो दर्पण में प्रतिबिंब किसका पड़ता । मैं तो जगन्नाथ पुरी से दूर पीपलीचट्टी  गांव में अपने भक्त रघु के हाथों से भोजन ग्रहण कर रहा हूं । और वह मुझे जाने ही नहीं दे रहा है  । तो तेरा भोजन आकर कैसे स्वीकार करू । यदि तुम मुझे यहां बुलाना चाहते हो, तो मेरे भक्त रघु और उसकी पत्नी और उसकी माता को भी यहां जगन्नाथपुरी में लेकर आओ । और उनके यहां रहने की व्यवस्था करो । यह सुनते ही  राजा का स्वपन टूटा और राजा उठ बैठे । वे शीघ्र अति शीघ्र घोड़े से पीपलीचट्टी गांव में गए और वहां जाकर रघु का घर पूछा । सबने उसे एक  झोपड़ी दिखाई । राजा ने द्वार खोला तो राजा वहां का दृश्य देखकर स्तब्ध हो गया । राजा ने देखा कि वहां पर रघु है और अपने हाथ से किसी को भोजन करा रहा है । परंतु जिसे वह भोजन करा रहा है वो वहां पर दिखाई नहीं दिया । यह तो प्रभु की लीला थी क्योंकि जगन्नाथ जी सिर्फ रघु को दिख रहे थे । इतने में ही भगवान जगन्नाथ वहां से अंतर्ध्यान हो गए । रघु ने जब देखा कि भगवान वहां से चले गए हैं , तो रघु बहुत ही विचलित हो गया । और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा । राजा ने उसे उठाया और उसका सिर अपनी गोद में रखा । रघु जब होश में आया तो देखा कि वह राजा की गोद में लेटा हुआ है । रघु ने उठकर राजा को प्रणाम किया । लेकिन राजा ने स्वयं ही रघु को प्रणाम किया । और अपने सपने की सारी बात बताई । प्रभु की आज्ञा मानकर रघु अपने परिवार के सहित जगन्नाथ पुरी में जाकर रहने को तैयार हो गया । राजा उन सब को वहां पर ले आए । रघु के जगन्नाथ पुरी में आते ही भोग मंडप के दर्पण में श्री जगन्नाथ जी का प्रतिबिंब दिखाई देने लगा । जगन्नाथ जी के मंदिर के दक्षिण की ओर रघु के परिवार की रहने की व्यवस्था की गई । और रघु खुशी खुशी वहीं पर रहने लगा ।


