धर्म ग्रंथों के अनुसार – कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को भैया दूज का त्यौहार मनाया जाता है । इसे यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है । क्योंकि इस दिन यमुना ने अपने भाई यमराज जी का आदर सत्कार करके उनसे वरदान प्राप्त किया था ।
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धर्म ग्रंथों के अनुसार – कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को भैया दूज का त्यौहार मनाया जाता है । इसे यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है । क्योंकि इस दिन यमुना ने अपने भाई यमराज जी का आदर सत्कार करके उनसे वरदान प्राप्त किया था ।
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनवंतरी देवता का जन्म हुआ था । शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा का , कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को कामधेनु गाय का, त्रयोदशी को भगवान धनवंतरी का , चतुर्दशी को काली माता का और अमावस्या को महालक्ष्मी माता का समुद्र मंथन से प्रादुर्भाव हुआ था । देवता और दानव के द्वारा किए गए समुद्र मंथन से धन्वंतरी देवता अमृत का कलश हाथ में लिए उत्पन्न हुए थे ।
धन्वंतरी देवता को आयुर्वेद का जन्मदाता और देवताओं का चिकित्सक माना जाता है । भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से 12 वा अवतार धन्वंतरी देवता का था ।
धनतेरस के दिन चांदी का खरीदना शुभ माना जाता है ।
धनतेरस के दिन संध्या काल में यमराज के नाम का दीपक भी जलाया जाता है । यह दीपक होने वाले अनिष्ट को समाप्त करता है । साल में एक बार इस दिन यमराज जी की पूजा की जाती है । इनकी पूजा करने से अकाल मृत्यु नहीं होती है ।
इसके पीछे एक पौराणिक कथा भी है ।
कथा के अनुसार – एक हिम नाम का राजा था । उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ । ज्योतिषियों ने कुंडली बनाई । कुंडली के अनुसार उसमें लिखा था – कि राजकुमार की मृत्यु विवाह के चौथे दिन ही हो जाएगी । यह सुनकर राजा और रानी बहुत ही दुखी हुए । समय बीतता गया । राजकुमार का विवाह हो गया । विवाह के बाद चौथा दिन भी आ गया । सबके मन में भय उत्पन्न हो रहा था । किंतु राजकुमार की पत्नी चिंता मुक्त थी । उसके मन में किसी भी प्रकार का भय नहीं था । क्योंकि वह महालक्ष्मी की भक्त थी । उसे माता लक्ष्मी पर पूरा विश्वास था । शाम के समय राजकुमार की पत्नी ने सारा महल दीपों से सजा दिया । और माता लक्ष्मी के भजन गाने लगी । यमदूत जब राजकुमार के प्राण लेने आए तो उसकी पत्नी की भक्ति की शक्ति से यमदूत महल में प्रवेश न कर सके और वापस लौट गए । फिर बाद में यमराज ने सर्प का रूप धारण करके महल में प्रवेश किया । जब उस सर्प ने राजकुमार के कक्ष में प्रवेश किया । तो दीपों की जयमाला की रोशनी और मां लक्ष्मी की कृपा से उसकी आंखें चौंधिया गई थी । राजकुमार और राजकुमार की पत्नी दोनों महालक्ष्मी माता के भजन गा रहे थे । सर्प बने यमराज भी उनके पास बैठ गए । यमराज उन दोनों के भजन में ऐसे खोए कि उन्हें पता नहीं चला कि सुबह कब हो गई । राजकुमार की मृत्यु का समय जा चुका था । तब यमराज ने अपना असली रूप धारण किया । यमराज ने राजकुमार को दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया ।और कहा कि जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को शाम के समय सरसों के तेल का दीपक जलाकर मेरा स्मरण करेगा , उसकी कभी अकाल मृत्यु नहीं होगी ।
कहते हैं उसी दिन से धनतेरस के दिन शाम के समय दीपक जलाने की परंपरा शुरू हुई । इसे "यम दिवा "यानी यम का दीपक भी कहते हैं । दीपक को घर के बाहर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके रखना चाहिए ।
Dhanvantari Devta was born on the Trayodashi of Krishna Paksha of Kartik month. On the day of Sharad Purnima, Moon was born, on Dwadashi of Krishna Paksha of Kartik month Kamdhenu cow, Trayodashi of Lord Dhanvantari, Chaturdashi of Kali Mata and Amavasya of Mahalakshmi Mata emerged from the ocean churning. Due to the churning of the ocean by the gods and demons, the god Dhanvantari was born with a pot of nectar in his hand.
The god Dhanvantari is considered to be the originator of Ayurveda and the physician of the gods. Out of the 24 incarnations of Lord Vishnu, the 12th incarnation was that of the god Dhanvantari.
Buying silver on the day of Dhanteras is considered auspicious.
A lamp in the name of Yamraj is also lit in the evening on the day of Dhanteras. This lamp eliminates the evil. Yamraj ji is worshiped once in a year on this day. Worshiping them does not lead to premature death.
There is also a legend behind it.