There was a village named Piplichatti. Which used to fall near Jagannathpuri. A person named Raghu lived in that village. He was a fisherman of the caste. He had his wife and an old mother in his house. Raghu used to feed his family by catching fish and selling them. Raghu was a very kind person. He believed a lot in the devotion of God and in God since childhood. When he used to go fishing and the fish started suffering in the net, he used to get very upset seeing those fish. But for the maintenance of his family, he was forced to catch those fish and sell them in the market. He was not happy with this work. Raghu took a gurumantra from a guru. He now used to take bath regularly and first chanted the name of his Lord, then went to his work. Whenever he got a chance, he used to go to satsang and kirtan. In the satsang, when Guru ji said that there is only God in the creature and we should not do violence to any creature or creature, then after listening to all these things, his mind was gradually purified and he became disgusted with the violence of the creature. . One day he decided that he would not go fishing today. And he stopped fishing. Whatever ration was in the house, it gradually started running out. One day it came that there was nothing left in his house. His wife and his mother were hungry that day. She both started calling him good and bad. In the end, upset by the words of his wife and his mother, he decided to go fishing. And he went to the fishing pond. As soon as he put the net in the pond with folded hands to God. A huge fish got trapped in his net. When he took out that net, the fish came out and started suffering. He began to remember what his guru had said and began to see God in the fish. But at the same time he also thought about his wife and his mother being hungry. With folded hands, he told the fish that whatever you are, forgive me. But I have no other means of subsistence other than fishing. That's why I am compelled to kill you. As soon as he grabbed the mouth of the fish with both hands and started tearing it, then a voice came from that fish that - Narayan protect me, Narayan protect me. Raghu was surprised to hear the sound from the fish and ran towards the forest with that fish. There he saw a big pool of water in the forest. He put the fish in that pool. He forgot the hunger of his family and at the same time he could not remember that both of them would be waiting for him. Seeing that fish, he said - O God! You have told me your voice from inside this fish. Your voice is so sweet, so how beautiful will your image be. Oh god give me darshan. While saying this, sitting there started chanting the name of Narayan. He had been chanting for many days. He didn't even care about his hunger and thirst. Pleased with his devotion, the Lord took the form of an old Brahmin and came to him and said – Who are you and why are you sitting here. Raghu lost his attention and saw a Brahmin god standing in front of him. He bowed down to the Brahmin and said – Please do not disturb my meditation. I am chanting the name of Lord Narayana. Please do get out of here. I don't want to talk to you about anything. Then the brahmin said - Oh ascetic, why have you become a fool. Can a fish ever speak? Then Raghu was shocked to hear the fish talk from his mouth and thought that he is the real GOD. Who knows this fish thing of mine. Then he caught hold of their feet and said - Oh Lord, I am very sinner, I kill living beings. You have come here to test me. Lord please give me darshan. Hearing his call, the Lord appeared in the form of a quadrilateral. And asked him to ask for a boon. Raghu said that Lord I have seen you and I do not want anything. Just bless your devotion. God blessed him with his devotion. Then Raghu said that O Lord, I am a fisherman by caste. I do fishing and this is our ancestral business. I want to leave this business of mine. I want to be absorbed in your devotion. You bless me that even when I die, I can keep taking your name. The Lord called him Taastu and became intrigued. Raghu came to his house chanting the name of Lord Hari. On seeing him, the people of the village started saying good and bad that they did not know where they had gone leaving their wife and their mother hungry. The people of the village brought food to his house and helped him. Raghu thanked God in his heart that Lord You took care of his mother and his wife at his house in his absence. Now he used to beg for alms in the village itself, chanting the name of God. That alms used to support his household. First they all used to offer God's Bhog and later they used to take that food as prasad. Raghu had completely changed. He was always absorbed in the name of the Lord. He had become a complete monk. Seeing all this his wife and mother were also very happy. Taking the name of God, his samadhi used to take place for many hours. There was no anger or animosity in his heart towards anyone. He used to roam from street to street in the name of God. Some devil boys of the village used to make fun of him. Some were so wicked that they used to abuse him and throw lumps of mud at him. But Raghu did not say anything to anyone. abusing Raghu And hitting had no effect. Anger, greed and attachment had all gone out of his mind. He used to chant only the name of God. Seeing all this, the courage of those boys was greatly increased. Whenever Raghu went to the village to beg for alms, the boys used to follow him and make fun of him. Villagers used to stop those boys but they did not believe in boys. One day Raghu was going to the village to beg for alms when a boy hit Raghu with a thorn stick on his back. Due to which Raghu's body became bloody. Raghu didn't say anything to her and kept on walking silently. But the boy still did not agree. And beat Raghu with a stick again. Raghu did not look back and went to his house. Just then, the divine power of God showed its miracle and the boy fainted and fell on the ground. When the people of the village saw the boy unconscious, everyone gathered and went to him and started lifting him. But the boy was dead. His parents were called from his house. His parents came crying. The people of the village thought that this boy had attacked a devotee like Raghu. That's why God took his life. Then people thought that we should go to Raghu's house and apologize, maybe God will fix it. They all went to Raghu's house. Going to Raghu's house, both the parents started crying and said that devotee Raghu, forgive my son. This is our only help. We know that our son is very wicked and he killed you. But with folded hands, we beg your forgiveness to bring my son alive. If you forgive it, God will bring it to life. Saying this the boy's parents held Raghu's feet. Raghu said what are you doing. I am very poor. Don't you touch my feet. I don't even know that this boy is dead. When he was beating me, it never came to my mind that this boy should die. If this boy dies, it is definitely my fault. I am a great sinner. Now how can I get rid of this sin? Whatever misery I have received because of this boy, was definitely the result of my sin in some previous birth. It was just being made just for the sake of it. Oh Lord, if I had no animosity or any anger towards this boy, then please bring this boy to life. And remove the stigma of its death from my forehead. He started weeping with folded hands in front of God and started praying to him. He asked all the people standing there to take the name of the Lord. Everyone started chanting the name of Lord Hari. Then a miracle happened in a short while that boy got up alive. Seeing the boy alive, his parents were happy. The boy's mind had completely changed. He was also chanting the name of the Lord and asked Raghu for his transgression. Everyone started bowing to Raghu with folded hands again and again. and went to their respective homes. Due to this work of Raghu, now his fame started spreading to far and wide villages. The crowd of people started increasing in his house. Everyone used to come to Raghu's house to fulfill their wishes. and bowed to him with folded hands. Raghu was scared seeing all this. Because he wanted to stay away from prestige. Now he thought of leaving his home and living in the forest and started worshiping God day and night. One day Raghu felt that Jagannath ji was asking him for food. He gathered the food ingredients and prepared the food. He closed the door of his hut and called God for food. Hearing the call of the devotee, Shri Jagannath Bhagwan ji came directly and started taking food from Raghu's hand. At the same time the priest at Shri Jagannath Puri prepared fifty-six types of bhog for Lord Jagannath. The Bhoga Mandap of Lord ji in Jagannathpuri is different. There is a mirror in that Bhoga Mandap. The image of Shri Deity of Shri Jagannath Puri is seen in that mirror, the same image is offered as Naivedya. When all kinds of bhog were ready, when the priest started offering bhog, he saw that there is no reflection in the mirror. Pujari ji got nervous and went to the king and said – Rajan, there is some fault in making bhog today, Shri Jagannath ji is not taking food. When the king himself went and saw, he also did not see the reflection in the mirror. The king started saying with folded hands that - O Lord! Forgive us if we have committed any crime. Saying this, the king came to the Garudadhwaj of God and lay down on the ground. Then he fell asleep due to the leela of God and he saw in the dream that – Shri Jagannath ji God is telling him that the king is not your crime, nor you have made any mistake. I am not in Jagannathpuri at this time, so whose reflection in the mirror would have been? I am taking food from the hands of my devotee Raghu in Piplichatti village, far away from Jagannath Puri. And he is not letting me go. So how can I come and accept your food? If you want to invite me here, then bring my devotee Raghu and his wife and his mother also here to Jagannathapuri. And make arrangements for their stay. Hearing this, the king's dream broke and the king got up. Very soon he went to Piplichatti village by horse and went there and asked Raghu's house. Everyone showed him a hut. When the king opened the door, the king was shocked to see the scene there. The king saw that Raghu is there and is feeding someone with his hand. But the one whom he is feeding did not appear there. It was Lord's Leela because the world Nannath ji was seeing only Raghu. In the meantime, Lord Jagannath disappeared from there. When Raghu saw that the Lord had left from there, Raghu was very distraught. And fainted and fell on the ground. The king picked him up and placed his head in his lap. When Raghu regained consciousness, he saw that he was lying on the king's lap. Raghu got up and bowed to the king. But the king himself bowed to Raghu. And told everything about his dream. Following the orders of the Lord, Raghu agreed to go to Jagannath Puri along with his family. The king brought them all over there. As soon as Raghu came to Jagannath Puri, the reflection of Shri Jagannath ji started appearing in the mirror of Bhoga Mandap. Arrangements were made for Raghu's family to stay on the south side of Jagannath's temple. And Raghu happily started living there.