According to the legend – there was a king named Him. A son was born to them. Astrologers made horoscopes. According to the horoscope, it was written in it that the prince would die on the fourth day of marriage. Hearing this, the king and queen were very sad. Time passed by . The prince got married. The fourth day also came after the marriage. Fear was rising in everyone's mind. But the prince's wife was worry free. There was no fear in his mind. Because she was a devotee of Mahalakshmi. He had full faith in Mata Lakshmi. In the evening, the prince's wife decorated the whole palace with lamps. And started singing bhajans of Mata Lakshmi. When the eunuchs came to take the prince's life, the eunuchs could not enter the palace due to the devotion of his wife and returned. Then later Yamraj took the form of a snake and entered the palace. When that snake entered the prince's room. So his eyes were dazzled by the light of the garland of lamps and the grace of Maa Lakshmi. Both the prince and the prince's wife were singing hymns to Mahalakshmi Mata. Yamraj, who became a snake, also sat beside him. Yamraj was so lost in the hymns of both of them that he did not know when it was morning. The time of the death of the prince had passed. Then Yamraj assumed his true form. Yamraj blessed the prince with a long life. And said that whoever remembers me by lighting a mustard oil lamp in the evening on the Trayodashi of Kartik Krishna Paksha, he will never die prematurely.
It is said that from that day the tradition of lighting lamps in the evening on the day of Dhanteras started. It is also called "Yama Diva" i.e. Yama's lamp. The lamp should be kept outside the house facing south.
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस का त्यौहार बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार – एक समय भगवान विष्णु पृथ्वी लोक पर भ्रमण करने के लिए निकले । तब माता लक्ष्मी ने भी उनके साथ चलने का आग्रह किया । भगवान विष्णु बोले कि – देवी , अगर आप पृथ्वी पर जाकर , जैसा मैं कहूं ऐसा ही करो , तब आप मेरे साथ चल सकती हो । माता लक्ष्मी ने कहा – ठीक है स्वामी जैसा आप कहेंगे, मैं वैसा ही करूंगी । तब विष्णु भगवान और माता लक्ष्मी पृथ्वी लोक पर आकर भ्रमण करने लगे । कुछ देर पश्चात विष्णु भगवान ने माता लक्ष्मी से कहा कि – देवी , आप जरा यहां पर रुको । जब तक मैं ना आ जाऊं तब तक आप यहां से कहीं मत जाना । माता लक्ष्मी ने कहा – ठीक है , स्वामी आप जाइए। विष्णु भगवान दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े । देवी लक्ष्मी के मन में एकाएक विचार आया कि – भगवान विष्णु मुझे अपने साथ क्यों नहीं ले कर गए । उन्होंने मुझे यहां रुकने को क्यों कहा ? उनका मन नहीं माना और वे विष्णु भगवान के पीछे पीछे चल पड़ी । माता लक्ष्मी ने देखा कि एक जगह पर सरसों के खेत में सुंदर फूल लगे हुए हैं । उन फूलों को देखकर माता का मन आकर्षित हो गया और उन्होंने फूलों को तोड़ कर अपना श्रृंगार किया । इसके बाद वे आगे चल पड़ी । आगे चलकर माता लक्ष्मी को एक गन्ने का खेत दिखाई दिया । तब माता लक्ष्मी ने गन्ने तोड़े और उन्हें चूसने लगी ।
ऐसा करते हुए विष्णु भगवान ने माता लक्ष्मी को देख लिया और उन पर क्रोधित हो गए । भगवान विष्णु क्रोधित होकर बोले कि – देवी तुम मेरे मना करने पर भी मेरे पीछे-पीछे यहां तक आ गई हो । और किसान के खेतों में आपने चोरी का दंडनीय अपराध किया है । मैं आपको श्राप देता हूं कि आप 12 साल तक इस किसान के घर में ही रहकर अपना अपराध भोगोगी। ऐसा कहकर विष्णु भगवान बैकुंठ लोक में चले गए । माता लक्ष्मी वही किसान के घर में रह गई । किसान बहुत ही गरीब था । एक दिन माता लक्ष्मी ने किसान की पत्नी से कहा कि पहले तुम नहा धोकर मेरी इस बनाई गई मिट्टी की मूर्ति की पूजा करो । फिर जाकर बाद में रसोई बनाना । ऐसा करने से तुम्हे जो चाहिए वहीं मिलेगा । किसान की पत्नी ने ऐसा ही किया । लक्ष्मी जी की कृपा के कारण किसान का घर थोड़े ही दिन में अन्न और धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया । किसान के वे 12 वर्ष बहुत ही आनंद से बीते । विष्णु भगवान 12 वर्ष के बाद लक्ष्मी माता को लेने के लिए आए । किसान माता लक्ष्मी को जाने से रोकने लगा । तब विष्णु भगवान बोले कि – यह तो चंचला है , इन्हें कौन रोक सकता है ? ये कहीं पर भी एक जगह नहीं ठहरती । यह तो इन्हें मेरा श्राप था जो तुम्हारे घर में 12 वर्ष तक रह रही थी । अब इनके श्राप की अवधि पूरी हो गई है । इसलिए अब ये जा रही है । लेकिन किसान माता लक्ष्मी को बार-बार जाने से रोक रहा था और उनसे विनय पूर्वक निवेदन कर रहा था ।
माता लक्ष्मी को किसान पर दया आ गई और कहां कि – ठीक है , अगर तुम मुझे रोकना चाहते हो , तो जैसा मैं कहती हूं , ऐसा ही करो । कल धनतेरस है । कल घर को अच्छी तरह से लीप कर साफ सफाई करना। रात्रि में घी का दिया जलाना और संध्या काल में मेरी पूजा करना । एक तांबे के कलश में रूपए भर कर रखना । मैं उस कलश में निवास करूंगी । लेकिन जब तुम मेरी पूजा करोगे , तब मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी । तुम्हारी की गई इस एक दिन की पूजा से मैं वर्ष भर तक तुम्हारे घर में निवास करूंगी । यह कहकर मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु दीपक के प्रकाश के साथ चारों दिशाओं में फैल गए । अगले दिन धनतेरस के दिन किसान ने माता लक्ष्मी के कहे अनुसार पूजन किया । किसान का घर सुख-समृद्धि और धन-धान्य से भर गया इसी कारण धनतेरस के दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है ।
The festival of Dhanteras is celebrated with great reverence on the Trayodashi of Krishna Paksha of Kartik month.