Gyan Ganga | आवला नवमी कथा फल और महत्त्व। पूजा विधि | A true hindi Story | hindi khaniya







 

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला नवमी कहते हैं । इसे अक्षय नवमी भी कहा जाता है । क्योंकि इस दिन किया गया पुण्य कभी समाप्त नहीं होता । इस तिथि को ही द्वापर युग की शुरुआत हुई थी । 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आंवला नवमी के दिन आंवले के वृक्ष में श्री विष्णु भगवान और शिव जी का निवास स्थान होता है । इस दिन आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करने से सभी रोगों का नाश होता है । इस दिन आंवला जरूर खाना चाहिए । कहते है कि इस दिन आंवला खाने से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते है । आंवला खाने से आयु की वृद्धि होती है । और इसका रस पीने से धर्म संचय होता है । इसके जल में स्नान करने से दरिद्रता दूर होती है । इस दिन किया गया पुण्य कभी भी समाप्त नहीं होता । आंवले के वृक्ष की पूजा और इसके नीचे बैठकर भोजन करने की परंपरा सबसे पहले माता लक्ष्मी ने शुरू की थी  ।

पौराणिक कथा के अनुसार – एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी पर घूमने के लिए निकली । उनके मन में एकाएक श्री विष्णु भगवान और  शिव शंकर भगवान की पूजा एक साथ करने का विचार आया  । उन्होंने सोचा कि वे ऐसा क्या करें जो विष्णु भगवान और भगवान शिव की पूजा एक साथ हो सके । तब उन्होंने सोचा कि आंवला ही एक ऐसा वृक्ष है जिसमें बेल और तुलसी के गुण एक साथ पाए जाते हैं । तुलसी जी भगवान विष्णु को प्रिय होती है और बेल भोले नाथ को पसंद है । माता लक्ष्मी ने आंवले के वृक्ष में भगवान विष्णु और भगवान शिव का वास मानकर आंवले के वृक्ष की पूजा की । उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और भगवान शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए । माता लक्ष्मी ने आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन बनाया । भगवान विष्णु और भगवान शिव को भोजन का भोग लगाकर बाद में स्वयं भोजन ग्रहण किया । उस दिन आंवला नवमी की तिथि थी । उसी दिन से आंवले के वृक्ष की पूजा की परंपरा शुरू हो गई ।


  पूजा विधि  –  

  इस दिन सूर्योदय से पहले स्नान करके आंवले के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए । आंवले की जड़ में दूध , रोली , अक्षत , पुष्प चढ़ाकर विधि पूर्वक पूजा अर्चना करें  । उसके पश्चात आंवले के वृक्ष की सात परिक्रमा करें । घी का दीपक जलाएं और फिर कथा श्रवण करे ।


The Navami of Shukla Paksha of Kartik month is called Amla Navami. It is also called Akshaya Navami. Because the virtue done on this day never ends. It was on this date that the Dwapara Yuga started.

According to religious beliefs, on the day of Amla Navami, the Amla tree is the abode of Lord Vishnu and Lord Shiva. On this day all diseases are destroyed by sitting under the gooseberry tree and eating food. Amla must be eaten on this day. It is said that eating Amla on this day destroys the sins of a human being. Eating amla increases life expectancy. And by drinking its juice, Dharma accumulates. Taking a bath in its water removes poverty. The virtue done on this day never ends. The tradition of worshiping the gooseberry tree and having food sitting under it was first started by Mata Lakshmi.

According to the legend – once Mata Lakshmi came out to roam the earth. Suddenly the idea of ​​worshiping Lord Vishnu and Lord Shiva Shankar came together in his mind. They thought that what should they do so that Lord Vishnu and Lord Shiva can be worshiped together. Then he thought that Amla is the only tree in which the properties of bael and basil are found together. Tulsi ji is dear to Lord Vishnu and Bel is liked by Bhole Nath. Goddess Lakshmi worshiped the gooseberry tree as the abode of Lord Vishnu and Lord Shiva in the gooseberry tree. Pleased with his worship, Lord Vishnu and Lord Shiva appeared to him. Mata Lakshmi prepared food by sitting under a gooseberry tree. After offering food to Lord Vishnu and Lord Shiva, he himself took the food. That day was the date of Amla Navami. From that day onwards the tradition of worshiping the gooseberry tree started.


  Worship method -

  On this day, after taking a bath before sunrise, the gooseberry tree should be worshipped. Offering milk, roli, akshat, flowers to the root of gooseberry should be done and worshiped properly. After that do seven rounds of the gooseberry tree. Light a ghee lamp and then listen to the story.