According to a legend – once upon a time Lord Vishnu went out to visit the earth. Then Mata Lakshmi also requested to accompany him. Lord Vishnu said that - Goddess, if you go to earth and do as I say, then you can walk with me. Mata Lakshmi said - Well lord, I will do as you say. Then Lord Vishnu and Mother Lakshmi came and started traveling on the earth. After some time Lord Vishnu told Mother Lakshmi that – Goddess, you just stay here. You don't go anywhere from here until I come. Mata Lakshmi said - Alright, lord you go. Lord Vishnu walked towards the south. A sudden thought came in the mind of Goddess Lakshmi that - why did Lord Vishnu not take me with him. Why did he ask me to stay here? Her mind did not obey and she followed Lord Vishnu. Mata Lakshmi saw that there are beautiful flowers in a mustard field at one place. Seeing those flowers, the mind of the mother was attracted and she plucked the flowers and did her makeup. After that they went ahead. Later, Mata Lakshmi saw a sugarcane field. Then Mata Lakshmi plucked the sugarcane and started sucking them.
While doing this Lord Vishnu saw Goddess Lakshmi and got angry on her. Lord Vishnu got angry and said that - Goddess, you have come here after me even after my refusal. And you have committed the punishable offense of theft in the farmer's fields. I curse you that you will suffer your crime by staying in this farmer's house for 12 years. Saying this Lord Vishnu went to Baikunth Lok. Mata Lakshmi stayed in the same farmer's house. The farmer was very poor. One day Mata Lakshmi told the farmer's wife that first you should wash your bath and worship this clay idol made by me. Then go and cook the kitchen later. By doing this you will get what you want. The farmer's wife did the same. Due to the grace of Lakshmi ji, the farmer's house became full of food and money in a few days. Those 12 years of farmer were spent very happily. Lord Vishnu came after 12 years to take Lakshmi Mata. The farmer started stopping Mata Lakshmi from going. Then Lord Vishnu said that - this is fickle, who can stop them? It does not stay in one place anywhere. This was my curse to him who was staying in your house for 12 years. Now their curse period is over. So now it is going. But the farmer was stopping Mata Lakshmi from going again and again and was requesting her graciously.
Mata Lakshmi took pity on the farmer and where - well, if you want to stop me, then do as I say. Tomorrow is Dhanteras. Tomorrow clean the house thoroughly by leaps and bounds. Lighting a lamp of ghee in the night and worshiping me in the evening. Keep money in a copper urn. I will reside in that Kalash. But when you worship me, then I will not be visible to you. With this one day worship done by you, I will live in your house for a whole year. Saying this Maa Lakshmi and Lord Vishnu spread in all four directions with the light of the lamp. The next day, on the day of Dhanteras, the farmer worshiped according to the instructions of Mata Lakshmi. The farmer's house was filled with happiness, prosperity and wealth, that is why Lakshmi is worshiped on the day of Dhanteras.
कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को रमा एकादशी कहते हैं । यह एकादशी करने से बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है । भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से इस एकादशी का महत्व बताते हुए कहा कि –
हे राजन ! प्राचीन काल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था । वह बहुत ही धर्मात्मा और न्याय प्रिय था । मुचुकुंद राजा बहुत बड़े विष्णु भक्त थे । राजा के धर्म पालक और न्याय प्रिय होने के कारण देवराज इंद्र और अन्य सभी देवता भी उनका बहुत सम्मान करते थे । राजा की एक पुत्री थी । उसका नाम चंद्रभागा था । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह चंद्रसेन राजा के पुत्र शोभन के साथ किया था । शोभन शारीरिक रूप से बहुत ही दुर्बल थे । एक बार शोभन अपनी पत्नी चंद्रभागा के साथ अपनी ससुराल आए हुए थे । उन्हीं दिनों कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की रमा एकादशी भी आने वाली थी । एकादशी के व्रत से कुछ दिन पहले चंद्रभागा के मन में अत्यन्त सोच उत्पन्न हो गया कि मेरे पति एकादशी का व्रत कैसे करेंगे ? वे तो शरीर से बहुत ही कमजोर है । क्योंकि मेरे पिता एकादशी के दिन किसी को भी भोजन ग्रहण नहीं करने देते । मुचुकुंद राजा ने दशमी के दिन सारे नगर में ढोल बजवा कर घोषणा करवा दी कि कल एकादशी को कोई भी भोजन ग्रहण नहीं करेगा । घोषणा के सुनते ही शोभन के मन में चिंता उत्पन्न हो गई कि वह कैसे एक दिन बिना भोजन के रहेंगे । शोभन ने अपनी पत्नी से कहा कि – तुम तो जानती हो , मैं एक समय भी बिना भोजन के नहीं रह सकता । तो फिर कल मैं एकादशी के दिन कैसे बिना भोजन के रहूंगा । ऐसे तो मेरे प्राण ही चले जाएंगे । पत्नी ने कहा – स्वामी ! मेरे पिता का आदेश बहुत ही कठोर है । वह अपने राज्य में एकादशी के दिन किसी को भी भोजन ग्रहण नहीं करने देते । हमारे राज्य में गाय , घोड़ा , हाथी , बिल्ली आदि जीव – जंतु घास और जल नहीं ग्रहण कर सकते , तो फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है । अगर आपको कल एकादशी को भोजन करना है , तो आप यहां से किसी दूसरे राज्य या फिर दूसरे स्थान पर चले जाना । तभी आपका भोजन ग्रहण करना संभव हो सकता है । अन्यथा मेरे पिता के राज में ऐसा होना संभव नहीं है । शोभन ने कहा – नहीं , मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा । यदि कल तुम भी व्रत करोगी , तो मैं भी तुम्हारे साथ व्रत करूंगा । जो होगा देखा जाएगा । अगले दिन शोभन ने एकादशी का व्रत रखा । वह भूख से सारा दिन बहुत ही व्याकुल रहा । जब सूर्य नारायण अस्त हो गए । रात्रि में जागरण का समय आया , तो सब भक्त जन खुशी-खुशी जागरण करने लगे और भगवान विष्णु के नाम का जप करने लगे । परंतु शोभन के लिए यह सब बहुत ही दुखदाई था । अगले दिन प्रातः काल में ही शोभन की मृत्यु हो गई । राजा ने शोभन का अंतिम संस्कार किया । उसकी पुत्री चंद्रभागा भी उसके साथ सती होना चाहती थी । किंतु उसके पिता ने उसे सती नहीं होने दिया । अपने पिता की आज्ञा मानकर वह सती नहीं हुई ।और अपने पति की मृत्यु के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी । शोभन ने रमा एकादशी का व्रत किया था । इसी कारण शोभन को मृत्यु के बाद मंदराचल पर्वत पर एक बहुत ही वैभवशाली और धन-धान्य से संपूर्ण देवपुर की प्राप्ति हुई । वह नगर स्वर्ण के खंभों से बना हुआ था । उस नगर के भवन मणियों और रत्नों से जड़े हुए थे । उस नगर में स्वर्ग की तरह सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध थी । और शोभन उस रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठा हुआ ऐसा लगता था जैसे कि दूसरा इंद्र ही विराजमान हो । समय बीतता गया । एक समय में मुचुकुंद राजा के नगर का ही सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण तीर्थ यात्रा पर निकला । और घूमते – घूमते मंदराचल पर्वत पर उसी देवपुर नगर में गया । उसने वहां पर शोभन को देखकर पहचान लिया और सोचा कि यह तो मुचुकुंद राजा का दामाद है । शोभन ने भी उन ब्राह्मण को पहचान कर प्रणाम किया , और सबकी कुशल मंगल पूछी । ब्राह्मण ने राजा मुचुकुंद और चंद्रभागा की कुशल मंगल बताई । परंतु ब्राह्मण ने शोभन से पूछा कि – राजन तुम्हें यह अदभुत दिव्य भवन जैसा नगर कैसे प्राप्त हुआ है ? यह तो ऐसा लग रहा है जैसे मानो दूसरा स्वर्ग ही हो । तब शोभन ने कहा कि – मैंने रमा एकादशी का व्रत किया था । उसी के पुण्य से मुझे यह स्वर्ग के जैसा देवपुर प्राप्त हुआ है । परंतु यह नगर स्थिर नहीं है । यह अस्थिर है । तब ब्राह्मण ने पूछा – ऐसा क्यों ? तब शोभन ने कहा कि – मैंने रमा एकादशी का व्रत श्रद्धा भाव के बिना किया था । मुझे मजबूरी में वह व्रत रखना पड़ा । इसी वजह से मेरा यह नगर अस्थिर है । यदि आप राजा मुचुकुंद और मेरी पत्नी को यह बात बता दे , तो हो सकता है कि वे कुछ ऐसा उपाय करें कि मेरा यह नगर स्थिर हो जाए । तब ब्राह्मण ने वापस जा कर यह बात राजा मुचुकुंद और चंद्रभागा को बताई कि – चंद्रभागा आपके पति मंदराचल पर्वत पर एक देवतुल्य नगर में विराजमान है । चंद्रभागा को ब्राह्मण की बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह बोली कि – ब्राह्मण देव , कही आपने कोई स्वपन तो नहीं देखा ? मेरे पति की तो मृत्यु हो चुकी है । तब ब्राह्मण देव बोले कि – नहीं पुत्री , मैंने प्रत्यक्ष ही तुम्हारे पति को देखा है और उन्होंने ही मुझे यह सारा वृत्तांत तुम्हें सुनाने को कहा था । तब चंद्रभागा बोली कि – हे ब्राह्मण देव , आप मुझे कृपया करके उस स्थान पर लेकर चलिए जहां मेरे पति हैं । मैं अपने पति से मिलना चाहती हूं । यदि आप मुझे मेरे पति के दर्शन करा दे तो मैं आपकी बहुत ही आभारी रहूंगी । तब ब्राह्मण देव चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत पर गए । मंदराचल पर्वत के पास ही वामदेव ऋषि का आश्रम था । तब चंद्रभागा और ब्राह्मण ने सारी बात वामदेव ऋषि को बताई । तो वामदेव ऋषि ने अपने मंत्र के उच्चारण से और एकादशी के व्रत के पुण्य के प्रभाव से चंद्रभागा का शरीर दिव्य कर दिया। और चंद्रभागा को दिव्य गति प्राप्त हुई । तब वह अपने पति से मिलने के लिए उस देवपुर नगर में पहुंची । अपनी पत्नी को आते देख कर शोभन बहुत ही खुश हुआ और उसने उसे अपने सिंहासन पर बाई तरफ बैठाया । तब चंद्रभागा ने कहा कि – स्वामी ! आप मेरे एकादशी व्रत के पुण्य को ग्रहण कीजिए । क्योंकि मैं अपने पिता के घर में 8 वर्ष की आयु से ही एकादशी का व्रत करते आ रही हूं । मैं आपको अपने सारे पुण्य प्रदान करती हूं । जिससे आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा और इसे कोई भी देव या दानव जीत नहीं सकेगा । यह नगर प्रलय के अंत तक रहेगा । तब चंद्रभागा अपने पति के साथ उस नगर में आराम से सुखदायक जीवन व्यतीत करने लगी ।
तब श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि –हे धर्मराज युधिष्ठिर यह व्रत समस्त पापों का नाश कर देता है । इस एकादशी के व्रत करने से ब्रह्महत्या का पाप भी नष्ट हो जाता है । कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में आने वाली दोनों एकादशी का फल एक समान होता है । इनमें कोई भी अंतर नहीं होता । जो भी भक्तजन इस महात्म्य को सुनते हैं वह अंत में समस्त पापों से छूट कर विष्णु लोक को प्राप्त होते हैं ।
।।।।। जय श्री कृष्ण ।।।।।
First death. Then he came alive and got a beautiful city from heaven. ekadashi fasting story
Ekadashi of Krishna Paksha of Kartik month is called Rama Ekadashi. By observing this Ekadashi, great sins are destroyed. Describing the importance of this Ekadashi, Lord Krishna told Dharmaraja Yudhishthira that –
Hey Rajan! In ancient times there was a king named Muchukunda. He was very pious and justice loving. Muchukunda Raja was a great devotee of Vishnu. Devraj Indra and all the other gods also respected him very much because of the king's righteous and justice-loving. The king had a daughter. Her name was Chandrabhaga. The king had married his daughter to Shobhan, the son of Chandrasen Raja. Shobhan was physically very weak. Once Shobhan was visiting his in-laws' house with his wife Chandrabhaga. At the same time, Rama Ekadashi of Krishna Paksha of Kartik month was also going to come. A few days before the Ekadashi fast, a lot of thought arose in Chandrabhaga's mind that how will my husband observe the Ekadashi fast? He is very weak in body. Because my father does not allow anyone to take food on Ekadashi. Muchukunda king made an announcement by playing drums in the whole city on the day of Dashami that no one would take any food on Ekadashi tomorrow. On hearing the announcement, Shobhan was worried about how he would go without food for a day. Shobhan told his wife that – You know, I cannot live without food even for a single time. Then how will I be without food tomorrow on Ekadashi? In this way my life will be gone. The wife said - Swami! My father's order is very strict. He does not allow anyone to take food on the day of Ekadashi in his kingdom. In our state, animals like cow, horse, elephant, cat etc. cannot take grass and water, so what is the matter of human beings. If you have to eat on Ekadashi tomorrow, then you have to move from here to another state or to another place. Only then can it be possible to take your food. Otherwise it would not have been possible under my father's rule. Shobhan said – No, I will not go anywhere except you. If tomorrow you will also fast, then