Gyan Ganga | देव उठनी एकादशी की कथा और महत्व | A true hindi story | Dev uthani Akadashi |












 कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहते हैं । इसे देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है  । इस दिन श्री विष्णु भगवान चार मास की निद्रा पूरी करके उठते हैं । इस चार मास के शयन काल में विवाह आदि कोई भी मांगलिक कार्य नही किए जाते । देवउठनी एकादशी के बाद से ही विवाह आदि शुभ मांगलिक कार्य शुरु हो जाते है । इसी दिन श्री तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी से कराया जाता है ।

धर्मराज युधिष्ठिर से श्री कृष्ण भगवान इस देवउठनी एकादशी के महत्व को बताते हुए कहते हैं कि इस एकादशी के व्रत को करने से हजारों अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है और मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते है । 

पौराणिक कथा के अनुसार –  एक समय एक राजा था । वह अपनी प्रजा को बहुत ही सुखी रखता था । वह धर्म का पालन करने वाला था । वह एकादशी के दिन किसी को भी अन्न ग्रहण करने नहीं देता था और ना ही किसी को अन्न बेचने देता था । एकादशी के दिन सभी फलाहार करते थे  ।  एक दिन भगवान विष्णु ने राजा की परीक्षा लेने के बारे में सोचा । भगवान विष्णु ने एक बहुत ही सुंदर युवती का रूप धारण किया । नगर में सड़क के किनारे बैठ गई । उसी समय राजा का रथ वहां से गुजरा । राजा की नजर उस सुन्दर स्त्री पर पड़ी । उस युवती के रूप में ऐसी मोहिनी थी कि राजा उसे देखते ही रहे । वे उससे अपनी नजर नही हटा पाए  । राजा पूछने लगे कि – सुंदरी तुम कौन हो ? पहले तो तुम्हे कभी इस नगर में नहीं देखा  । तब वह सुंदर स्त्री बोली कि –  राजन ! मेरा कोई नहीं है और मैं आपके इस नगर में आश्रय पाने हेतु आई हूं  । परंतु मैं यहां किसी को भी नहीं जानती । मैं बहुत ही मुश्किल में हूं । राजा उस के रूप को देखकर मोहित हो चुका था  ।राजा न कहा कि –  तुम मेरे महल में चलो , मैं तुम्हें अपनी रानी बनाकर रखूंगा । उस सुंदर युवती ने कहा कि –  ठीक है , मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है । परंतु मेरी एक शर्त है , तुम्हें पूरे राज्य का अधिकार मुझे देना होगा । जैसा मैं कहूं तुम्हें ऐसा ही करना होगा । और मैं जो भी भोजन बनाऊंगी ,  उसे ही खाना होगा । राजा उस सुंदर युवती के रूप में पूरी तरह मोहित हो चुका था । इसलिए राजा ने उसकी सारी शर्त मान ली और उस सुंदर युवती को अपने महल में ले आया । अगले दिन एकादशी थी ।राजा ने और सभी प्रजा जनों ने व्रत रखा । लेकिन उस सुंदर युवती ने आदेश दिया कि आज के दिन अन्न  बाजार में बेचा जाए और उसने घर में मांस पकाया । राजा से उस भोजन को खाने के लिए कहा । राजा ने कहा कि –  रानी, आज हमारा एकादशी का व्रत है । आज के दिन तो हम अन्न भी ग्रहण नहीं करते , हम केवल फलाहार खाते हैं ।उस सुंदर स्त्री ने अपनी शर्त याद दिलाई और कहा कि राजन !  कल तो तुमने कहा था , कि जैसा मैं कहूंगी तुम वैसा ही करोगे । और आज अपने वचन को तोड़ रहे हो  । राजन  ! या तो तुम इस भोजन को ग्रहण करो अन्यथा मैं तुम्हारे बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी । राजा सोच में पड़ गया । वह बहुत ही बड़ी दुविधा में फंस गया । उसने अपनी धर्म पत्नी को सारी बात बताई । तब राजा की धर्मपत्नी बोली कि राजन ! आप धर्म को न छोड़े  और अपने बड़े बेटे का सिर कटवा दें । पुत्र तो फिर प्राप्त हो जाएगा , लेकिन धर्म फिर से नहीं मिलेगा । इतने में ही बड़ा राजकुमार भी वहां पर आ गया और उसने अपने माता-पिता को चिंतित देखा । उनसे उनकी चिंता का कारण पूछा  । तब उसकी मां ने कहा कि – पुत्र तुम्हें अपने पिता के धर्म की रक्षा करनी होगी । तब राजकुमार बोला कि पिता जी आप चिंता मत करें  । बेटे का धर्म होता है अपने पिता की सभी चिंताओं को दूर करना और अपने पिता के धर्म की रक्षा करना । राजा अपने बेटे के सर को कटवाने  के लिए तैयार हो गया । बहुत दुखी मन से वह सुंदर युवती के पास जाकर बोला कि – तुम मेरे बेटे का सिर काट सकती हो । राजा के इस वचन को सुनते ही वो सुंदर स्त्री विष्णु भगवान के स्वरूप में प्रकट हो  गई ।  विष्णु भगवान बोले कि –हे राजन ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं । तुम अपनी परीक्षा में पास हुए । भगवान ने राजा से वर मांगने को कहा । तब राजा ने कहा कि प्रभु मुझे आपके दर्शन हो गए , मुझे इसके अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए । तब वहां पर एक स्वर्ण विमान आया ।  राजा ने अपना राज्यभार अपने पुत्र को सौंपा और अपनी धर्मपत्नी सहित उस विमान में बैठकर परमधाम को चले गए ।


Ekadashi of Shukla Paksha of Kartik month is called Devuthani Ekadashi. It is also called Devotthan Ekadashi. On this day Lord Vishnu wakes up after completing four months of sleep. No auspicious work like marriage etc. is done during the sleeping period of this four months. From after Devuthani Ekadashi, auspicious work like marriage etc. starts. On this day Shri Tulsi ji is married to Shaligram ji.

Describing the importance of this Devuthani Ekadashi to Dharmaraja Yudhishthira, Lord Krishna says that by observing the fast of this Ekadashi, the fruit of performing thousands of Ashwamedha Yagyas is obtained and all the sins of man are destroyed.

According to the legend – once upon a time there was a king. He used to keep his subjects very happy. He was a follower of religion. He did not allow anyone to take food or sell food to anyone on Ekadashi. Everyone used to eat fruits on Ekadashi. One day Lord Vishnu thought of taking the test of the king. Lord Vishnu took the form of a very beautiful girl. Sitting on the side of the road in the city. At that time the king's chariot passed by. The eyes of the king fell on that beautiful woman. There was such a fascination in the form of that girl that the king kept watching her. They could not take their eyes off him. The king started asking - who are you beautiful? Never seen you in this city before. Then that beautiful woman said - Rajan! I have no one and I have come to take shelter in this city of yours. But I don't know anyone here. I'm in a lot of trouble. The king was fascinated to see her form. The king did not say that - you come to my palace, I will keep you as my queen. The beautiful girl said that - okay, I accept your point. But I have one condition, you have to give me the rights of the entire state. You have to do as I say. And whatever food I cook, I have to eat it. The king was completely fascinated by the appearance of that beautiful girl. So the king accepted all his condition and brought that beautiful girl to his palace. The next day was Ekadashi. The king and all the subjects kept a fast. But that beautiful girl ordered that food should be sold in the market on this day and she cooked meat in the house. Asked the king to eat that food. The king said that - Rani, today we have a fast on Ekadashi. On this day we do not even take food, we only eat fruit food. That beautiful woman reminded her condition and said that Rajan! Yesterday you said that you will do as I say. And today you are breaking your word. Rajan  ! Either you take this food or else I will cut off the head of your elder prince. Raja went into deep thoughts . He got into a big dilemma. He told the whole thing to his religious wife. Then the wife of the king said that Rajan! Don't give up religion and get your eldest son's head beheaded. Son will be received again, but religion will not be found again. At the same time, the elder prince also came there and saw his parents worried. Asked him the reason for his concern. Then his mother said that – son, you have to protect the religion of your father. Then the prince said that father, do not worry. The religion of a son is to remove all the worries of his father and to protect the religion of his father. The king agreed to behead his son. With a very sad heart, he went to the beautiful girl and said - You can cut off the head of my son. On hearing this word of the king, that beautiful woman appeared in the form of Lord Vishnu. Lord Vishnu said that - O king! I am very pleased with you . You passed your exam. God asked the king to ask for a boon. Then the king said that Lord I have seen you, I do not want anything else. Then a golden plane came there. The king handed over his kingdom to his son and went to the supreme abode by sitting in that plane with his wife.