I will also fast with you. will be seen what happens . The next day Shobhan observed Ekadashi fast. He was very disturbed the whole day with hunger. When Surya Narayana set. When the time of awakening came in the night, then all the devotees started awakening happily and started chanting the name of Lord Vishnu. But it was all very sad for Shobhan. Shobhan died the next day early in the morning. The king performed the last rites of Shobhan. His daughter Chandrabhaga also wanted to do sati with him. But her father did not allow her to commit sati. By following her father's orders, she did not commit sati. And after the death of her husband, she started living in her father's house. Shobhan observed Rama Ekadashi fast. For this reason Shobhan got a very splendid and full of wealth Devpur after his death on the Mandarachal mountain. The city was built with pillars of gold. The buildings of that city were studded with gems and gems. All the amenities were available in that city like heaven. And Shobhan, sitting on that gem-studded throne, looked as if another Indra was sitting there. Time passed by . Once upon a time a Brahmin named Som Sharma from the town of Muchukund Raja went on a pilgrimage. And roaming around, he went to the same Devpur city on the Mandarachal mountain. He recognized Shobhan there and thought that it was Muchukunda Raja's son-in-law. Shobhan also recognized those Brahmins and bowed down, and asked everyone's well-being. The Brahmin told the well-being of King Muchukunda and Chandrabhaga. But the brahmin asked Shobhan that - Rajan, how have you got this wonderful divine building-like city? It is as if there is another heaven. Then Shobhan said that – I had fasted on Rama Ekadashi. By virtue of that I have got this heaven-like Devpur. But this city is not stable. It is unstable. Then the brahmin asked - why so? Then Shobhan said that – I had fasted Rama Ekadashi without devotion. I had to keep that fast under compulsion. For this reason this city of mine is unstable. If you tell this to King Muchukunda and my wife, they may take some measures to make this city of mine stable. Then the Brahmin went back and told this to King Muchukunda and Chandrabhaga that – Chandrabhaga, your husband, is sitting in a godlike city on the Mandarachal mountain. Chandrabhaga did not believe the words of the Brahmin and she said that - Brahmin God, have you not seen any dream? My husband has already died. Then the Brahmin Dev said - No daughter, I have seen your husband directly and he had asked me to narrate the whole story to you. Then Chandrabhaga said - O Brahmin god, please take me to the place where my husband is. I want to meet my husband. I will be very grateful to you if you can take me to see my husband. Then the Brahmin god took Chandrabhaga to the Mandarachal mountain. Vamdev Rishi had an ashram near Mandarachal mountain. Then Chandrabhaga and the Brahmin told the whole thing to Vamdev Rishi. So Vamdev sage made Chandrabhaga's body divine by the recitation of his mantra and by virtue of the virtue of fasting on Ekadashi. And Chandrabhaga got divine speed. Then she reached that Devpur city to meet her husband. your wife Seeing Ni coming, Shobhan was very happy and he made her sit on his throne on the left side. Then Chandrabhaga said - Swami! You accept the virtue of my Ekadashi fast. Because I have been observing Ekadashi fast since the age of 8 in my father's house. I give you all my virtues. Due to which this city of yours will be stable and no god or demon will be able to conquer it. This city will remain till the end of the Holocaust. Then Chandrabhaga along with her husband started living a comfortable life in that city.
Then Shri Krishna told Dharmaraja Yudhishthira that – O Dharmaraja Yudhishthira, this fast destroys all sins. By observing this Ekadashi fast, the sin of killing Brahma is also destroyed. The results of both Ekadashi falling in Krishna Paksha and Shukla Paksha are same. There is no difference between them. All the devotees who listen to this greatness, in the end, freed from all sins, they reach the world of Vishnu.
, Long live Shri Krishna .....
बात उस समय की है जब हस्तिनापुर के राजा शांतनु हुआ करते थे । राजा शांतनु एक दिन शिकार खेलने वन में गए और शिकार खेलते – खेलते गंगा नदी के तट पर आ पहुंचे । गंगा नदी के तट पर उन्होंने एक बहुत ही सुंदर स्त्री को देखा । जिस पर वे मोहित हो गए और उन्होंने उस स्त्री से उसका परिचय पूछा ? स्त्री ने कहा कि – मेरा नाम गंगा है , मैं देव नदी गंगा हूं । अब तो राजा शांतनु प्रतिदिन गंगा नदी के तट पर आकर देवी गंगा से मिलने लगे । और एक दिन उन्होंने देवी गंगा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा । देवी गंगा ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया ,परंतु उनसे एक वचन मांगा कि विवाह के पश्चात् राजा, देवी गंगा के द्वारा किए गए कार्य में कभी भी कोई प्रश्न नहीं करेंगे । यदि राजा अपने इस वचन को तोड़ेंगे , तो देवी गंगा उनका साथ उसी समय छोड़ देगी । राजा शांतनु ने देवी गंगा को यह वचन दे दिया कि वे उनसे कभी भी कोई भी प्रश्न नहीं करेंगे । देवी गंगा और राजा शांतनु का विवाह हो गया । विवाह के पश्चात दोनों का समय सुख पूर्वक बीता और कुछ समय पश्चात देवी गंगा गर्भवती हो गई । राजा शांतनु बहुत ही खुश थे और उन्हें अपने आने वाले युवराज की बेसब्री से प्रतीक्षा थी। समय आने पर देवी गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया । परंतु जन्म के बाद ही वे उस पुत्र को नदी के तट पर ले गई और ले जाकर उसे नदी में बहा दिया । राजा शांतनु देवी गंगा के पीछे पीछे आए और यह सब देखते रहे , लेकिन उन्होंने देवी गंगा से कोई भी प्रश्न नहीं किया क्योंकि उन्होंने देवी गंगा को वचन दिया था । उन्हें डर था कि कहीं उनके प्रश्न पूछने पर देवी गंगा उन्हें छोड़कर ना चली जाए । समय के साथ साथ देवी गंगा ने अपने दूसरे पुत्र को जन्म दिया और इस पुत्र को भी उन्होंने अपनी धारा में बहा दिया । इस प्रकार देवी गंगा ने अपने सात पुत्रों को अपने जल में बहा दिया और राजा शांतनु यह सब देखते रहते थें। परंतु अपने दिए हुए वचन के कारण वे देवी गंगा से कुछ भी प्रश्न नहीं पूछ पाते थे क्योंकि उन्हें डर रहता था कि कहीं देवी गंगा उन्हें छोड़ कर ना चली जाए । राजा शांतनु बहुत ही निराश हो चुके थे । अपने ही सामने अपने सातों पुत्रों की हत्या का दर्द उन्हें असहनीय पीड़ा दे रहा था । और समय के साथ-साथ देवी गंगा ने आठवें पुत्र को जन्म दिया । आठवे पुत्र को भी लेकर देवी गंगा नदी के तट पर गई और जैसे ही वे उस पुत्र को बहाने लगी तभी राजा शांतनु से रहा नही गया और उन्होने देवी गंगा से अपना पुत्र छीन लिया और उन से क्रोधित होकर पूछा कि वे ऐसा क्यों कर रही है ? तब देवी गंगा बोली कि – मैं एक देवनदी हूं और जिन सातों पुत्रों को मैंने नदी में अपने जल में प्रवाहित किया है वे सब श्रापित वसु थें । राजा शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने देवी गंगा से इस सारे रहस्य को बताने को कहा । तब देवी गंगा ने बताया कि – एक बार द्यों आदि आठ वसुओं ने ऋषि वशिष्ठ की गाय को चुरा लिया था । जिसके कारण ऋषि वशिष्ठ ने इन आठों वसुओं को श्राप दे दिया कि ये सब मृत्यु लोक में मनुष्य योनि में जन्म लेंगे और इन सबको उस जन्म में घोर कष्ट उठाना पड़ेगा । तब वसुओ की पुकार सुनकर मैंने उनसे कहा कि मैं उन आठों वसुओं को अपने गर्भ में धारण करूंगी और उन्हें अपने जल में प्रवाहित करके तुरंत मोक्ष दे दूंगी । अपने सात पुत्रों को तो मैंने मोक्ष दे दिया और उन्हें इस जन्म में होने वाले घोर कष्ट से बचा लिया । परंतु यह आठवां द्यो नाम का वसु था जिसे मैं मोक्ष प्रदान करने वाली थी। अगर आप मुझे ना रोकते तो हमारा अगला पुत्र इस संसार के लिए वरदान होता । और इस आठवे वसु को भी मुक्ति मिल जाती । परन्तु इसे अब पृथ्वी पर रहकर घोर कष्ट उठाने पड़ेंगे । आपने अपने वचन को तोड़ा है , इसलिए अब मैं आपके पास नहीं रहूंगी । मां के अभाव में एक शिशु का अच्छी तरह से पालन पोषण नहीं हो सकता । इसलिए मैं अपने पुत्र को अपने साथ लेकर जा रही हूं और इसे आपके परिवार के योग्य बना कर इसे कुछ वर्षों पश्चात आपको लौटा दूंगी । ऐसा कहकर देवी गंगा वहां से अपने पुत्र को लेकर अपने लोक चली गई । देवी गंगा ने अपने पुत्र को सारी विद्याओं में निपुण कर दिया और उसे युद्ध कौशल भी सिखाया । देवी गंगा के आठवें पुत्र का नाम देवव्रत था । उस तरफ राजा शांतनु हस्तिनापुर में बहुत ही निराश हो चुके थे । वे हमेशा देवी गंगा और अपने पुत्र के बारे में ही सोचा करते थे । वे प्रतिदिन गंगा नदी के तट पर जाया करते थे । उन्हें बस इस एक बात की ही आशा थी कि कब देवी गंगा उन्हें उनका पुत्र लौटाएंगी । जब देवव्रत किशोर अवस्था मे आ गए। उन्हे धर्म, अधर्म, नीति, शास्त्र सबका ज्ञान हो चुका था । तब देवी गंगा ने उचित समय समझा । और अपने पुत्र देवव्रत को लेकर राजा शांतनु के पास आई और उन्हें उनका पुत्र लौटा दिया । बाद में, इन्हीं देवव्रत ने अपने पिता का दूसरा विवाह सत्यवती से करने के लिए और सत्यवती की संतान को ही हस्तिनापुर का राज्य देने के लिए भीष्म प्रतिज्ञा की थी कि – वे आजीवन विवाह नही करेंगे और सदा ब्रह्मचारी व्रत का पालन करेंगे । इसी कठोर प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा । और आगे चलकर वे कौरव और पांडवों के भीष्म पितामह कहलाए ।
What if Bhishma had thrown Pitamah into the Ganges? Story of Bhishma Pitamah and Ganga
It is about the time when the king of Hastinapur used to be Shantanu. One day King Shantanu went to the forest to play hunting and came to the banks of the river Ganges while playing hunting. On the bank of river Ganges he saw a very beautiful woman. On which he was fascinated and asked the woman her introduction? The woman said that - My name is Ganga, I am God river Ganga. Now King Shantanu came every day on the banks of river Ganges to meet Goddess Ganga. And one day he proposed marriage to Goddess Ganga. Goddess Ganga accepted his proposal, but asked him for an undertaking that after marriage, the king would never question the work done by Goddess Ganga. If the king breaks this promise, then Goddess Ganga will leave his side at the same time. King Shantanu gave a promise to Goddess Ganga that he would never ask any question to her. Goddess Ganga and King Shantanu got married. After marriage, the time of both of them passed happily and after some time Goddess Ganga became pregnant. King Shantanu was very happy and he was eagerly waiting for his coming crown prince. When the time came, Goddess Ganga gave birth to a son. But only after birth, she took that son to the bank of the river and carried him away and threw him in the river. King Shantanu followed Devi Ganga and kept watching all this, but he did not ask any question to Goddess Ganga because he had made a promise to Goddess Ganga. He was afraid that on asking his questions, Goddess Ganga might leave him. In course of time, Goddess Ganga gave birth to her second son and she also shed this son in her stream. Thus Goddess Ganga drowned her seven sons in her water and King Shantanu used to watch all this. But due to his promise, he could not ask any question to Goddess Ganga because he was afraid that Goddess Ganga might leave him. King Shantanu was very disappointed. The pain of killing his seven sons in front of himself was giving him unbearable pain. And with the passage of time, Goddess Ganga gave birth to an eighth son. The goddess went to the banks of the river Ganges with the eighth son also and as soon as she started shedding that son, the king could not stay with Shantanu and he snatched his son from the goddess Ganga and asked her why she was doing this. ? Then Goddess Ganga said that - I am a Devnadi and all the seven sons whom I have flown in my water in the river were all cursed Vasus. King Shantanu was very surprised and asked Goddess Ganga to tell all this secret. Then Goddess Ganga told that – Once the eight Vasus had stolen the cow of sage Vashistha. Due to which sage Vashishtha cursed these eight Vasus that all these people will be born in the world of death in human vagina and all of them will have to suffer a lot in that birth. Then hearing the call of the Vasus, I told them that I would conceive those eight Vasus in my womb and would give them salvation immediately by flowing them in my water. I have given salvation to my seven sons and saved them from the great suffering in this birth. But it was the eighth Vasu named Dyo whom I was going to give salvation. If you had not stopped me, our next son would have been a boon to this world. And this eighth Vasu would also get liberation. But now he will have to suffer a lot while staying on earth. You have broken your promise, so I will no longer be with you. In the absence of a mother, an infant cannot be brought up well. That's why I am taking my son with me and after making it fit for your family, I will return it to you after a few years. Saying this, Goddess Ganga went to her world with her son from there. Goddess Ganga made her son proficient in all the disciplines and also taught him fighting skills. The name of the eighth son of Goddess Ganga was Devavrata. On that side, King Shantanu had become very disappointed in Hastinapur. He always thought only of Goddess Ganga and his son. He used to go to the banks of the Ganges river every day. He had only hope of this one thing that when Goddess Ganga would return his son to him. When Devavrat reached adolescence. He had got the knowledge of all religion, adharma, policy, scriptures. Then Goddess Ganga understood the right time. And the king came to Shantanu with her son Devavrat and returned his son to him. Later, this same Devavrat had made a Bhishma vow to give his father's second marriage to Satyavati and to give the kingdom of Hastinapur to Satyavati's children only – that they would not marry for life and would always observe the Brahmachari Vrat. Due to this strict vow, he got the name Bhishma. And later on he was called Bhishma Pitamah of Kauravas and Pandavas.